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आखिर चीन चाहता क्या है? /ऋषभ देव शर्मा

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ऋषभ देव शर्मा:

संपादकीय///

चीन की तिलमिलाहट

ड्रैगन आग उगल रहा है! लद्दाख सीमा पर भारत का सक्रिय हो उठना इस अग्नि वमन का तात्कालिक प्रत्यक्ष कारण हो सकता है। लेकिन भीतरी और गहरा कारण अंतरराष्ट्रीय कूटनीति और वैश्विक रिश्तों के समीकरण के बदलाव में निहित है। वीटो के बल पर संयुक्त राष्ट्र में भारत की स्थायी सदस्यता को रोकने में सदा सफल रहते आए चीन को भारत की बढ़ती शक्ति फूटी आँख नहीं सुहाती। खास तौर से ऐसे वक़्त जब चीन की अमेरिका के साथ तनातनी उच्च शिखर पर है, वह भारत की अमेरिका और दूसरे देशों से बढ़ रही समीपता को भला कैसे सहन कर सकता है? जिस चीन ने संचार क्रांति के पूरे बाजार को अपनी उँगलियों पर नचाने की पूरी तैयारी कर रखी हो, उसे भारत और आस्ट्रेलिया की नई नज़दीकियाँ क्यों रास आने लगीं? इसलिए अगर आपसी रिश्तों की सब मर्यादा भूल-भाल कर वह धमकियों पर उतर आया है, तो अचरज कैसा? वही तो चीन के चरित्र का स्थायी भाव है। चीन के सरकारी मीडिया का हमलावर तेवर इतका ताज़ा प्रमाण है। भारत पर जमकर निशाना साधते हुए चीन सरकार की पत्रिका  'ग्लोबल टाइम्स'  ने धमकाने के लहजे में लिखा  है कि भारत को अमेरिका के उकसावे में नहीं आना चाहिए और कि भारत को चीन के प्रति रणनीतिक श्रेष्ठता का भ्रम पालने से बचना चाहिए। अतः साफ है कि उसे भारत के बढ़ते वैश्विक कद पर घोर आपत्ति है।

गौरतलब है कि अमेरिका ही नहीं आस्ट्रेलिया से भी भारत की बढ़ती निकटता  चीन की आँख में किरकिरी बन कर चुभ रही है। खबर है कि भारत और ऑस्ट्रेलिया के बीच हुए रक्षा समझौते के तहत अब दोनों देशों की सेनाएँ एक दूसरे के मिलिट्री, एयरफोर्स और नौसेना बेस इस्तेमाल कर सकेंगी। कहना न होगा कि इस समझौते का सीधा असर चीन पर पड़ेगा। शायद यह सोच कर ही चीन का  खून खौल रहा है कि समझौते के तहत अब भारत और ऑस्ट्रेलिया मिलकर हिंद महासागर पर अपना दबदबा बना सकते हैं और दक्षिणी चीन सागर से होने वाले किसी भी आवागमन को ब्लॉक कर सकते हैं, जिसका सीधा असर चीन को होने वाली पेट्रोलियम सप्लाई पर पड़ेगा।

याद रहे कि  चीन इधर इस बात को लेकर आस्ट्रेलिया  से खास तौर पर खफा है कि कोरोना विषाणु फैलाने के लिए चीन को जिम्मेदार ठहराने और इस तमाम घटनाचक्र की जाँच की माँग के लिए दबाव डालने वालों में आस्ट्रेलिया की भूमिका प्रमुख रही है। इसलिए भी भारत और ऑस्ट्रेलिया के सामरिक समझौते को  चीन अपने साम्राज्यवादी दैत्याकार वर्चस्व के लिए चुनौती की तरह ले रहा है।

कोढ़ में खुजली यह भी कि अमेरिका भारत को जी 7 के लिए न्यौत चुका है। 'ग्‍लोबल टाइम्‍स'का मानना है कि अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के जी 7 का विस्‍तार करके जी 11 या जी 12 किए जाने के प्रस्ताव पर भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सकारात्‍मक जवाब आग से खेलने के बराबर है!

यह तो आईने की तरह साफ है कि अंतरराष्ट्रीय दृष्टि से भारत की ये रणनीतिक सफलताएँ चीन को पसंद नहीं आ रही हैं। इसलिए वह सीमाओं पर भारत को उलझाए रखना चाहता है। उसकी सीपेक गलियारे की परियोजना भी खटाई में पड़ती दिख रही है। सयाने बताते हैं कि जिस तरह से भारत ने 2019 में जम्मू और कश्मीर के खास दर्जे को खत्म किया और पाक अधिकृत कश्मीर पर अपना दावा किया है, उससे चीन की यह परियोजना पूरी तरह अटक सकती है। इसलिए यह समझ रखना चाहिए कि अभी अगर आपसी बातचीत से सीमाओं पर कुछ देर के लिए चुप्पी कायम हो भी जाए, तो वह ऊपरी और अस्थायी ही होगी। यानी, तनातनी अब लंबी चलने वाली है। भारत भी इस स्थिति के लिए अपनी तैयारी के संकेत दे चुका है।

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चीन के बढ़ते हाथ बनाम भारत का संयम


गलवान घाटी में भारत और चीन के सैनिकों के बीच हिंसक झड़प में भारत के एक उच्च अधिकारी सहित 20 सैनिक वीरगति को प्राप्त हुए। हमेशा तनाव रहने के बावजूद इतनी हिंसा भारत-चीन सीमा पर 1975 से नहीं हुई थी। साफ है कि यह झड़प अचानक नहीं हुई। बल्कि चीन की सुनियोजित साज़िश का हिस्सा है। साज़िश वास्तविक नियंत्रण रेखा की स्थिति को बदलने की। ताकि चीन को अपनी अमान्य गतिविधियों के लिए अधिक जगह मिल जाए!

यह अब  किसी से छिपा नहीं रह गया  है कि चीन की नीयत क्या है। उसे बर्दाश्त नहीं कि सीमा पर उसके अवैध निर्माण कार्यों पर भारत आपत्ति करे। भारत का अपने इलाके में सड़क और बंकर बनाना तो उसे फूटी आँखों भी नहीं सुहाने वाला। वह चाहता है कि हमेशा की तरह दादागीरी करता रहे और भारत चुपचाप सहता रहे। इसीलिए गत दिनों गलवान घाटी में आमने-सामने पहुँची दोनों देशों की सेनाओं के क्रमशः पीछे हटने के 6 जून के समझौते का उसने जानबूझ कर उल्लंघन किया। ताकि झड़प हो। फलतः यह हिंसक झड़प हुई। बेशक,  चीन का यह कृत्य शत्रुतापूर्ण और निंदनीय है। उम्मीद की जानी चाहिए कि लिहाज-शरम छोड़ चुके इस तथाकथित दोस्त को भारत सीमा के अलावा अन्यत्र मोर्चों पर भी माकूल जवाब देगा।

इसमें दो राय नहीं कि लद्दाख की गलवान घाटी हो या सिक्किम का नाकु ला इलाका, समस्या मूलतः नियंत्रण या सीमा की वर्तमान स्थिति को बदलने के चीन के मनसूबे से जुड़ी है। इसे राजनयिक और कूटनैतिक स्तर पर प्राथमिकता के साथ सुलझाया जाना चाहिए था। सैन्य स्तर पर इसका हल हो ही नहीं सकता। भारत के वर्तमान विदेश मंत्री चीनी मामलों के विशेषज्ञ हैं। फिर भी हालात क्यों इतने बिगड़ने दिए गए, यह समझ के परे है! अपने वीर सपूतों की शहादत पर सारे देश की भुजाएँ फड़क रही हैं। इसलिए इस झड़प को युद्ध में तब्दील होने से बचाने के लिए व्यापक  और सफल राजनयिक संवाद बेहद ज़रूरी है। साथ ही, व्यावसायिक और कूटनैतिक शॉक ट्रीटमेंट भी!

चीन को यह कतई पसंद नहीं आ रहा होगा कि  कोरोनो वायरस की उत्पत्ति की स्वतंत्र जांच के लिए भारत विश्व जनमत के साथ खड़ा है। सयाने बता रहे हैं कि भारत को इस अंतराष्ट्रीय राजनयिक मुहिम में शामिल होने से रोकने को बाध्य करना चीन की इस इस हरकत का एक तात्कालिक उद्देश्य है। लेकिन अब भारत को इस तरह और ब्लैकमेल नहीं किया जा सकता, हमें अपने एक्शन से इसे चरितार्थ करके दिखाना होगा।

भारत को एक स्वायत्त और संप्रभु लोकतंत्र के नाते अब अपने अंतरराष्ट्रीय नीति-निर्धारण में चीन जैसे देशों के मनोवैज्ञानिक दबाव से मुक्त होना होगा। हो भी रहा है। नए वैश्विक समीकरणों के बीच अब भारत चीन के उन कृत्यों पर खुल कर उसे विश्व मंचों पर घेर सकता है, जिन पर अब तक हम चुप रहते आए हैं। तिब्बत की बात हो या उइगर मुसलमानों की, भारत को इन पर चुप्पी तोड़नी चाहिए। हांगकांग और ताइवान पर भी। शक्ति संतुलन के लिए यह ज़रूरी है।

भारत  को अब यह भी समझ जाना चाहिए कि हम चीन के तकनीकी और व्यापारिक उपनिवेश बनते जा रहे हैं। इन हलकों में चीन पर हमारी निर्भरता के चलते 'आत्मनिर्भर भारत'का लक्ष्य भला कैसे साधा जा सकता है? ताज़ा घटनाचक्र को हमें चीन पर अपनी निर्भरता कम करने और अंततः समाप्त करने के अवसर में तब्दील करना होगा। इसके लिए सरकार की राजनैतिक इच्छा शक्ति और देशवासियों की संकल्पबद्ध एकजुटता दोनों की ज़रूरत होगी। ताकि चीन को यह अहसास हो सके कि  वह 2020 को 1962 समझ कर कितनी बड़ी आत्मघाती गलती कर रहा है!

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ज़रूरी है चीन को समीचीन जवाब



गलवान घाटी के शहीदों को श्रद्धांजलि देते हुए भारत के प्रधानमंत्री सहित हर देशवासी के दिल में एक ही संकल्प है- यह बलिदान व्यर्थ नहीं जाना चाहिए। प्रधानमंत्री मोदी का यह कथन पूरे देश की भावना को प्रकट करता है कि- भारत अपनी अखंडता और संप्रभुता से समझौता नहीं करेगा और भारत पूरी दृढ़ता से देश की एक-एक इंच जमीन और देश के स्वाभिमान की रक्षा करेगा।

लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि भारत चीन की सेनाओं पर धावा बोल दे और इस इलाके सहित पूरी दुनिया को किसी बड़े युद्ध में झोंक दे। हो सकता है, चीन यही चाहता हो। परंतु यह वक़्त सँभल सँभल कर उन हलकों में आगे बढ़ने का है, जिनमें पैर पसार कर चीन महाबली बना बैठा है। ये क्षेत्र भौतिक सीमा से संबंधित नहीं, बल्कि द्विपक्षीय और अंतरराष्ट्रीय व्यापारिक, आर्थिक, मनोवैज्ञानिक और कूटनैतिक गतिविधियों से संबंधित हैं। कठिन हो, थोड़ा नुकसान भी उठाना पड़े, तो भी चीन की नकेल व्यवसाय स्तर पर कसना ज़रूरी है।

जैसा कि कॉन्फेडरेशन ऑफ ऑल इंडिया ट्रेडर्स (कैट) ने लक्षित किया है, देश के व्यापारी लद्दाख में एलएसी के ताजा घटनाक्रम से काफी आक्रोशित हैं।  इसलिए कैट ने चीनी उत्पादों का बहिष्कार और भारतीय वस्तुओं को बढ़ावा देने वाले राष्ट्रीय अभियान को और अधिक तेज करने का फैसला किया है। सबसे ज़रूरी होगा, भारतवासियों की तकनीकी ज़रूरतों के लिए चीन पर निर्भरता को कम करना। 'आत्मनिर्भर भारत'के विकास के लिए इसे अनुकूल अवसर समझना चाहिए। हो सकता है, दोनों देशों के बीच कुछ ऐसे समझौते हों, जिनसे बाहर निकलना भारत सरकार के लिए तुरंत संभव न हो, तो भी भारत की जनता अगर दृढ़ इच्छा शक्ति, एकजुटता और राष्ट्रीय भावना का परिचय देते हुए चीन और उसके उत्पादों पर अपनी निर्भरता कम कर दे, और भारतीय बाजार में चीन का अबाध प्रवाह रोका जा सके, तो कहा जा सकता है कि हमने वीर सपूतों का बलिदान व्यर्थ नहीं जाने दिया!

धीरे धीरे सरकार को भी उन नीतियों को बदलना होगा जो चीन को भारत के बाजार में फायदा पहुँचाती आ रही हैं। आपके चाहने भर से चीन आपका दोस्त नहीं हो सकता, दोस्ती का दिखावा उसकी रणनीति है। अन्यथा वह है तो दुश्मन ही। वरना ये नौबतें ही क्यों आतीं!

चीन के दाँत खट्टे करने के लिए भारत को अब खुलकर हर उस अंतरराष्ट्रीय मंच का उपयोग करना होगा, जिस जिस पर चीन अपनी दादागीरी थोपता आया है। कोरोना संक्रमण में विवादास्पद भूमिका के कारण चीन इस समय दुनिया के सामने बचाव की मुद्रा में है। भारत को इस स्थिति का लाभ उठाते हुए चीन से नाखुश देशों के साथ मिलकर नई लामबंदी इस तरह करनी होगी कि चीन के विस्तारवादी और मानवाधिकार विरोधी चेहरे को बेनकाब किया जा सके। उसे लगना चाहिए कि ड्रैगन के लिए भी भारत को छेड़ना आग से खेलना है!

आज कई शक्तिशाली देशों की समझ में यह बात आ चुकी है कि चीन भरोसेमंद है ही नहीं, क्योंकि वह अंतरराष्ट्रीय शांति, स्थिरता और समृद्धि के नियमों के प्रति प्रतिबद्ध नहीं हैं। इसीलिए तो अभी अभी ऑस्ट्रेलिया ने कहा न कि, चीन का दक्षिण चीन सागर पर दावा और इलाके की यथास्थिति को बदलने का कदम चिंताजनक है। भारत इस चीन विरोधी सेंटीमेंट को वैश्विक लहर बनाने की कूटनीति पर काम कर सकता है। अर्थात, सुरक्षा परिषद और विश्व स्वास्थ्य संगठन में भारत जिन नई जिम्मेदारियों को सँभालने जा रहा है, उनसे भी भारत को चीन और उसके पालतू मुल्क पाकिस्तान को ज़मीन सुँघाने के अवसर मिलेंगे। उम्मीद की जानी चाहिए कि उन सब अवसरों पर भारत गलवान घाटी के शहीदों के बलिदान को याद रखेगा!
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चीन का कूटनीतिक घेराव


गलवान घाटी में भारतीय सैनिकों के साथ चीन के विश्वासघात और क्रूरतापूर्ण आचरण पर भारतवासियों का गुस्सा और उसके दृढ़ प्रतिकार का संकल्प इस बारे में हुई प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और विभिन्न राजनैतिक दलों के प्रमुखों की ऑनलाइन मीटिंग में साफ साफ दिखाई दिया। इस मीटिंग का यह संदेश स्पष्ट है कि राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर सारा देश एकजुट है और अपनी सेनाओं के साथ खड़ा है। हम युद्ध नहीं चाहते, लेकिन यदि युद्ध हमारे ऊपर थोपा जाएगा, तो राष्ट्र की अंखडता और संप्रभुता की रक्षा के लिए हम किसी भी परिस्थिति का मुँहतोड़ जवाब देने के लिए सक्षम और तैयार हैं।

इस बीच यह भी स्पष्ट हो गया है कि सीमा पर होने वाली झड़प कमजोरी या गफलत की निशानी नही हैं, बल्कि अरसे से उपेक्षित पड़े उस इलाके के बुनियादी ढाँचे के विकास के हमारे प्रयास को बाधित करने की चीनी चेष्टा का सबूत है। जैसे-जैसे इलाके में बुनियादी ढाँचा मजबूत होगा, इसकी संभावनाएँ और बढे़ंगी। सयाने मानते हैं  कि भारत सरकार द्वारा रोड और एयरफील्ड बनाने और यातायात को बेहतर करने से चीन और भारत के बुनियादी ढाँचे के बीच का फर्क कम होता जा रहा है।  इस पर चीन की बौखलाहट ही इस झड़प का मूल कारण है। बाद में भी, अभी तक गलवान घाटी में चीन की आपत्तिजनक गतिविधि का जारी रहना इस बात को पुख्ता करता है कि वह वास्तविक नियंत्रण रेखा की स्थिति को बदलने पर आमादा है। भारत उसकी इस मंशा को पहचानता है। वहाँ हमारी भी पूरी सामरिक तैयारी दिखाई देना इसका प्रमाण है। इतना ही नहीं, भारत ने अब तय कर लिया है कि चीन की इस दुष्टता का जवाब केवल सैन्य स्तर पर ही नहीं, व्यापार, व्यवसाय, प्रौद्योगिकी और कूटनीति के हर मोर्चे पर डटकर दिया जाएगा।

अब समय आ गया है कि दोनों देशों के नेताओं की निजी मित्रता से ऊपर उठकर, भारत भी चीन की धोखेबाज़ी के खिलाफ उसी तरह आक्रामक कूटनीति का सहारा ले, जिस तरह अमेरिका लेता आया है। आपसी विश्वास और दोस्ती ही नहीं, वास्तविक नियंत्रण रेखा पर सेनाओं के सद्भावपूर्ण आचरण के समझौतों की चीन ने जिस प्रकार धज्जियाँ उड़ाई हैं, वह सारा आचरण शत्रुतापूर्ण ही है। और शत्रु के साथ शत्रुता का व्यवहार करना ही पड़ता है- 'शठे शाठ्यम् समाचरेत'! इसीलिए अब अंतरराष्ट्रीय कूटनय के स्तर पर भारत को अपनी नीतियों में कुछ बहुत साफ-साफ परिवर्तन  लाने होंगे, ताकि चीन को घेरकर रखा जा सके। सयाने बता रहे हैं कि अब से भारत ताइवान से अपने सांस्कृतिक संबंध और लोगों से संपर्क के स्तर पर सहयोग को बढ़ाएगा। साथ ही, अब हमें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ताइवान को समर्थन करने वाले देशों के साथ भी एकजुटता दर्शानी होगी और इस मसले पर अमेरिकी नीति का खुलकर साथ देना होगा।क्योंकि अब वक़्त आ गया है कि भारत वैश्विक मंचों पर चीन को बेनकाब करने के लिए बाकायदा अभियान  चलाए। चीन के कुकर्मों पर आँख मूँदने या चुप रहने के दिन लद गए। तिब्बत पर इतने दिन चुप रहकर भारत को क्या मिला? अतः तिब्बत पर भी हमें अपना स्टैंड बदलना चाहिए। सयानों की मानें तो भारत अब रक्षात्मक होने की कीमत नहीं चुकाना चाहता और  चीन के प्रतिकार के लिए आक्रामक कूटनीति का रास्ता अपनाने को तैयार है, ताकि उसे विश्व बिरादरी के समक्ष बेनकाब किया जा सके। यह इसलिए भी ज़रूरी और तर्कसंगत है कि खुद चीन भारत को परेशान करने के लिए पहले ही कई मोर्चे खोल चुका है। पाकिस्तान के अलावा नेपाल को भी अब उसने भारत विरोध के लिए अपना मोहरा बना लिया है। मदारी के पिल्लों की तरह ये दोनों चीन के इशारे पर भारत के खिलाफ भौंकने से तब तक बाज नहीं आएँगे, जब तक आप खुद मदारी का गला न पकड़ लें! कहना न होगा कि कोरोना के विश्वव्यापी संक्रमण के फैलाव में चीन की भूमिका को लेकर दुनिया भर के देशों में पैदा हुए गुस्से के रूप में यह अवसर एकदम सामने उपस्थित है और भारत को इसका कूटनीतिक लाभ उठाना ही चाहिए- 'मत चूको  चौहान'!

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