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तालाबंदी के दौर में तालाबंदी का इतिहास / अरविंद कुमार सिंह

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तालाबंदी का दौर, अलीगढ़ के ताले और भारतीय डाक
तालाबंदी यानि लॉकडाउन ने ताला शब्द का उपयोग जितना हुआ है उतना कमसे कम बीती एक सदी में तो हुआ नहीं। और सौ डेढ़ सौ साल पहले कमसे कम ग्रामीण समाज में किसी ताले की जरूरत नहीं था। वह ताला समाज ही होता था। लेकिन आज तो स्कूटर के ताले, साइकिल के ताले,  दरवाजे और अलमारियों के ताले,  टेलीफोन के ताले,  दराजों के ताले, शटर के ताले, ग्लास लाक, नंबर लाक और तरह तरह के ताले हमें जहां देखों वहीं दिखते हैं।
तालाबंदी शब्द का सीधा अर्थ तालों के इतिहास से नहीं है लेकिन हम तो शब्दजीवी हैं, लिहाजा आज सोचा कि बात तालों पर हो।  आज हमारे देश का कोई कोना नहीं बचा है जहां तालों की पहुंच न हो। चंद आदिवासी घर परिवार और कुछ अपवाद हो सकते हैं। कहते हैं कि भारत में पहले ताले लगते नहीं थे। उस दौर में भी जब हम सोने की चिड़िया कहे जाते थे। इस बारे में तो इतिहास के विद्वान ही बता सकेंगे मैं कोई आधिकारिक व्यक्ति नही हूं। इस नाते इसे लिखने का अर्थ अपनी कुछ जानकारी साझा करना है और तालों के बारे में विद्वानों से अपना ज्ञान बढाना भी है। वैसे तो हमारे शहरी समाज में कई घर बिना ताले के नहीं है और तालों का उपयोग भी खूब होता है। सेठानियों की चाबी के छल्ले भी बहुत कलात्मक होते हैं और जिसके कमर से पहले जितनी चाबियां दिखती थीं, उतने ही खाते पीते घर का वह माना जाता था। खैर अब दुनिया बदल गयी है।
ताले शहरी समाज में अनिवार्य वस्तु बन गए हैं। जहां जितनी संपत्ति उतने ही ताले। लेकिन ताले तो खामोशी से लगते है। रोज ताला लगाने के बाद भी हम ताला शब्द का वैसा उपयोग नहीं करते जैसा आज के दौर में खास तौर पर तालाबंदी के दौर में हो रहा है। तो हमारे साथ चलिए अलीगढ़।भारत के किसी हिस्से में लगे तालों को आप गंभीरता से देखेंगे तो पाएंगे कि उनमें अधिकतर अलीगढ़ के बने हैं। भारत में 100 में से 70 ताले अलीगढ़ बनाता है। काफी समय से चीन के ताले इसे टक्कर दे रहे हैं। वे अलीगढ़ के तालों से सुंदर दिखते हैं लेकिन उनमें वो दम नहीं है जो अलीगढ़ के तालों में हो। यहां डेढ़ लाख लोगों की रोटी ताला कारोबार से चलती है और 10 हजार से अधिक छोटे बड़े कारखाने सालाना 1500 करोड़ का कारोबार करते हैं। कहते हैं कि ये ताले अपनी ही चाबी से खुलते हैं।
अलीगढ़ में ताला कारोबार भारतीय डाक की देन है। 1842 में भारतीय डाक विभाग ने यहां पर पोस्टल वर्कशाप स्थापित किया। इसमें डाक तार विभाग के लिए बहुत से दूसरे सामानों के साथ तालों को बनाने का काम आरंभ हुआ। यह कारखाना अलीगढ में ताला उद्योग का प्रेरक और प्रशिक्षण केंद्र बना। अपनी किताब भारतीय डाक में इस वर्कशाप के महत्व के बारे में मैने लिखा है। लेकिन यहीं से तालाा कारोबार आरंभ हुआ और धीरे गलियों से होता गांवों तक पसर गया। इससे जुड़े तमाम काम होते हैं। कहीं तालों की चद्दरें काटी जाती हैं तो कहीं तालों की ढलाई होती है और कहीं जड़ाई तो कहीं चाबियां बनती हैं। कहीं पालिश का काम होता है तो कहीं पैकिंग का काम। डाक तार विभाग की बदौलत भारतीय कारीगर ताला तकनीक से परिचित हुए। 1867 में अलीगढ़ के हीरालाल ने आधुनिक तकनीक का ताला बनाना आरंभ किया तो दो दूसरे उद्यमी करीम इलाही और नबी बख्श ने उनके बाद ये काम आरंभ किया और फिर तांता ही लग गया। 1870 में जानसन एंड कंपनी ने इंग्लैंड से ताला आयात कर इस कारोबार में एक नया मोड़ दिया और इस कंपनी 1890 में एक ताला बनाने का कारखाना भी खोल दिया। फिर विस्तार होने लगा। 1926 में सरकारी मेटल वर्कशाप स्थापित होने के बाद यह उद्योग और पनपा। इस वर्कशाप का मकसद कारीगरों को ताला निर्माण कला में प्रशिक्षण देना था। यहां पर सबसे पहले डाई पंचतालों का निर्माण 1934 में आरंभ हुआ। 1947 में भारत पाक विभाजन के बाद ताला कारोबार को झटका लगा क्योंकि कई कारोबारी और अच्छे कारीगर यहां से चले गए लेकिन उनकी जगह धीरे धीरे वहां से आए पंजाबियों ने लेनी आरंभ कर दी जो इस कारोबार के बारे मं अधिक कुछ जानते नहीं थे। बाद में नयी नयी तकनीकें आती रहीं। जिला उद्योग केंद्र में पंजीकृत अलीगढ़ के 1100 ताला कारखाने हैं, जिसमें गोदरेज और लिंक ताले जैसे बड़े कॉर्पोरेट खिलाड़ी भी शामिल हैं। लेकिन काफी छोटी इकाईयां भी हैं। धीरे धीरे यह उद्योग गली-गली और गांव गांव पसरता रहा। कहीं तालों की चद्दरें काटी जाती हैं, कहीं ढलाई, कहीं जड़ाई तो कहीं पालिश और कहीं तालों की पैकिंग का काम होता है।
लेकिन हाल के सालों में ताला नगरी को ड्रैगन की काफी चुनौती झेलनी पड़ी है। चीनी ताले सस्ते है। लेकिन उसकी तुलना में थोड़ा महंगा होकर भी अलीगढ़ का ताला गुणवत्ता में बेजोड़ है। चीन में सिलिंडर वाले ताले बनते हैं, जिनकी फिनिशिंग अलीगढ़ी तालों से बेहतर और कीमत कम होती है। अलीगढ़ में लीवर तकनीक के परंपरागत ताले बनते रहे हैं। हालांकि अब सिलिंडर वाले ताले भी बन रहे हैं। मशहूर ताला कंपनी लिंक लॉक प्राइवेट लिमिटेड के निदेशक मुहम्मद अली ने एक बातचीत में मुझे बताया था कि लागत घटाने के लिए कुछ उद्यमी चीन से सिलिंडर और चाबी मंगाकर देसी ताले में फिट करते हैं जिससे लागत 20 से 40 फीसदी तक कम हो जाती है। अब अलीगढ़ के उद्यमी अत्याधुनिक डिजिटल और इलेक्ट्रिक तालों में संभावनाएं तलाश रहे हं। इन तालों का निर्यात बाजार भी काफी बड़ा है। वैसे तो अलीगढ़ से श्रीलंका, नेपाल, पाकिस्तान, बांगलादेश, अमेरिका तक ताले का निर्यात होता है। लेकिन इसके विस्तार की काफी संभावनाएं हैं। कल्याण सिंह के प्रयासों से उनके मुख्यमंत्री काल में अलीगढ़ में तालानगरी स्थापित की गयी थी लेकिन अभी भी यहां बुनियादी सुविधाओं की कमी है। सरकार स्किल इंडिया और मेक इन इंडिया पर जोर दे रही है। दिल्ली से करीब होने के साथ अलीगढ़ में इन दोनों संदर्भो में काफी संभावनाएं हैं।

(C) अरविंद कुमार सिंह

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