पत्रकारिता की कालजयी परंपरा | ||||||||||||||||
15 अगस्त 1947 को आज़ाद होते ही पूरे भारत की सोच का पूरा परिदृश्य ही बदल गया, जो होना ही था. आज़ादी के समाप्त हुए संघर्ष ने नव-जागरण और नव-निर्माण की दिशा पकड़ी. ज़ाहिर है कि पत्रकारिता को ही यह चुनौती स्वीकार करनी थी. हिंदी पत्रकारिता ने इस दायित्व को बखूबी संभाला और स्वतंत्रता संग्राम के समय जो सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक आदि तमाम सवाल उठे थे, उन्हें अपनी सभ्यता, परंपरा और आधुनिकता के परिप्रेक्ष में चिंतन का केंद्र बनाया. दैनिक पत्रकारिता के क्षेत्र में तो क्रांति हुई. सदियों पहले मनु का वर्णवादी संविधान सामने आया था. स्वतंत्र भारत की संविधान सभा ने भारतीय सभ्यता के इतिहास में जो दूसरा संविधान बनाया और जो विधिवत रूप से सन् 1951 में पारित हुआ, वह हिंदी पत्रकारिता की आधारशिला बना. विभिन्न प्रदेशों से निकले अख़बार छोटे और व्यक्तिगत प्रयासों से लेकर बड़े संस्थागत और संस्थान केंद्रित अख़बारों ने जन्म लिया. सबके नाम गिनाने की जगह तो यहाँ नहीं है पर भारतीय भाषाओं के साथ ही हिंदी में भारत, अमृत पत्रिका, आज, अभ्युदय, चेतना, जनसत्ता, भास्कर, जागरण, हिंदुस्तान, नवजीवन, नवभारत टाइम्स, लोकसत्ता, प्रहरी, जनचेतना आदि-आदि लगभग 50 महत्वपूर्ण दैनिक पत्र हिंदी के विभिन्न प्रदेशों से निकलने लगे. इनके अलावा साप्ताहिक और पाक्षिक टेबलॉइड समाचारपत्रों ने भी अपनी महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज की. भारतीय गणतंत्र ने जो मूल्य और आदर्श अपने लिए अंगीकार किए थे, पत्रकारिता ने उन्हें ही उठाया और प्रस्थापित किया. हिंदी पत्रकारिता के एक सबसे उज्ज्वल पक्ष का आकलन अभी तक नहीं हुआ है. वह है भारत के 556 स्वतंत्र सामंती राज्यों और रियासतों के भारतीय गणतंत्र में विलीन होने का प्रकरण. इनमें से अधिकांश रियासतें उत्तर भारत में थीं. आज़ादी के तत्काल बाद उनके विलीनीकरण का जो जनसंघर्ष चला था. उस संघर्षशील हिंदी पत्रकारिता के अध्याय की अवधि चाहे कितनी ही कम क्यों न हो पर पत्रकारिता के इतिहास में जनाकांक्षी लोकतांत्रिक दायित्व को निभाने की ऐसी ज्वलंत मिसाल और किसी भाषा में कम ही मिलेगी. भारतीय लोकतंत्र के मूल्यों, पद्धति और प्रणाली को पुख्ता करने में प्रजामंडलों की प्रारंभिक दौर की पत्रकारिता ने ऐतिहासिक भूमिका निभाई है. सांस्कृतिक पत्रकारिता साहित्यिक और सांस्कृतिक पत्रकारिता का एक बिल्कुल नया युग आज़ादी के बाद ही शुरू हुआ. अब परतंत्रता के दौर की बाधाएं नहीं थीं और इस तरह की पत्रकारिता की पुष्ट परंपरा मौजूद थी ही पर वह विरलता अब समाप्त हुई थी. ‘दिनमान’ जैसी समाचार-संस्कृति की सप्ताहिकी ने तो नया इतिहास ही रच दिया. इसके यशस्वी संपादक हिंदी साहित्य के पुरोधा अज्ञेय जी थे और यह आकास्मिक नहीं था कि इसमें श्रीकांत वर्मा, रघुवीर सहाय, मनोहरश्याम जोशी, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, नंदन आदि जैसे साहित्यकार शामिल थे. उधर जोशी बंधुओं के बाद डॉ धर्मवीर भारती ने ‘धर्मयुग’, मनोहर श्याम जोशी और हिमांशु जोशी ने बाँकेबिहारी भटनागर के बाद ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ के ज़रिए पत्रकारिता के नए कीर्तिमान स्थापित कर दिए थे. प्रेमचंद्र के पुत्र श्रीपतराय ने ‘कहानी’ और छोटे पुत्र अमृतराय ने ‘हंस’ का पुनर्प्रकाशनन शुरू किया और दक्षिण भारत के हैदराबाद से बद्री विशाल पित्ती ने ‘कल्पना’ निकाली. कोलकाता से भारतीय ज्ञानपीठ के लक्ष्मीचंद्र जैन, शरद देवड़ा का ‘ज्ञानोदय’ आया. पटना के ‘पाटल’ और उदयराज सिंह-रामवृक्ष बेनीपुरी की ‘नई धारा’ निकली. मध्य प्रदेश जबलपुर से हरिशंकर परसाई ने ‘वसुधा’ का और राजस्थान अजमेर से प्रकाश जैन और मनमोहिनी ने ‘लहर’ का प्रकाशन शुरू किया. ‘नई कहानियाँ’ और ‘सारिका’, ‘सर्वोत्तम’, ‘नवयुग’, ‘हिंदी ब्लिट्ज’ और डॉ महावीर अधिकारी के ‘करंट साप्ताहिक’ जैसे पत्रकारिता के नए प्रतिमान स्थापित हुए. पूरा हिंदी प्रदेश पत्रकारिता की प्रयोगशीलता का पर्याय बन गया. पत्रकारिता की नई पीढ़ी इसी का नतीजा था कि हिंदी पत्रकारिता की एकदम नई पीढ़ी के सुरेंद्र प्रताप सिंह, सुदीप, उदयन शर्मा जैसे युवा पत्रकारों ने कोलकाता से ‘रविवार’जैसे प्रखर समाचार साप्ताहिक की शुरुआत की थी. और आगे चलकर इन्हीं युवाओं में से सुरेंद्र प्रताप सिंह ने चैनल पत्रकारिता ‘आज तक’ की कंप्यूटरीकृत नींव रखी थी. सरकारी संस्थानों की पत्रिकाओं ने विशेषतः अपने-अपने वैज्ञानिक विषयों को अपना लक्ष्य बनाया. चंदामामा जैसी प्रख्यात बाल पत्रिका का संपादन बालशौरि रेड्डी ने चेन्नई से शुरू किया और सिनेमा पर केंद्रित हिंदी पत्र-पत्रिकाओं की बाढ़ आ गई. लघु पत्रिकाओं का तो आंदोलन ही चल पडा. इनके बिना वैचारिक और परिवर्तनकामी पत्रकारिता की कल्पना ही नहीं की जा सकती. ज्ञान रंजन की ‘पहल’ पत्रिका इसमें अग्रणी है और सार्थक वैचारिक जनवादी पत्रकारिता के क्षेत्र में ‘तदभव’, ‘उदभावना’, ‘अभिनव कदम’, ‘वर्तमान साहित्य’, ‘शेष’ जैसी 300 पत्रिकाएं मौजूद हैं और फिर कंप्यूटरीकृत तकनीकों से लैस ‘इंडिया टुडे’ और ‘आउटलुक’ जैसे समाचार साप्ताहिक तो हैं ही. और फिर राजेंद्र यादव के ‘हंस’ के अलावा ‘कथादेश’, वागार्थ’, ‘नया ज्ञानोदय’ आदि ने वैचारिक लोकतंत्र के उन्नायक और संरक्षण की शर्ते पूरी की हैं. | इससे जुड़ी ख़बरें |
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हिंदी पत्रकारिता की परंपरा / कमलेश्वर
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