देशबंधु: चौथा खंभा बनने से इंकार-1
आज हम वह दिन देख रहे हैं जब अखबार विराट मीडिया साम्राज्य का एक छोटा और कम महत्वपूर्ण अंग बन कर रह गए हैं। भारत में दर्शाने को भले ही अखबारों की प्रसार संख्या या पाठक संख्या बढ़ रही हो, लेकिन हकीकत यह है कि टीवी के इंद्रजाल के सामने प्रेस की महत्ता घटती जा रही है। विदेशों में तो कितने ही नामी गिरामी अखबार प्रिंट एडिशन छोड़कर डिजिटल प्लेटफॉर्म पर चले गए हैं। अपने यहां भी प्रिंट और डिजिटल दोनों को समानांतर साधने का क्रम जारी है। लेकिन एक समय था जब यहां से वहां तक अखबारों का ही दबदबा था। आज मीडिया मुगल विशेषण का प्रयोग होता है, तो पहले के प्रेस बैरन कहलाते थे। देशबन्धु ने अपने विगत 61 वर्षों की यात्रा में इन परिवर्तनों और उनके परिणामों को भी देखा है, समय के साथ स्थितियां बदलती हैं और यह स्वाभाविक है।
इस पृष्ठभूमि में मन करता है कि राजनेता और राजनीतिक दलों, सरकारों और एक सीमा तक अफसरों यानी कुल मिलाकर सत्ता तंत्र के साथ हमारे जैसे संबंध रहे, उनके बारे में बात की जाए। देशबन्धु के इतिहास का यह अहम हिस्सा है। वह इसलिए भी कि हम प्रचलित परंपराओं से हटकर ही इन संबंधों को निभाने के प्रयत्न करते आए हैं। वैसे तो कोई भी शासन प्रणाली हो, प्रेस और सत्ता के बीच किसी न किसी रूप में संबंध बनना लाजमी है, लेकिन जनतंत्र में प्रेस को अपने बुनियादी उसूलों के मुताबिक विकसित होने के बेहतर अवसर मिलते हैं, यह एक सामान्य धारणा है। मेरा यहां तक कहना है कि स्वस्थ जनतंत्र और स्वस्थ प्रेस एक दूसरे के पूरक हैं। यदि जनतांत्रिक संस्थाओं में घुन लगी हो तो वह प्रेस की बुनियाद को भी कमजोर कर देती है, खासकर तब जब अखबार वाले अपने आप को सत्ता का चौथा खंभा मानने लगें। दरअसल हमारी भूमिका तो जनता और सत्ता के बीच एक संवाद सेतु बनने की है और इसमें अगर पक्षधरता है तो वह सत्ता की शक्ति के बजाय जनता की आवाज बनने के लिए है। लैटिन भाषा का पद 'वॉक्स पॉपुली'इस भूमिका को बखूबी व्यक्त करता है।
देशबन्धु के 60 साल लेखमाला की समापन किश्त में मैंने वादा किया था कि इसके दूसरे खंड में मैं इस बारे में चर्चा करूंगा। मैं उम्मीद करता हूं कि लगभग 3 माह के अंतराल के बाद अब आगे के लेख पढ़ने में आपकी रुचि होगी। वैसे तो पत्र की स्थापना 1959 में हुई थी लेकिन अगर आप अनुमति दें तो मैं अपने बचपन की कुछ यादों को आपके साथ साझा कर लूं!
प्रसिद्ध हिल स्टेशन पचमढ़ी के रेलवे स्टेशन वाले कस्बे पिपरिया में मेरा बचपन बीता है। यहां मेरे दादाजी के पास अक्सर हमारे गांव खापरखेड़ा से आते जाते रिश्ते के दादाजी नरसिंहदास घुरका रुका करते थे। वे कांग्रेस के स्थानीय स्तर के नेता थे। वह शायद 1952 के आम चुनावों का समय था। उनकी चर्चाओं में गांधी, नेहरू आदि नाम आया करते थे और हम बच्चों को बैलजोड़ी वाले बिल्ले, झंडियों से खेलने का मज़ेदार मौका मिलता था। गो कि मध्यप्रदेश का महाकौशल अंचल, जिसमें हमारा होशंगाबाद जिला भी शामिल था, कांग्रेस-समाजवादियों का गढ़ था। जगन्नाथ प्रसाद मौर्य नगरपालिका अध्यक्ष थे और मैं जिस शाला का विद्यार्थी था उसका नाम जयप्रकाश नारायण प्राथमिक शाला था। नेताजी सुभाष चंद्र बोस के निकट सहयोगी हरि विष्णु कामथ होशंगाबाद से लोकसभा सदस्य थे। बचपन की ये बातें मैंने यहां सिर्फ अपने स्मृति कोष को खंगालने के नाते की हैं।
चौथी की बोर्ड परीक्षा देकर 1954 में मैं जब जबलपुर पहुंचा तो वहां बाबूजी के विस्तृत सामाजिक दायरे के कारण एक के बाद एक कई राजनेताओं को जानने और उनका स्नेहभाजन बनने का अवसर मुझे मिला। हमारे मकान मालिक नर्मदा प्रसाद श्रीवास्तव उर्फ एन पी कक्का, प्रसिद्ध वकील और समाजवादी नेता थे। वे आगे चलकर मध्यप्रदेश विधानसभा के उपाध्यक्ष बने। तत्कालीन विंध्यप्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष शिवानंद जी से बाबूजी का आत्मीय संबंध था। वह जबलपुर आते तो हमारे घर पर ही ठहरते थे। नरसिंहपुर के गांधीवादी, वैभवत्यागी समाजवादी नेता ठाकुर निरंजन सिंह का भी हमारे घर पर ही ठिकाना होता था। मुझे याद आता है कि सन् 54 में जबलपुर में स्वतंत्र भारत के नए-नए बन रहे इतिहास में पहली बार (और शायद आखिरी बार) हिंदू-जैन दंगे हुए थे।
बाबूजी कर्फ्यू के साये में रात को शहर का जायजा लेने निकले तो मुझे भी अपने साथ गाड़ी में बैठा लिया था। वे अक्सर मुझे इस तरह जहां-तहां ले जाते थे। यह मेरी शिक्षा का हिस्सा था। 1955 में गोवा मुक्ति आंदोलन में मंजनलाल चनसौरिया और एन पी कक्का भाग लेने गए थे। लौट कर आने के बाद उनके बंगले पर ही इन सेनानियों का भव्य सम्मान कार्यक्रम रखा गया था, जिसकी तस्वीरें हमारे एल्बम में सुरक्षित हैं। यहां उल्लेख करना उचित होगा कि शिवानंद जी के सुपुत्र पीएन श्रीवास्तव से कुछ समय पूर्व फेसबुक पर मेरे संबंध बन गए हैं।
1955 में ही पंडित नेहरू जबलपुर आए। बाबूजी ने किसी गाड़ी का इंतजाम किया, जिसमें बैठकर मैं, बाई (मां के लिए संबोधन) के साथ डुमना विमानतल गया था और पहली बार नेहरू जी के दर्शन किए थे। बस इतनी धुंधली सी याद है। लेकिन हां, उसी समय आई एक फिल्म 'एक ही रास्ता'में जब गाना बजा- एटम बम से जा टकराया वीर जवाहरलाल- तो सारा हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा। लगभग उसी समय की फिल्म जागृति में गाना- दे दी हमें आजादी बिना खड्ग, बिना ढाल/ साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल- के बोल आज भी जुबान पर आ जाते हैं। मैं जबलपुर में 1954 से 1956 तक रहा। इस बीच सेठ गोविंददास, गीतांजलि के अनुगायक भवानी प्रसाद तिवारी, कवि- शिक्षक-नाटककार रामेश्वर गुरु, विधानसभा अध्यक्ष पंडित कुंजीलाल दुबे सहित बाबूजी के अन्यान्य राजनैतिक मित्रों के बारे में कुछ-कुछ जानने का अवसर मिला।
अक्टूबर 56 में मैं नागपुर पहुंच गया। जिस दिन बाबा साहब अंबेडकर का देहावसान हुआ यानी 6 दिसंबर को, पूरे शहर का माहौल गमगीन हो उठा था। मैं सातवीं कक्षा का विद्यार्थी, उस दर्द के मंजर को थोड़ा तो समझ ही पा रहा था। इसके कुछ समय बाद की ही बात है, पंडित नेहरू को एक बार फिर दूर से देखने का मौका मिला। सोनेगांव विमानतल से पंडित नेहरू का काफिला शायद कस्तूरचंद पार्क की ओर जा रहा होगा, मैंने लक्ष्मी देवी धीरन कन्या विद्यालय की छत से खुली कार में जाते हुए नेहरू जी के दर्शन किए। बुआ जी उस शाला में वरिष्ठ अध्यापिका थीं। जिस कारण उनके बेटे अनुपम भैया और मुझे यह अवसर मिल सका। यह वह समय था जब नागपुर की रौनक समाप्त हो रही थी आधी राजधानी उठकर भोपाल और आधी मुंबई चली गई थी।
मुझे बस लोकसभा सदस्य अनुसूया बाई काले और विधायक मदन गोपाल अग्रवाल के नाम याद आते हैं। सर्वोदय नेता निर्मला ताई देशपांडे हमारे मोहल्ले की ही निवासी थीं, लेकिन हम उन्हें नहीं, उनके बड़े भाई कवि अनिल को जानते थे जो उस दौर की नामी हस्ती थे व जिन्हें सब तरफ सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। हां, धंतोली मोहल्ले से ही लगा हुआ एक और इलाका था जो कांग्रेस नगर के नाम से जाना जाता था और धीरे-धीरे विकसित हो रहा था। कांग्रेस का कोई राष्ट्रीय अधिवेशन शायद इसी स्थान पर संपन्न हुआ था! प्रसंगवश लिखना होगा कि मुक्तिबोध तब नागपुर में ही थे। उनके पड़ोसी प्रगतिशील पत्रकार, कहानीकार, बाबूजी के संपादन सहयोगी शैलेंद्र कुमार किनारीवाला भी वहीं थे। (अगले सप्ताह जारी)
#देशबंधु में 11 जून 2020 को प्रकाशित