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रवि अरोड़ा की नजर से....

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अच्छे नहीं होते युद्ध

रवि अरोड़ा

पिछले दो-तीन दिन में जिस किसी से भी मिला उसकी ही ज़ुबान पर यह सवाल था कि क्या भारत और चीन के बीच जंग होगी ? सच कहूँ तो यह सवाल ख़ुद मेरे ज़ेहन में भी है कि क्या वाक़ई युद्ध होने वाला है ? बेशक मेरे जैसे साधारण व्यक्ति के किसी आकलन का कोई मतलब नहीं मगर फिर भी हालात का जायज़ा लेने का हक़ तो सभी का है ही । अब इसी हक़ के तहत मैं आजकल यही हिसाब लगाता रहता हूँ कि युद्ध होगा अथवा नहीं और यदि हुआ तो उसका परिणाम क्या होगा ? युद्ध का परिणाम तो यक़ीनन अच्छा ही होगा मगर उसकी क्या क़ीमत हमें चुकानी पड़ेगी ? बोर्डर पर दोनो देशों की फ़ौज जिस तरह से पूरे ज़ोर शोर से तैनात की जा रही हैं , क्या युद्ध के अतिरिक्त भी इसके कोई मायने हैं ? युद्ध की स्थिति में कौन कौन से देश हमारे साथ होंगे और चीन के पाले में कौन से देश होंगे ? वग़ैरह वग़ैरह ।

भारत द्वारा चीनी एप्स पर प्रतिबंध और अब चीनी कम्पनियों के धड़ाधड़ ठेके रद्द करने और उधर चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग द्वारा सेना को युद्ध की तैयारी के लिये कहने के सरासर यही अर्थ हैं कि मामला ख़तरनाक मोड़ की ओर बढ़ रहा है । दोनो देश कीसेना के स्तर पर बैठकों का सकारात्मक परिणाम न निकलने और दोनो देश के सर्वोच्च नेताओं द्वारा किसी राजनीतिक पहल के लिये उत्साह न दिखाना भी साबित कर रहा है कि कुछ बड़ा होने के आसार बन गये हैं ।

लद्दाख में सीमा पर पिछले एक महीने से जो गतिरोध बना हुआ है वह सिमटता नहीं दिख रहा । प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बेशक चीन की चर्चा नहीं कर रहे मगर सरकार के इस मामले में तेवर ढीले नहीं कहे जा सकते । बीस सैनिकों को गँवाने के बाद सरकार ने सेना को जो खुली छूट दी है उसके अर्थ गहरे हैं । यूँ भी इस मामले में मोदी सरकार के समक्ष विकल्प कम ही हैं । बासठ की लड़ाई में मिली हार के लिये साठ साल से पंडित नेहरू को लगातार कोस रही सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा के सर्वोच्च नेता मोदी जी यह क़तई नहीं चाहेंगे कि चीन मामले में इतिहास उनको और पंडित नेहरू को एक ही खाने में रखे । यही वजह है कि सख़्ती दिखाना देश ही नहीं उनके लिये भी आवश्यक हो गया है । यूँ भी भारत अब 1962 वाला मुल्क नहीं है । साथ ही सेना के आत्मविश्वास , फ़ौजी साजो सामान और अंतराष्ट्रीय स्तर पर भारत की ज़बरदस्त लोबिंग भी उसे कमज़ोरी न दिखाने को कहती है । उधर आज के हालात भी चीन के लिये उतने अच्छे नहीं हैं , जितने वही दर्शा रहा है । कोरोना संकट के चलते पूरी दुनिया में उसके ख़िलाफ़ जो माहौल बना है वह मनोवैज्ञानिक स्तर पर उसे कमज़ोर करता है । हालाँकि फ़ौजी ताक़त उसकी भारत से अधिक है मगर युद्ध केवल ताक़त से ही नहीं लड़े और जीते जाते । युद्ध में अन्य पहलुओं का भी बहुत महत्व होता है ।

हाल ही के दिनो में अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प ने कोररोना को लेकर चीन पर जो हमला बोला है वह चीन को किसी युद्ध से बचने की ही सलाह देगा । यूँ भी होंगकोंग का मामला सुलझ नहीं रहा । ताइवान में भी राजनीतिक संकट के आसार हैं और सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी की मुस्लिम नीति ने भी उसे मुस्लिम देशों की नज़र में गिरा रखा है । बेशक पाकिस्तान और नोर्थ कोरिया जैसे देश उसके साथ हैं मगर भारत के साथ भी तो जापान , फ़्रान्स, आस्ट्रेलिया और अमेरिका हैं । रशिया भी किसी सूरत भारत के ख़िलाफ़ नहीं जाएगा । नेपाल में ओली सरकार के ख़िलाफ़ प्रचंड और उनमें साथियों ने जो हमला बोला है वह उन्हें अपनी ज़मीन चीन के इस्तेमाल के लिए खोलने नहीं देगा । ले देकर एक ही मामला है कि चहुँओर से घिर रही जिनपिंग सरकार अपनी जनता में साख बचाने को राष्ट्रवाद का कार्ड चलें और युद्ध से पीछे न हटें मगर भारत में भी कौन से राष्ट्रवादियों की कमी है । देश ने अब तक चार युद्ध लड़े हैं और सभी में भारतीय जनता सेना और देश के नेतृत्व के साथ ही खड़ी नज़र आई है । युद्ध हुआ तो इस बार भी सभी नागरिक देश की सेना और सरकार का उत्साहवर्धक करेंगे मगर फिर भी दिल कहता है कि युद्ध न ही हो तो अच्छा है । बातचीत से मामला सुलझ जाये । सीमा विवाद तो बैठ कर निपटते हैं । आप ही बताइये युद्ध अच्छे होते हैं क्या ?


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