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तेल की धार का सार / अरविंद कुमार सिंह

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तेल जो हमारे ज्ञान को अमर बनाता है

'तेल ज्ञान को अमरत्व  प्रदान करता है'। .... क्या शानदार विज्ञापन है इंडियन आयल का। जी हां यह 1967 का सरकारी विज्ञापन है। रेल मंत्रालय में रहने के दौरान यह एक फाइल में मुझे मिल गया था तो स्कैन करा कर सहेज लिया। इसकी रचनात्मकता और अभिनव सोच ने मुझे बहुत प्रभावित किया। सोचा था कि किसी दिन साझा करूंगा। 1967 यानि उस दौर में प्रकट रूप में हर आदमी का तेल से सीधा सरोकार नहीं था क्योंकि निजी वाहनों की संख्या बहुत सीमित थी और कृषि क्षेत्र में भी ट्यूबवेलों की तादाद सीमित थी।  सार्वजनिक वाहन में बैठने वालों को इस बात की चिंता नहीं होती कि तेल भरा कौन रहा है।
लेकिन इंडियन आयल कंपनी के अधिकारियों ने जो विज्ञापन बनवाया उसे ज्ञान  और शब्दों से जोड़ कर इसका संबंध सबसे निकाल लिया। विज्ञापन देखें तो साफ लगेगा कि हिंदी ही नहीं अंग्रेजी और सभी भारतीय भाषाओं से भी इसे जोड़ा गया है। शब्दों के साथ इसमें लगा चित्र विज्ञापन की एक अलग ताकत दिखती है। कम से कम शब्दों के बावजूद बेहद ताकतवर विज्ञापन है यह।  इसमें यह जानकारी दी गयी है कि प्राचीन मिश्र के निवासी जानवरों की हड्डियों की कालिख में तेल मिला कर स्याही बनाते थे और आज भी छपाई के स्याही में तेल का उपयोग होता है। यानि तेल ज्ञान को अमरत्व देता है।
हमारे प्रांत उत्तर प्रदेश में किसी भी सरकारी विज्ञापन को आप देख लें तो मेरा दावा है कि उसे देख कर ही आप नहीं पढ़ेंगे क्योकि ऐसा लगता है कि वह विज्ञापन नहीं बल्कि वार्षिक रिपोर्ट है। अधिकतम शब्दों से भरा विज्ञापन जारी करने का रिवाज 1995 में मायावती जी के मुख्यमंत्री काल में आरंभ हुआ और योगीजी के शासनकाल में भी वैसे ही फल फूल रहा है। हो भी क्यों न कम शब्दों में बात कहना सरल नहीं होता है। और फिर रचनात्मकता का भी तो ख्याल रखना होता है। कई बार मैं वरिष्ठ अधिकारियों से लेकर कई मंत्रियों और एक मुख्यमंत्री मित्र को भी यह आगाह कर चुका हूं कि चौराहों पर लगे विज्ञापनों को पढ़ाना हो तो इतिहास नहीं लिखा जाता। लेकिन काम पुरानी नीति औऱ रीति पर ही जारी है। बाकी राज्यों में भी कमोवेश ऐसी ही स्थिति है।
सच बात तो यह है कि आज की दुनिया विज्ञापन की दुनिया है। पहले की तुलना में विज्ञापनों का दायरा बहुत ज्यादा बढ़ गया है और विकल्प भी। उत्पादों से लेकर व्यक्तियों तक के विज्ञापन। टीवी, सोशल मीडिया, डिजिटल प्लेटफॉर्म, होर्डिंग्स, गाडियां, अख़बार से लेकर तमाम माध्यमों पर। दरें अलग अलग हैं। जाहिर है विज्ञापन की अपनी ताकत है। लोगों से पैसा खींचने की ताकत और लोगो को प्रभावित करने की ताकत। बहुत से छोटे विज्ञापन ही हिट हुए हैं चाहे वे राजनीति के हों या फिर उत्पादों के। आज ही खरीदें, बजाज ही खरीदें, ठंडा मतलब कोका कोला,  कुछ मीठा हो जाए जैसे तमाम विज्ञापन लोगों की जुबान पर चढ़ गए थे। मैगी से लेकर बहुत से उत्पादों की बिक्री का बढना और बच्चों में को रिझाने का काम रचनात्मक विज्ञापनों की ही देन है। बैशक विज्ञापन मीडिया की आय का प्रमुख स्रोत हैं। लेकिन सामाजिक जागरण से लेकर तमाम क्षेत्रों में इनकी भूमिका रही है। साक्षरता अभियान, परिवार नियोजन, महिला सशक्तिकरण, पोलियो एंव कुष्ठ निवारण अभियान में ये काफी सहायक रहे। चुनावों में जनमत बनाने और बिगाड़ने में भी इनकी भूमिका होती ही है। लेकिन यह बात आम तौर पर देखी जा रही है कि इन दिनों सरकारी विज्ञापनों का स्तर गिरता जा रहा है। या तो इनमें राजनीतिक हस्तक्षेप अधिक होता है या फिर रचनात्मक लोगों की बेहतरीन अभिव्यक्तियों को प्रोत्साहन नहीं मिल रहा है। कुछ बात तो है।
© अरविंद कुमार सिंह
Vijay Dutt Shridhar Sapre Sangrahalaya, Makhanlal ChaturvediUniversity IIMC Delhi, Indian Oil Corporation Ltd.Petroleum and Natural Gas Regulatory Board


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