राव बीरेंद्र सिंह मेरे बहुत अच्छे मित्र थे। बेशक़ वह कई बार केंद्रीय मंत्री भी रहे, बावजूद इसके हमारी मित्रता अटूट रही। पहले 5, जनपथ पर और बाद में लोदी एस्टेट में उनके निवास पर निर्बाध मेरा आना जाना था। इतना मैं और वह भी ख्याल रखते थे कि किसी ज़रूरी और महत्वपूर्ण मीटिंग के दौरान उन्हें डिस्टर्ब न किया जाये। इस मर्यादा का मैने सदा पालन किया।उसके बाद जब वह सर्वप्रिय विहार में रहने लगे तो भी हमारी मुलाकातों में कमी नहीं आयी। कभी कभी तो मैं उनके गुरुग्राम वाली कोठी में भी मिलने के लिए पहुंच जाता। सर्दी के दिनों में जब कभी उनके घर से गाजर का हलवा आता तो अपने बेटे इंदरजीत सिंह को आवाज़ देकर मेरे लिए मंगवाया करते थे। देसी घी और सूखे मेवों से भरपूर गाजर के हलवे को हम दोनों स्वाद ले ले कर खाया करते थे। ।उन्होंने अपने बेटे से मेरा परिचय भी कराया था। जब कभी मैं उनके घर जाता तो बाहर से ही चुरुट की smell आ जाती। मैं पूछता, यह फिदेल कास्त्रो की गिफ्ट है क्या। वह भी हंस कर जवाब दिया करते थे, हां उनके गांव क्यूबा की। राव साहब ही हिफाज़त के लिए बेहतरीन कुत्ते थे। उन्हें बिल्लियां रखने का भी शौक था।
राव बीरेंद्र सिंह से मेरी मुलाकात दिनमान के लिए एक इंटरव्यू के सिलसिले में हुई थी जो बाद में प्रगाढ़ होती चली गयी। कारण यह था कि अपने इंटरव्यू में मेरे प्रश्नों के जिस भाषा में उन्होंने उत्तर दिए थे बिना किसी लागलपेट और काटछांट के छापे गये। अलावा इसके दिनमान की अहमियत का एहसास भी उन्हें उस इंटरव्यू के बाद हुआ। लिहाज़ा वह मेरी इज़्ज़त करने लगे। अब जब भी मुझे किसी मुद्दे पर उनकी प्रतिक्रिया की ज़रूरत पड़ती तो मेरे लिए नाही नहीं थी। धीरे धीरे उनकी निजी, फौजी और राजनीतिक रुचियों की भी जानकारियां प्राप्त हुईं। रेवाड़ी के पूर्व राव शासक घराने से उनका संबंध था। राव तुला राम के वंशज थे, सेंट स्टीफेंस कॉलेज में पढ़े थे, 1942 से 1947 तक सेना में रहे, द्वितीय विश्वयुद्ध में भाग लिया। 1947 में सेना छोड़ कर राजनीति में आ गये।उन्होंने अपनी किसान मजदूर पार्टी बनाई। 1952 में पहले पंजाब विधानसभा का चुनाव नहीं जीत पाये। लेकिन 1954 में विधान परिषद के सदस्य बन गये और दो बरस बाद अपनी पार्टी का कांग्रेस में विलय कर दिया और प्रताप सिंह कैरों की सरकार में उपमंत्री बन गये। उनकी योग्यता को देखते हुए कुछ माह बाद कैरों ने उन्हें कैबिनेट मंत्री बना दिया। 1962 के चीन युद्ध के समय राव साहब पंजाब सरकार के रक्षा सलाहकार बनाये गये। पहली नवंबर 1966 को हरियाणा का अभ्युदय होने से उनकी राजनीतिक दिलचस्पी नवनिर्मित राज्य में हो गयी।
1967 के पहले विधानसभा चुनाव में वह विजयी रहे। तत्कालीन मुख्यमंत्री पंडित भागवत दयाल शर्मा से मतभेदों
के चलते पहले कांग्रेस पार्टी छोड़ संयुक्त विधायक दल (एस वी डी ) का गठन किया, विधानसभा के पहले स्पीकर बने और बाद में मुख्यमंत्री। एस वी डी के विघटन के बाद विशाल हरियाणा पार्टी (विहिप) का गठन किया।लगता था कि अब राज्य की राजनीति से उनका मन उचट गया था लिहाज़ा 1971 में विहिप की टिकट पर लोकसभा पहुंच गये। इंदिरा गांधी के आग्रह पर विहिप का कांग्रेस में विलय कर दिया। 1980 और 1984 के चुनाव कांग्रेस की टिकट पर जीते।
राव साहब से मैं हर मुद्दे पर खुल कर बात कर लिया करता था एक बार उनसे पूछ ही लिया कि आपके नाम के साथ यह 'आया राम गया राम 'क्यों लगाया जाता है। उन्होंने गुस्सा नहीं किया। बहुत ही सहज भाव से बोले, दरअसल हरियाणा नया नया वजूद में आया था, पंडित भागवत दयाल शर्मा से विधायक खुश नही थे। उन्होंने मेरे कंधे पर बंदूक रख कर चलाई। एक दिन काफी संख्या में कांग्रेस के विधायक एसवीडी में गये औऱ मुझे आगे कर दिया। मैं भी ताव में आ गया। हुआ यों कोई विधायक सुबह मेरे खेमे में आता, उसी शाम या दूसरे दिन दूसरे खेमे चला जाता। यह खेल मार्च से नवंबर, 1967 तक चला। मैं भी आज़िज़ आ चुका था लिहाज़ा मैंने एसवीडी को ही भंग कर दिया और अपनी नई विहिप का गठन किया और राज्य की राजनीति से तौबा की।उन्होंने बताया था कि जब इंदिरा गांधी ने कृषिमंत्री बनाने का ऑफर दिया तो मैंने साफ तौर पर कहा कि अगर कृषि के साथ सिंचाई विभाग भी मिलेगा तभी मैं यह आफर स्वीकार करूंगा। मेरा मानना है कि सिंचाई विभाग को कृषि से अलग कर देने से किसी भी महकमे का भला नहीं हो सकता। मेरा सुझाव मान लिया गया। इसके तहत मैंने अपनी योग्यता के अनुसार गरीबों की भलाई के लिए ठोस कदम उठाये, हरियाणा राज्य के विकास के लिए माकूल केंद्रीय सहायता की व्यवस्था करायी, रवि-ब्यास संपर्क नहर समझौता करने के लिए पंजाब, हरियाणा और राजस्थान को राजी किया ताकि किसी भी राज्य को पानी की कमी महसूस न हो। उनके बाद राजीव गांधी ने भी मुझे अपने मंत्रिमंडल में शामिल कर खाद्य और नागरिक आपूर्ति मंत्री बनाया। मुझे लगा कि जितनी आज़ादी मुझे इंदिरा जी के समय फैसले लेने की थी, उसमें कुछ कमी आयी है। मैंने घुटन महसूस की और न केवल मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया बल्कि कांग्रेस पार्टी को भी अलविदा कह दिया। वह केवल नौ महीने तक ही मंत्री रहे 31 दिसंबर 1984 से लेकर 25 सिंतबर, 1985 तक।
राजीव गांधी सरकार के लिए यह पहला बड़ा झटका था। राव साहब के घर भीड़ जमा हो गयी। वह किसी से नहीं मिले। उनके त्यागपत्र के बारे में एक प्रेस नोट जारी कर दिया गया। मैं फोन करके अगले दिन सुबह पहुंच गया। खूब खुल कर लंबी बात हुई। उन्होंने तब बताया था कि एक तो राजीव राजनीति में नवसीखिया हैं, दूसरे उनके कॉरपोरेट संस्कृति में काम करने वाले युवा सलाहकार हैं और तीसरे हमारे बंसीलाल और भजनलाल काबीना मंत्री हैं। इन सब का प्रभाव राजीव गांधी पर इतना गहरा था कि उनमें सच्चाई और चापलूसी में फ़र्क़ करना नहीं आ रहा है। जिस रवि-ब्यास जल समझौते पर इंदिरा गांधी ने दिल खोल कर मेरी तारीफ की थी, इन्हें जब ऐसा ही कोई महत्वपूर्ण सुझाव दिया तो वह उनके सिर के ऊपर से निकल गया। अभी राजनीति के पेंच राजीव को सीखने होंगे।राव साहब के साथ काफी लंबी बातचीत थी जो दिनमान की कवर स्टोरी बनी। कवर पेज पर राव बीरेंद्र सिंह थे। इस कवर स्टोरी ने छपते ही धमाका कर दिया, वह इसलिए भी कि लोगों की लाख कोशिशें के बावजूद राव साहब किसी के सामने खुलने को तैयार नहीं हुए। जब मैं दिनमान का अंक उन्हें देने उनके निवास पर पहुंचा तो देखा कि उनकी टेबल पर दिनमान का वह अंक पहले से मौजूद था जिसे वह पढ़ चुके थे
बोले, कमाल कर दिया तुमने, मेरे कार्यकर्ताओं ने तो कई कॉपियां खरीद ली हैं। और तुमने लिखा भी है पूरे मनोयोग से है। ऐसे थे हमारे राव साहब, अपनी बात के धनी।
1989 में भी उन्होंने चुनाव लड़ा था और चंद्रशेखर की सरकार में मंत्री भी रहे। लेकिन मुझे लग रहा था कि राजनीति से उन्हें विरक्ति सी होती जा रही है। हमारी मुलाकातें जारी रहीं।
कभी कभी हम लोग शाम को भी बैठ जाया करते थे।उनका ज़्यादातर वक़्त राव तुलाराम कॉलेज तथा अन्य शिक्षण संस्थाओं में बीतने लगा। राव बीरेंद्र सिंह अखिल भारतीय यादव महासभा के भी अध्यक्ष थे। वहां अपना समय देने लगे।
दिनमान छोड़ कर जब मैं 'संडे मेल' में आया तो खुश होकर बोले, तुम्हारी हर खुशी में मेरी खुशी है, खूब तरक्की करो। मेरी बेटी की शादी में वह विशेष तौर पर आशीर्वाद देने के लिए आये थे। वहां डॉ.बलराम जाखड़ और संजय डालमिया को देखकर बहुत खुश हुए थे। निस्संदेह राव बीरेंद्र सिंह और उनकी साफ़गोई आज भी मेरे ज़ेहन में ताज़ा है। उनकी सुनहरी यादों को सादर नमन।