आपातकाल को परिभाषित करने की पहल
इतिहास कभी पुराना नहीं होता. वह ज़ब तब हमारे सामने किताबों में चर्चाओं में यादों में जीवित रहता है. समय गुजरने के साथ ही इतिहास की कोई घटना हरदम एक सबक सीख सरोकार या संदेश की तरह ही आसपास को समाज को सतर्क करता है. सावधान करता है. और मौजूदा समय से तुलना करने का मौका भी देता है .
आज से 45 साल पहले देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की अक्खड़ पुत्री और कई बार प्रधानमंत्री बनी और रही इंदिरा गाँधी ने अपनी सत्ता सामर्थ सनक को एक नया सार्थक आयाम देने के लिए 25-26 जून 1975 की रात में देश में आपातकाल जिसे (emergency ) इमरजेंसी कहा जाता हैँ, को देश पर लाद दिया.
लोकतंत्र के इस काले अध्याय का कालखंड 21 माह का रहा. इस दौरान देश की अर्थव्यवस्था का जमकर दुरूपयोग किया गया . मीडिया का गला सेंसर से नेस्तनाबूद कर दिया gya. देश के सारे विपक्षी नेताओं को जबरन जेल में ठूसा गया. आरी लोकतांत्रिक व्यवस्था श्री मती गाँधी के घर की महरी बन गयी. सत्ता का ऐसा काला खेल कभी नहीं खेला गया.
ज़ब दुनियां का सबसे बड़ा लोकतंत्र श्री मती गाँधी & चमच्चो के हाथ की कठपुतली सी बन गयी मीडिया का गला तोड़ दिया गया. लोकतंत्र का वजूद खतरे में पड़ गया था. समाज के आम जनमानस को . आबादी पर अंकुश लगाने नाना तरीके से उत्पीड़ित किया जाने लगा. नसबन्दी के नाम पर कभी 72 साल के किसी बुजुर्ग का तो कभी 16 साल के किसी अबोध बालक का नसबंदी कर दिया जा रहा था.
जिससे समाज में जनता में व्यापक रोष का संचार होने लगा.
जनमानस के इसी असंतोष को काफ़ी करीब से देखने वाले 86 वर्षीकर सबसे वरिष्ठ और आज भी सक्रिय पत्रकार संपादक बलबीर दत्त ने 45 साल के बाद आपातकाल पर गहन चिंतन और तमाम दस्तावेजो को एकत्रित करके अपनी नयी किताब को सामने लाया है. 472 पेजी इमरजेंसी का कहर और सेंसर का जहर. पुस्तक को प्रभात प्रकाशन के प्रभात पेपरबैक्स ने छापा है.
यू तो हिंदी में आपातकाल पर छिटपुट कुछ किताबें आयी है, मगर शोधपरक दस्तावेजों कार्टूनो, चित्रों व्यंगचित्रो पेपर कतरनों सरकारी कागज़ो आदेशपत्रो से सुसज्जित इस तरह की कोई भी किताब हिंदी में अबतक नहीं आयी थी. . रांची एक्सप्रेस अख़बार के संपादक के रूप में इनका संग्रह शोध और संकलन किया गया है मगर ज़ब यह किताब आज सबके सामने है तो पदम् श्री सम्मान से सम्मानित बलबीर जी अपनी पकी हुई उम्र में भी झारखंड की राजधानी रांची में देशप्राण नामक एक नये अख़बार को पिछले तीन साल से नया आकर दें रहे है.
वरिष्ठ पत्रकार संपादक बलबीर दत्त की लेखनी की सबसे बड़ी खूबी यह है की किसी अध्याय को एकसार करते हुए लम्बा बोरिंग करने की बजाय छोटे छोटे प्रसंगो को सूत्रबद्ध करतें है. इस तरह एक ही किताब में सैकड़ो रोचक घटनाओं किस्से कहानियो को पिरोते है. जिससे सामान्य पाठको को भी चटकारे लेकर पढ़ने में मजा आता है तो वही गंभीर पाठको को भी सुनी अनसुनी ढेरों उन घटनाओं की भी जानकारी हो जाती है, जिससे वे अपरिचित रहते है.
इस तरह इमरजेंसी जैसी किताब को पढ़ते हुए कभी तो राजनैतीक लोककथा कभी रोचक गपशप तो कभी अनहोनी प्रसंगो को जानकर ज्यादातर पाठक मुग्ध हो जाएंगे किताब में आज़ादी के बाद के तथाकथित बड़े दबंग नेताओं के टपोरपन की इतनी रसदार कथाये है कि चापलूसों से भरी संसद को देखकर उनके विदूषक व्यक्तित्व पर हैरानी भी होती है और दुख भी कि इतनी बड़ी आबादी में बेहतर नेताओं जनप्रतिनिधियो कि तादात कितनी कम hai. इस किताब में इतना रस है कि इस रसभरी किताब के सब और सबका उल्लेख करना तो संभव ही नहीं है.
निसंदेह दस्तावेजों के साथ सुसज्जित यह हिंदी की सबसे बेहतरीन किताब है. हालांकि बिहार के कांग्रेसी सांसद रहे दिवंगत शंकर दयाल सिंह की किताब इमरजेंसी : क्या सच क्या झूठ में राजनैतिक सरगर्मियों का जीवंत उल्लेख तो है. सबका आखों देखा हाल विवरण भी मगर गहराई अधिक नहीं hai. अलबत्ता हिंदी में बहुचर्चित जरूर है कि एक कांग्रेसी नेता ने आपातकाल कि रोजमर्रा रोजाना कर वाकये को शब्दबद्ध किया है. श्री मती गाँधी के करीबी कैबिनेट से बाहर होने का खतरा उठाना ही दिवंगत शंकर दयाल जी के साहस और जुझारूपन को प्रकट करता है.
मगर बलबीर दत्त की किताब में इसके सामाजिक राजनीतिक प्रभाव और जनता के असंतोष को स्वर दिया गया है. यह किताब एक तरह से आज़ादी के बाद राजनीति के विकृत चेहरे की कलई का जीवंत विवरण है . भले ही 45 साल के बाद आपातकाल पर यह किताब अब आयी है मगर आने के साथ ही आपातकाल साहित्य की एक बड़ी कमी को खत्म भी करती है. बलबीर दत्त को श्रेय दिया जा सकता है कि देर से ही सही इस किताब ने आपातकाल को नये तरह से परिभाषित करके शून्यता को भर दिया है. 472 पेजी किताब को आकर्षक साज सज्जा के साथ छापा गया है और इसकी क़ीमत 500/- भी कोई खास अधिक नहीं लगती है
अनामी शरण बबल
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