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शिमला समझौते को करीब से महसूससने का सुख / त्रिलोकदीप

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एक दिन रघुवीर सहाय दफ्तर में जब आये तो सीधे मेरी टेबल की तरफ आकर बोले, 'दीप जी, मेरे साथ आयें कुछ ज़रूरी बात करनी है।'पीछे पीछे मैं उनके कक्ष में पहुंचा।मुझे बैठने का इशारा किया, बाद में वह खुद बैठे। उनकी तहज़ीब का कोई मुकबला नहीं था। वैसे भी वह अक्सर बाहर आकर हम लोगों के साथ बैठ जाया करते थे और जब किसी साथी से विशेष या गंभीर बात करनी होती थी तो उसे बुलाने के लिए चपरासी को न भेजकर खुद बुलाने जाया करते थे। सीधा विषय पर आते हुए उन्होंने कहा कि भारत और पाकिस्तान के बीच जो शिमला समझौता हुआ उसकी संयुक्त विज्ञप्ति तो सब ने देख ली है , मैं यह चाहता हूं पीलू मोदी से मिलकर दोनों नेताओं में बातचीत के पहले, दौरान औऱ बाद में क्या माहौल था उसपर लिखा जाये। यह हमारे लिए एक्सक्लूसिव होगा। शिमला से लौटने के बाद अभी तक पीलू मोदी किसी पत्रकार से नहीं मिले हैं। मैं ने जब कहा कि कोशिश करता हूं तो उनका दोटूक जवाब था, 'मैं जानता हूं आप कर लेंगे।'औऱ मैंने अपने संपादक को ग़लत सिद्ध नहीं होने दिया। थोड़ी कोशिश करने के बाद सांसद पीलू मोदी से मिलने का वक़्त मिल गया। पहले पहले मैंने ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो और उनकी दोस्ती की बातें की-- एक साथ बॉम्बे के कैथेड्रल बॉयज स्कूल से लेकर कैलिफ़ोर्निया के बर्कले कॉलेज तक । फिर उनके कैलिफ़ोर्निया विश्वविद्यालय से एम.ए. {वास्तुशिल्पी) की डिग्री लेने के बाद चंडीगढ़ नगर क्षेत्र परियोजना में ली कॉर्बुसिए के साथ एक शिल्पकार के तौर पर काम करने तथा बाद में ओबेरॉय होटल के स्वतंत्र वास्तुशिल्पी के तौर पर झंडे गाड़ने की कहानी सुना उन्हें यह बताना चाहा कि आपके बहुआयामी व्यक्तित्व से मैं परिचित हूं। इसके बाद मुझे लगा कि अब मुझे मुद्दे पर आना चाहिए। मैंने जब पूछा कि जब जुल्फिकार अली भुट्टो को जनरल याह्या खान के स्थान पर राष्ट्रपति बनाया गया तो आपकी क्या प्रतिक्रिया थी। उन्होंने कहा मुझे खुशी हुई कि मेरा दोस्त जुल्फी (ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो को वह इसी तरह संबोधित करते हैं) ही पाकिस्तान को इस हालत से निकाल सकता है। बहुत से पत्रकार मेरा इंटरव्यू चाह रहे थे। मैंने तब इलस्ट्रेटेड वीकली को एक इंटरव्यू दिया जिसे पढ़ने के बाद जुल्फी ने मुझे एक पत्र लिखा। उसके बाद मैंने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से भेंट कर उन्हें बताया कि जुल्फी ऐसा नहीं है जैसा उसे प्रोजेक्ट किया जाता है। वह बहुत ही ज़हीन और समझदार इंसान है। मुझे लगता है कि उसके रहते दोनों देशों के बीच संबंध सुधरने में मदद मिल सकती है। मुझ से जितना भी बन पड़ा मैंने अपने दोस्त के पॉजिटिव पक्ष से श्रीमती गांधी को अवगत कराया। जब मुझे शिमला में जुल्फी और इंदिरा गांधी के बीच शिखर वार्ता की खबर मिली तब मैंने जुल्फी से मिलने की इच्छा ज़ाहिर की और इस आशय का एक पत्र प्रधानमंत्री को लिखा जिसकी प्रति विदेशमंत्री सरदार स्वर्ण सिंह को भी भेज दी। बहुत दिनों तक जब कोई जवाब नहीं मिला तब मैंने विदेशमंत्री से इसका सबब पूछा। उन्होंने बताया कि इस बाबत खत बज़रिया पाकिस्तान के राष्ट्रपति आना चाहिए। मैंने कहा इसमें कोई मुश्किल नहीं। एक दिन मेरे एक मित्र ने फ़ोन करके बताया कि रायबहादुर ओबेरॉय सड़क से शिमला जा रहे हैं, अगर तुम और वीना (पीलू की पत्नी) चाहो तो उनके साथ जा सकते हो। आईडिया मुझे पसंद आया और इस तरह मैं शिमला पहुंच गया। चंडीगढ़ से शिमला आते हुए हेलीकॉप्टर में मेरी मुलाकात के बारे में शायद स्वर्ण सिंह ने जुल्फी से बात की होगी जिसके जवाब में उन्होंने मुझ से जल्दी मिलने की ख्वाहिश जताई। शिमला में मेरी तलाश शुरू हुई। आखिरकार हमारी मुलाकात हो ही गयी जो तीन घंटे चली। हम लोग अपने1बचपन के दिनों के साथ कॉलेज के दोस्तों पर बात करते रहे। जुल्फी की बेगम नुसरत तो नहीं आयी थी बेटी बेनज़ीर साथ थी। फिर वह पाकिस्तान में अपनी दुश्वारियां बताता रहा। अगले दिन का इस्तेमाल भी हम दोनों ने एकसाथ किया क्योंकि शिखर सम्मेलन अभी तय नहीं हो रहा था। शिखर सम्मेलन की बैठक खत्म होते या तो हम दोनों उसके कमरे में चले जाते या जुल्फी आ जाता। एक दिन बोला बात बन नहीं रही है। मुद्दे कई हैं, 90 हज़ार हमारे युद्धबंदी हिंदुस्तान के पास हैं, कश्मीर का मसला है, हमारा अंदरूनी मामला है, कट्टरपंथियों का डर है, हर कदम फूंक फूंक कर रखना होगा1।हम दोनों के बीच दस घंटे से अधिक बातचीत हुई होगी। इतनी देर तक शायद दोनों देशों के नेता भी नहीं मिले होंगे। हां मुझे बेनज़ीर बहुत शार्प लगी। भुट्टो ने तब यह भी माना था कि हिंदुस्तान के नेता पर भी यकीनन दबाव होगा। हमें बीच का रास्ता तलाशना है। हमारे दोनों मुल्कों के नौकरशाह भी जूट हुए हैं। कई दौरों की बात चलने के बाद उसे जब असफल करार दे दिया गया तो कारकून अपना सामान लपेट कर चलते बने। परंपरा के अनुसार जुल्फी ने विदाई डिनर दिया। मैं औऱ वीना ही गैरसरकारी मेहमान थे। डिनर खत्म होने को ही था कि इन्दिरा गांधी और जुल्फी ने ऐलान किया कि हमें एक आखिरी कोशिश और करनी चाहिए। दोनों नेता वहां के बिलियर्ड रूम में चले गए और कई घंटों की मशक्कत के बाद जब दरवाज़ा खुला तो दोनों नेताओं के चेहरे पर खुशी थी।अब इलेक्ट्रॉनिक टाइपराइटर की तलाश शुरू हुई जो हिमाचल भवन में नहीं था। ओबेरॉय होटल से टाइपराइटर औऱ वहीं से स्टेशनरी भी मंगाई गई। बाद में जब पाकिस्तान की सरकारी मोहर लाने को कहा गया तो पता चला कि वह सामान के साथ चली गयी है। ओबेरॉय होटल वाली स्टेशनरी पर शिमला समझौता टाइप हुआ जिसे अगले दिन विधिवत कागजात पर तैयार किया गया। आधी रात बीत चुकी थी। समझौते की प्रति जुल्फी ने मुझे भी दिखाई। उस समझौते को देखने वाला मैं तीसरा व्यक्ति था। उसे दिखाते हुए मेरे दोस्त ने मेरी राय पूछी थी। मैंने इतना भर कहा कि दोनों देशों के बीच शांति स्थापित हो इससे बढ़ कर और क्या अच्छी बात हो सकती है। अलबत्ता स्वतंत्र पार्टी का अध्यक्ष होने के नाते मैंने शिमला समझौते का स्वागत करते हुए कहा कि भारत-पाकिस्तान शिखर सम्मेलन में स्थायी शांति की दिशा में पहला हिचकिचाहट भरा कदम उठाया गया है।आने वाले दिनों में औऱ कई कदमों की ज़रूर होगी लेकिन असली ज़रूरत है चौथाई सदी से व्याप्त संशय की भावना को समाप्त करना।यह मात्र संधियां या समझौते नहीं बल्कि यह आपसी विश्वास और भाईचारे की ऐसी बुनियाद है जो दोनों देशों को महान भविष्य की दिशा की ओर अग्रसर करेंगी। 'इस शिखर वार्ता के अनुभवों से यह सिद्ध हो जाता है कि युद्ध में न कोई बिजेता है और न ही कोई पराजित, जैसे कि एमर्सन ने कहा है कि वास्तविक और स्थायी जीतें शांति की होती हैं, युद्ध की नहीं।'पीलू मोदी के साथ इस बातचीत को रघुवीर सहाय जी ने बहुत सराहा था और दिनमान में इसे प्रमुखता से छापा गया था।मेरी यह भेंट 1972 में जुलाई के पहले सप्ताह में उनके लोदी एस्टेट आवास पर हुई थी शिमला समझौता होने के करीब एक हफ्ते बाद। इस मुलाकात के बाद पीलू मोदी के यहां मेरा आना जाना लगा रहता था। जब भी मुझे किसी विषय पर उनकी टिप्पणी चाहिए होती थी तो मुझे बिल्कुल मनाही नही थी। उनके अन्य कई दोस्तों की तरह मैंने भी उन्हें ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो की दोस्ती पर पुस्तक लिखने की सलाह थी। आखिरकार 'Zulfi My Friend'नाम की किताब छप गयी जो पीलू जी ने कृपापूर्वक एक प्रति मुझे भी भेंट की। उनका आभार। उनसे जुड़ी और बहुत सी यादें हैं जो बाद में कभी।

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