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रवि अरोड़ा की नजर से

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जन्नत और स्वर्ग की अदला बदली



रवि अरोड़ा


नवाब साहब से मेरा सीधा परिचय नहीं है मगर मैं उनके बारे में जानता हूँ । दिल्ली चाँदनी चौक के निकट मटिया महल मे रहते हैं । कोविड 19 होने पर उन्होंने दिल्ली के एक नामी अस्पताल में अपने अब्बा को भर्ती कराया । तय नियमों के अनुरूप अस्पताल में भर्ती होने के बाद अपने मरीज़ से सीधे सम्पर्क की इजाज़त अस्पताल प्रशासन ने उन्हें नहीं दी । मरीज़ के बाबत पूछताछ करने के लिए केवल टेलिफ़ोन किया जा सकता था मगर वह भी दिन में केवल दो बार । लगभग एक हफ़्ता नवाब साहब के अब्बा अस्पताल में रहे और इस बीच क़रीब दस लाख रुपये भी इलाज के नाम पर अस्पताल वालों ने जमा करवा लिये । एक दिन अस्पताल से फ़ोन आया कि आपके मरीज़ की मौत हो गई है और शाम को आकर उसकी लाश ले जायें । रोते पीटते परिजन अस्पताल पहुँचे तो एम्बुलेंस में एक सील बंद लाश उन्हें दिखाई गई और बताया गया कि अस्पताल के दो कर्मचारियों की देखरेख में ही मृतक को सुपुर्दे ख़ाक किया जा सकता है । कोरोना की वजह से शव को घर ले जाने की आज्ञा नहीं थी और कुछ अन्य रिश्तेदारों के पहुँचने का इन्तज़ार भी अस्पताल वालों ने नहीं करने दिया अतः मजबूरी में तुरंत ही शव को फ़िरोज़शाह कोटला के पीछे वाले क़ब्रिस्तान ले जाया गया । वहाँ जब तक क़ब्र का इंज़माम हो रहा था तब तक कुछ परिजनों ने मृतक का आख़िरी बार चेहरा देखने की इच्छा व्यक्त कर दी । मगर अस्पताल और शव वाहन वालों ने बताया कि नियमानुसार सील बंद लाश को ही दफ़नाना होगा और सील नहीं खोली जा सकती ।

नवाब साहब चूँकि दिल्ली वाले हैं अतः उन्होंने बीस हज़ार रुपये में स्टाफ़ को मना लिया और सबने पीपीई किट पहन का सील खोली । सील के अंदर भी एक बैग था और जब वह खोला गया तो अंदर रखे शव के मुँह, नाक, आँख, कान और सिर को टेप लगा कर पूरी तरह ढका हुआ था । परिजनों को शक हुआ कि हमारे अब्बा का चेहरा तो इतना बड़ा नहीं था । इस पर स्टाफ़ ने बताया कि सैंकड़ों इंजेक्शन लगे हैं अत चेहरा सूज गया है । इस पर परिजनों ने टेप हटाने की माँग की । पाँच हज़ार रुपये अतिरिक्त लेकर स्टाफ़ ने जब सिर की टेप हटाई तो हंगामा मच गया । मृतक के सिर पर घने बाल थे जबकि अब्बा पूरी तरह गंजे थे । अगली मुसीबत यह हुई कि अस्पताल लाश वापिस लेने को तैयार नहीं हुआ और मजबूरन लावारिस मान कर क़ब्रिस्तान वालों ने शव को दफ़नाया । घटनाक्रम के पूरे तनाव में यह जाँचने का कोई मतलब नहीं रह गया था कि मरने वाला किस धर्म का था ? बहरहाल कई दिन हो गए हैं और नवाब साहब अपने गुमशुदा अब्बा को ढूँढ रहे हैं । उन्हें पूरी आशंका है कि उनके अब्बा का अंतिम संस्कार किसी और ने कर दिया और किसी और के बुज़ुर्ग का काम क़ुदरत ने उनसे करवाया । अकेले नवाब साहब के अब्बा की ही बात क्यों करें लाशें बदलने की ख़बरें रोज़ दिल्ली से आ रही हैं । इंसानी रिश्तों के तार तार होने के मामले भी बढ़ रहे हैं और परिजन अपने आदमी की लाश छोड़ कर भाग रहे हैं । कोरोना का ख़ौफ़ एसा है कि अपने मरीज़ के मरने की सूचना मिलने पर भी लोग अस्पताल नहीं जाते और मजबूरन स्वयंसेवी संस्थाओं के सहयोग से लाशों का अंतिम संस्कार कराना पड़ रहा है । चूँकि सील बंद लाश को देखने की अनुमति नहीं है अतः कितनी लाशें आपस में बदल रही होंगी , इसका भी अनुमान नहीं लगाया जा सकता । अब कितने हिंदू-सिख दफ़न हुए और कितने मुसलमान और ईसाई जलाये गये यह सवाल भी अपना अर्थ खो चुका है ।

 चलिये मूल बात पर आता हूँ जिसकी वजह से यह भयानक सच्चाई मैंने आपके समक्ष रखी । दरअसल शुक्रवार को घंटाघर स्थित बैंक ओफ इंडिया जाना हुआ । घर से बैंक तक के पाँच किलोमीटर के सफ़र को तय करने में पूरे बीस मिनट लग गये । रास्ते में चार जगह ट्रेफ़िक जाम मिला । रास्ते में एक भी पुलिस कर्मी नहीं दिखा और मिले आधे से लोगों के चेहरों पर मास्क नहीं था । सोशल डिसटेंसिंग क्या होती है यह तो नज़र आये किसी भी व्यक्ति को शायद पता ही नहीं थी । कहीं भी नहीं लगा कि यह उस मुल्क का कोई शहर है जहाँ सवा पाँच लाख लोगों को कोरोना हो चुका है और सोलह हज़ार से अधिक लोग तड़प तड़प कर दुनिया से कूच कर चुके हैं । किसी को भी जैसे मौत का कोई डर नहीं है । मैंने सोचा चलो यह बता कर ही डरा दूँ कि बात केवल मरने की ही नहीं है , लाश बदल गई तब क्या होगा ? जन्नत वाले स्वर्ग में और स्वर्ग वाले जन्नत में ?

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