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कृष्ण की राजधानी द्वारका / अनिरुद्ध शर्मा

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कृष्ण की राजधानी द्वारिका : चार धामों में भी गिनी जाती है और सप्तपुरियों में भी

अनिरुद्ध  शर्मा x

द्वारिका का नाम सुनते ही जेहन में दो दृश्य उभरते थे, एक तो सुदामा को राजसिंहासन पर बिठाकर श्रीकृष्ण द्वारा उनके चरण धोने वाला और दूसरा मीराबाई का सशरीर द्वारिकाधीश में समाने वाला। बचपन से ही द्वारिका को लेकर एक उत्सुकता सी मन में थी, उम्र बढ़ने के साथ द्वारिका के बारे में मन में उठने वाले सवालों का जवाब मिलता गया लेकिन द्वारिका देखने की लालसा बनी रही। जून, 2014 में वह इंतजार खत्म हो गया। मैं दिल्ली से उत्तरांचल एक्सप्रेस में बैठा और गुड़गांवा, रेवाड़ी, जयपुर, अजमेर, आबू, राजकोट, जामनगर होते हुए करीब 25-26 घंटे का सफर करके द्वारिका पहुंच गया।
द्वारिका भारत का ऐसा तीर्थस्थल है जो देश के चार धामों में भी गिना जाता है और सप्तपुरियों में भी। चार धामों में द्वारिका के अलावा बद्रीनाथ, पुरी और रामेश्वरम गिने जाते हैं और सप्त पुरियों में अयोध्या, मथुरा, माया (हरिद्वार), वाराणसी, कांचीपुरम, अवंतिका (उज्जैन) व द्वारवती (द्वारिका) शामिल हैं। एक दिलचस्प बात यह भी है कि चार धामों में से दो-द्वारिका और पुरी सीधे श्रीकृष्ण से जुड़े हैं, बद्रीनाथ में नर-नारायण और रामेश्वरम में महादेवजी विराजते हैं। द्वारिका पश्चिमी भारत के सौराष्ट्र (काठियावाड़) क्षेत्र में अरब सागर के तट पर है।
कथा है कि कंस वध के बाद उसके ससुर जरासंध ने मथुरा पर 17 बार आक्रमण किया। हर बार बहुत खूनखराबा हुआ, अंतत: कृष्ण ने ब्रजवासियों को जरासंध से बचाने के लिए मथुरा छोड़कर द्वारिका चले आए। वे समस्त यादव ग्वालों व गऊओं के साथ द्वारिका आए थे। कृष्ण ने समुद्र से जमीन मांगी तो उसने अपनी सीमा कुछ पीछे हटा ली, फिर कुशस्थली (कुशावर्त) नामक इस स्थान पर देवताओं के आर्किटेक्ट विश्वकर्मा ने रातोंरात इस नगरी का निर्माण कर दिया। कहा जाता है कि इस नगर में अनेक द्वार थे सो इसका एक नाम द्वारवती भी पड़ा। कृष्ण अपने परिजनों व मथुरावासियों सहित यहीं बस गए। लेकिन कुरुक्षेत्र में महाभारत युद्ध के बाद गांधारी ने कृष्ण को श्राप दिया कि जिस तरह कुरुवंश समाप्त हुआ है, उसी तरह यदुवंशियों का विनाश हो जाए। सौराष्ट्र के ही प्रभास पाटन में एक भील का बाण श्रीकृष्ण के चरणों में लगा जिसके बाद वे निजधाम वापस चले गए। सभी यदुवंशी भी आपस में लड़भिड़कर समाप्त हो गए और द्वारिका भी सागर में विलीन हो गई। कहते हैं केवल उनका निज भवन (हरिगृह) नहीं डूबा। इसी हरि गृह में कृष्ण के प्रपौत्र बज्रनाभ ने अपने परदादा की प्रतिमा स्थापित की और उसे मंदिर का रूप दिया। इस मंदिर को कई बार नास्तिक आक्रमणकारियों ने खंडित किया और लूटा तो आस्तिकों व आस्थावानों ने इसे फिर से संवारा, सुधारा। वर्तमान मंदिर जगदगुरु शंकराचार्य द्वारा पुनर्स्थापित माना जाता है। शंकराचार्य को देश के चारों धाम में मंदिरों के उद्धार का श्रेय दिया जाता है। शंकराचार्य ने चारों दिशा के चार धामों में एक-एक पीठ भी स्थापित की, जिनके अलग-अलग नाम है, द्वारिका की पीठ-शारदा पीठ कहलाती है। अन्य पीठों के नाम हैं-उत्तर के बद्रीनाथ धाम में ज्योतिष पीठ, पूर्व के जगन्नाथ पुरी में गोवर्धन पीठ और दक्षिण के रामेश्वरम से जुड़ा श्रृंगेरी पीठ।
सौराष्ट्र इलाके में द्वारिका के नाम से तीन स्थान प्रसिद्ध हैं-गोमती द्वारिका, बेट द्वारिका और मूल द्वारिका। गोमती द्वारिका वह स्थान है जहां से कृष्ण राजकाज चलाते थे तो बेट द्वारिका उनका निवासस्थान था और मूल द्वारिका वह स्थान माना जाता है जहां ब्रज से आने के बाद कृष्ण ने सौराष्ट्र पहली बार ठहरे थे, विश्राम किया था। बेट द्वारिका एक द्वीप है जो गोमती द्वारिका से करीब 32 किलोमीटर दूर ओखा पोर्ट के पास है जबकि मूल द्वारिका नाम से भी दो स्थान विख्यात हैं-एक जूनागढ़ जिले में कोडिनार के पास (गोमती द्वारिका से 270 किमी दूर) छोटा सा मूल द्वारिका नामक गांव, दूसरा पोरबंदर के पास विसावड़ा गांव (गोमती द्वारिका से 77 किमी दूर) में मूल द्वारिका मंदिर है। मैं द्वारिका नामक जिस स्टेशन पर उतरा, वह गोमती द्वारिका है। गोमती द्वारिका में ही द्वारिकाधीश मंदिर गोमती और सागर के संगम पर स्थित है।
इतिहास की बात करें तो द्वारिका का पहला उल्लेख भावनगर में मिली छठी सदी के तांब्रपत्र (कॉपर प्लेट) में मिलता है। द्वारिका की प्राचीनता व ऐतिहासिकता की खोज के लिए गोमती द्वारिका व बेट द्वारिका के पास कई बार सामुद्रिक उत्खनन भी किए गए हैं। सबसे पहला प्रयास 1963 में हुआ जो गुजरात पुरातत्व विभाग ने दक्कन कॉलेज पीजी एंड रिसर्च इंस्टीट्यूट, पुणे की मदद से किया। एचडी संकालिया के नेतृत्व में हुए इस उत्खनन में 2 हजार साल पुरानी कलाकृतियां मिलीं। दूसरा प्रयास 1979 में एएसआई ने किया, जब द्वारिकाधीश मंदिर के विस्तार के लिए यहां खुदाई चल रही थी तो नौंवी सदी के विष्णु मंदिर के अवशेष मिले। इसके बाद समुद्र का गहन खोजबीन हुई। एसआर राव के नेतृत्व में हुई इस खुदाई में 3 से 4 हजार साल पुराने मिट्टी के बर्तन के टुकड़े व ग्रेनाइट पत्थरों के ढांचे व अवशेष प्राप्त हुए। यही उत्खनन बाद में 1981 से 1990 तक जारी रहा। इसी तरह द्वारिका से करीब पौने तीन सौ किलोमीटर दूर खंभात की खाड़ी में 2000 से 2004 के बीच तीन बार व्यापक पैमाने पर इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ओशीन टेक्नोलॉजी ने सामुद्रिक उत्खनन किया, यहां जो अवशेष प्राप्त हुए उनका समय कार्बन डेटिंग से 9-13 हजार साल पुराना तय हुया। फिर 2007 में एक बार फिर नेवी डाइवर्स की मदद से एएसआई के अंडरवाटर आर्कियोलॉजी विंग के अधीक्षक अलोक त्रिपाठी के नेतृत्व में हुए सर्वे में समुद्र में डूबे नगर के अवशेष का पता लगाया और द्वारिकाधीश मंदिर के पास समुद्र से 30 तांबे के सिक्के प्राप्त किए। अरब सागर में हुई इन सभी खुदाइयों में मिले बर्तन, सिक्के, गहने, सील, पुराने लंगर और इमारतों के अवशेषों ने यह तो साबित किया कि मोहनजोदड़ो व लोथल की तरह द्वारिका भी हड़प्पा या सिंधु सभ्यता का एक हिस्सा थी। लेकिन यही कृष्ण की द्वारिका है, यह प्रमाणित नहीं हो सका। बहरहाल, आस्था व विश्वास कोई प्रमाण थोड़े खोजती हैं। सदियों से भारतीय मानते आए हैं कि यही द्वारका है। मंदिर के आसपास की खुदाई से पता चला है कि इस स्थान पर यह चौथा मंदिर है। पहले मंदिर की स्थापना की कोई ऐतिहासिक तिथि तो मालूम नहीं है लेकिन वह करीब दो हजार साल पुराना रहा होगा लेकिन 8वीं सदी में शंकराचार्य द्वारा पुनर्स्थापना के बाद भी द्वारिका ने आक्रमण व पुनर्निर्माण के कई दौर देखे हैं। शंकराचार्य द्वारा उद्धारित इस मंदिर की देखरेख राजपूतों ने की, 15वीं सदी में महमूद बेगड़ा ने द्वारिका के मंदिर को तोड़ दिया। 1861 में अंग्रेजों ने गायकवाड़ों के साथ इस मंदिर की मरम्मत करवाई। अब भी एएसआई इसके संरक्षण में जुड़ा है। जगह-जगह जर्जर हिस्सों को उसी किस्म के पत्थर व नक्काशी के बदलता रहता है।
दोपहर के कोई तीन-चार के बीच का समय होगा, जब द्वारिका पहुंचे थे। स्टेशन से ऑटो करके हम सीधे मंदिर के पास पहुंचे कि उसी के आसपास कोई ठिकाना तलाशेंगे। सौभाग्य से हमें शारदा पीठ में ही एक कमरा मिल गया जिसे द्वारिकाधीश मंदिर में मिला ठिकाना ही मानिए। पीठ की दूसरी मंजिल पर जहां कमरा मिला, वहां से गोमती नजर आ रही थी, उसमें उठती पानी की लहरें मानो हमें बुला रही थी। गोमती का स्नान घाट शारदा पीठ के बाहर ही था सो हमने स्नान का मन बना लिया।
गोमती नदी सरीखी लगती है पर यह एक बड़ा खाल (ताल) है जिसमें ज्वार से आया समुद्र का पानी ही भर जाता है। हालांकि इसकी मान्यता नदी जैसी ही है। एक कथा के अनुसार महर्षि वशिष्ठ जब पृथ्वी पर आ रहे थे तो स्वर्ग से गंगा का एक अंश ले आए, वही अंश पृथ्वी पर गोमती के रूप में प्रकट हुआ। एक अनुश्रुति यह भी है कि गोमती भी कृष्ण को उतनी ही प्रिय है जितनी यमुना। जब कृष्ण निजधाम जाने लगे तो गोमती ने उनसे कहा कि अब उनके बिना दिन कैसे कटेंगे तो कृष्ण ने गोमती को भरोसा दिया, वे कहीं भी रहें दिन में दो बार गोमती के तट पर जरूर आएंगे। बहरहाल, गोमती में स्नान में बहुत आनंद आया क्योंकि जल महज दो से तीन फीट गहरा ही था और लहरें काफी उठ रही थीं। समुद्र में स्नान का जीवन में यह पहला मौका था, जरा सा पानी मुंह में चला गया, इतना नमकीन (खारा) कि उसकी तुलना किसी से हो ही नहीं सकती। स्नान करके झटपट अपने कमरे में पहुंचे और तैयार होकर कमरे से बाहर ही निकले कि पीठ के एक सेवक ने हमें नीचे आने की बजाय अपने कमरे के पीछे जाकर कुछ सीढ़ियां चढ़ने की सलाह दी। हम तुरत शंकराचार्य पीठ की गद्दी वाले कक्ष में पहुंच गए और उसके दूसरे दरवाजे से निकले तो सीधे द्वारिकाधीश मंदिर प्रांगण में थे।
हालांकि औपचारिक रूप से मंदिर में प्रवेश के दो रास्ते हैं, दक्षिणी द्वार जिसे स्वर्ग द्वार कहा जाता है, यह गोमती की ओर है इस द्वार तक पहुंचने के लिए 56 सीढ़ियां चढ़नी पड़ती हैं। उत्तरी द्वार, मोक्ष द्वार कहलाता है जहां से मंदिर में प्रवेश के लिए थोड़ी सी ढलान भर है। ग्रेनाइट व सेंडस्टोन से बना यह मंदिर नागर (चालुक्य शैली/गुजराती सोलंकी शैली) वास्तु शैली का बेजोड़ नमूना है। मंदिर में गर्भगृह, अंतराल, मंडप और अर्धमंडप है। पांच मंजिला इस मंदिर में 60 स्तंभ हैं और गर्भगृह पर शंकु के आकार के शिखर की ऊंचाई 50 मीटर है। मंदिर के शिखर में सात सतह नजर आती हैं। यहां के पंडितों से इसकी व्याख्या सुने तो वे बताएंगे कि हर सतह एक पुरी का प्रतीक है, इस तरह यह शिखर सप्तपुरियों की याद दिलाता है। मंडप की पिरामिडनुमा छत असंख्य छोटे-छोटे घंटीनुमा गुंबदों से अलंकृत है। स्तंभों पर नक्काशी बहुत सुंदर है। मंदिर की दीवारों पर देवी-देवताओं व पशु-पक्षियों की कलाकृतियां गढ़ी हुई हैं। अत्यंत भव्य इस मंदिर को त्रिलोकसुुंदर, जगत मंदिर और रणछोड़ राय मंदिर के नाम से भी जाना जाता है।
मंदिर परिसर में गर्भगृह में द्वारिकाधीश के अलावा 9 अन्य पूजा स्थल हैं। मोक्ष द्वार से प्रवेश करें तो सबसे पहले दाहिनी ओर कुशेश्वर महादेव हैं इसके लिए कुछ सीढ़ियां नीचे तहखाने में उतरना पड़ता है। याद दिला दूं कि द्वारिका जिस स्थान पर बसाया गया वह कुशस्थली था तो मेरा अनुमान है कि कुशेश्वर महादेव यहां के कुल देवता होंगे। जिनकी उपासना अभी तक जारी है। प्रवेश द्वार के बाईं ओर काशी विश्वनाथ और कोलवा भगत का मंदिर है। इसके बाद प्रद्युम्न व अनिरुद्ध के मंदिर हैं। अनिरुद्ध नाम देखकर अनन्य बोला, पापा यहां तो आपका भी मंदिर है। उनके सामने पुरुषोत्तम राय जी का मंदिर है, प्रत्येक तीन साल बाद जब पुरुषोत्तम मास आता है तो यही द्वारिका के राजा माने जाते हैं। इस परिसर में दत्तात्रेय जी, वेणी माधवराय जी, ऋषि दुर्वासा के मंदिर हैं और मुख्य मंदिर और सभा मंडप के सामने माता देवकी का मंदिर है। जिसके एक तरफ भोग भंडार और दूसरी ओर राधारानी का मंदिर है। एक मंदिर बलराम जी का भी है। मुख्य मंदिर की परिक्रमा में पटरानी महल हैं, यह हवेली शैली का है जिसके बीच में एक आंगन है और उसके चारों ओर अलग-अलग कमरों में कई रानियों जैसे जामवंती, सत्यभामा, लक्ष्मी आदि के मंदिर हैं। मुख्य मंदिर के ऊपर चौथी मंजिल में अंबे मां का मंदिर है जो कृष्ण की कुलदेवी हैं। मंदिर के पीछे शंकराचार्यजी का शारदा पीठ है। 
मुख्य गर्भगृह में भगवान द्वारिकाधीश विराजमान हैं। न जाने कितने साल उनके दर्शन जन्माष्टमी के दिन रात को जन्म अभिषेक आरती के समय दूरदर्शन के लाइव रिले में किए थे, आज साक्षात उनके सामने थे। काले पत्थर के करीब सवा दो फीट के चतुर्भुजी विग्रह के एक हाथ में पांचजन्य शंख, दूसरे में सुदर्शन चक्र, तीसरे में गदा व चौथे हाथ में पद्म यानी कमल है। द्वारिकाधीश की विग्रह की भी एक दिलचस्प कहानी बताई जाती है। यहां रणछोड़ राय की जो मूल प्रतिमा थी उसे बोडाणा नाम के एक भक्त डाकोर ले गए। बाद में यहां मंदिर के एक पुजारी को भगवान ने स्वप्न दिया कि सावित्री बाव (कुछ पुराने लोग इस प्रसंग में कुएं का नाम श्रीवर्धिनी बावली कहते हैं) में उनकी एक प्रतिमा है जिसे एक निश्चित दिन निकालकर यहां प्रतिस्थापित कर दें लेकिन पुजारी इतने उतावले हो गए कि उन्होंने तय दिन का इंतजार न करके पहले ही बाव से वह प्रतिमा निकाल ली। फलस्वरूप वह प्रतिमा कुछ अधूरी सी रह गई। यदि आप द्वारिकाधीशजी के बेहद नजदीक से दर्शन करें तो आपको पता चलेगा कि उनकी आंखें अधखुली हैं। लेकिन यहां श्रृंगार इतना सुंदर होता है कि ऐसा लगता है कि मानो ठाकुरजी मुस्कुरा रहे हों, मुस्कुराने में आंखे अक्सर आधी बंद हो जाती हैं। श्रद्धालु मानते हैं कि बद्रीनाथ में पिंडदान, रामेश्वरम में जलार्पण और द्वारिका में श्रृंगार का विशेष महत्व है।
यहां गर्भगृह के बाहर सभामंडप यानी जगमोहन से ही ठाकुरजी के दर्शन करने होते हैं और सभामंडप के बाहर से ही श्रद्धालुओं को कतार में आना होता है। महिलाओं व पुरुषों की अलग-अलग कतार लगती है। मंडप के आखिरी में दो खंभों के ऊपर एक बड़ा सा दर्पण लगा जो द्वारिकाधीश के सामने ऐसे कोण में लगा है कि कतार में गुजरते हुए श्रद्धालु पीछे मुड़कर भी ठाकुरजी के दर्शन कर सकते हैं। हमारा एक बार में जी नहीं भरा, सो हम दर्शन करके बाहर आते और फिर कतार में लग जाते। संध्या आरती होने तक इस तरह कई बार आगे जाकर दर्शन किए। लोग हाथों में तुलसी की मालाएं लिए थे। ठाकुरजी का फूलों से श्रृंगार हुआ था। उनके वस्त्र से लेकर आभूषण, मुकुट सब फूलों के ही बने थे। मंदिर चमेली, चंदन, तुलसी व कपूर की मिश्रित सुगंध से महक रहा था। बहुत तेज ठंडी हवा चल रही थी। हम ठाकुर जी के ठीक सामने देवकी माता के जगमोहन में बैठे रहे ताकि बैठे-बैठे भी दर्शन होते रहें। एक महिला बहुत भाव से हाथ में एक तंबूरा लिए गुजराती भाषा में एक भजन गा रही थी। उसे देख दो अन्य दर्शनार्थी आपस में बात कर रहे थे कि यहीं बैठकर मीराबाई भी ऐसे ही भजन गाती होगी।
यहां द्वारिकाधीश की महाराजा की तरह सेवा-पूजा होती है। ऐसा कहा भी जाता है कि बद्रीनाथ में भगवान ध्यान लगाते हैं, पुरी में भोजन करते हैं, रामेश्वरम में जल स्नान करते हैं और द्वारिका में भगवान राज करते हैं। सुबह मंगला से लेकर रात के शयन तक चार बार आरती और 11 बार भोग लगता है। मंगला आरती से द्वारिकाधीश को जगाया जाता है। शृंगार आरती में उन्हें सजाया जाता है, संध्या आरती में उत्थापन होता है और शयन आरती के बाद उन्हें सुला दिया जाता है। राजा के सेवक यानी यहां पुजारी मुझे काफी संपन्न महसूस हुए। यह अनुमान मैंने अधिकांश पुजारियों के गले में सोने की चेन, कलाई में सोने-चांदी के कड़े व घड़ी और अंगुलियों में कई अंगुठियों को देखकर लगाया। सबके सब सदा रेशमी कपड़े की चटक रंगों वाली बिना बाजू की बंडी-सी पहने रहते हैं जिसे बगलबंदी कहते हैं और धोती पहने दिखे जब शयन भोग समय पर्दा आया तो हम स्वर्ग द्वार की ओर की ओर भी झांक आए और मोक्ष द्वार से बाहर निकलकर भी बाहर का नजारा ले आए। अगले दिन बेट द्वारिका जाने की व्यवस्था भी कर ली। मंदिर में वापस लौटकर शयन आरती के दर्शन किए और शारदा पीठ की रसोई में ही प्रसाद लिया।


(द्वारिका यात्रा-1) 


(नोट : यह यात्रा संस्मरण में मैंने 21 जून, 2014 को द्वारिका से दिल्ली लौटते हुए उत्तरांचल एक्सप्रेस में अपनी डायरी में लिखा था, उसमें तनिक संशोधन करके उसे यहां पोस्ट किया है, यह चार हिस्सों में से पहला है)




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