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देख तमाशा दुनिया का
"तुम भी बैठ जाओ किसी की गोद में..."
"अजी सुनते हो... पूरी दुनिया के दफ्तर खुल गए... मुए एक तुम्हारे दफ्तर को ही आग लगी है... कुछ तो शर्म करो... घर से ऑफिस कब तक चलाओगे... अब तो कामवाली से लेकर अड़ोसन-पड़ोसन भी पूछने लगी हैं... बड़े सूरमा बने फिरते हो... सोसाइटी में भी डरपोक का खिताब मिलने वाला है..."
श्रीमती जी के प्रवचन हरि कथा की तरह अनंत होते जा रहे थे। इस निरीह प्राणी की बुद्धि में सुबह-सुबह श्रीमती जी के प्रवचनों की कोई वजह फिट नहीं हो रही थी। लिहाजा पूछना पड़ा "भाग्यवान हुआ क्या...? क्यों हॉट प्लेट बनी घूम रही हो? चाय लाने को कहा था सिलेंडर खत्म हो गया क्या... जो केतली माथे पर धरे डोल रही हो...?"
"मेरे ऐसे भाग कहां जो कुछ हो जाए... दो घड़ी का आराम तक नहीं है नसीब में...। ऊपर से इनका दफ्तर... इनकी चाय... तुमसे भले तो अनामिका और आशीष ही हैं... और एक तुम हो काम के ना काज के दुश्मन अनाज के..."
इस जली-कटी के बीच श्रीमती जी द्वारा किसी महिला का नाम हमारे साथ जोड़ा जाना बड़ा सुखद संयोग था। क्योंकि हमारी कोई महिला मित्र उन्हें फूटी आंख नहीं सुहाती। लेकिन यह कौन सी अनामिका प्रकट हो गई? जिसे हम नहीं जानते और श्रीमती जी उसके नाम का उलहाना दे रही हैं। हमने उनके शब्दों पर गौर फरमाया "...तुमसे अच्छे तो अनामिका और आशीष ही हैं।"हमें लगा कि शायद हमारे पड़ोस में कोई नया जोड़ा आया है। बिना सोचे समझे ही हम श्रीमती जी से पूछ बैठे "नाश्ते पर बुलाया है क्या..."
"किसे...?"कहते हुए श्रीमती जी जो गुर्राईं तो हम सिट्टी-पिट्टी ही भूल गए। दोनों नाम भी दिमाग से उड़न छू हो गए। कुछ न सूझा तो मिमिया कर बोले "अरे अभी जिनका नाम ले रही थीं..."
"वो... अनामिका..."
हमारी समझ में नहीं आया कि हम हां कहें कि ना कहें। बस इतना ही कह सके "वही होगी... जिसका नाम ले रही थीं अभी तुम..."
"अरे शर्म करो... डूब मरो... अनामिका से ही सीख लो कुछ...। सारे दिन आंख गड़ाए कागज पर कलम घिसते रहते हो... सौ रुपल्ली तो मिलती नहीं...। अनामिका को देखो... अकेले दम पच्चीस स्कूलों में टीचरी करती है। खुश होकर सरकार ने एक करोड़ रुपए तनख्वाह दी है। एक तुम हो... पच्चीस अखबारों के लिए कलम घसीटते हो पच्चीस सौ नहीं पाते..."
"अरे भाई तुम किस फ्राॅड की बात कर रही हो...?"
"फ्राॅड काहे का... धंधा तो सरकारी दफ्तर से ही चल रहा था ना...? अप्वाइंटमेंट लेटर तो सरकारी ऑफिस से ही जारी हुआ...? पकड़ में आई कोई अनामिका शुक्ला...? हर आदमी की ऐश है इस राज में... एक तुम हो... काहे के खबरनवीस कहो खुद को...? एक दफ्तर तो ढंग से चलाना आया ना... तुमसे अच्छा तो आशीष ही है..."
अनामिका शुक्ला को तो हम फौरन पहचान गए। सूबे भर के कस्तूरबा विद्यालयों में इस नाम से अब तक कई गुल खिल चुके हैं। लेकिन आशीष का क्या माजरा है? यह हमारी समझ से परे का मसला ठहरा। लिहाजा श्रीमती जी की शरण में जाना पड़ा "भाई यह आशीष कौन है...?"
"लो... कल्लो बात... आशीष राय को नहीं जानते...? किसी टटपूंजिया चैनल का पत्रकार है। लखनऊ सचिवालय में बैठकर पशु पालन विभाग का दफ्तर चलाता है...। तुम जैसे तो उसने अपने मातहत रख रखे हैं...। कई अफसर सचिवालय के गेट पर उसकी लाल बत्ती की गाड़ी की अगवानी को खड़े रहते हैं। आपकी इतने अफसरों से जान पहचान हैं... मैं तो कहूं हूं... आप भी पशु पालन विभाग जैसा कोई दफ्तर खोल लो सचिवालय में...। आशीष जैसा पत्रकार सचिवालय में अपना दफ्तर खोल कर दस-बीस करोड़ कमा सके है तो तुम भी ऐसी कोई डील डाल कर लो ना...। मैं तो सुन सुन के पक गई... गोदी मीडिया, गोदी मीडिया... जाने तुम्हें अकल कब आवैगी... तुम भी कबी बैठोगे किसी की गोद में..."
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