समीक्षा :
#दोआबा
संपादक : #जाबिर_हुसेन
संपादकीय संपर्क : दोआबा प्रकाशन
247 एमआईजी, लोहिया नगर, पटना – 800 020
ईमेल : doabapatna@gmail.com
मूल्य : 75 ₹
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#कठिन_समय_से_लड़ने_और_जीतने_की_पत्रिका_है ‘दोआबा’
■ शहंशाह आलम
हिंदी की पत्रिकाओं का इतिहास जब भी लिखा जाएगा, ‘दोआबा’ का स्थान निश्चित रूप से उन पत्रिकाओं के साथ जोड़कर देखा जाएगा, जिन पत्रिकाओं ने कठिन समय से रचनात्मक लड़ाइयाँ लड़ीं और रचनात्मक तरीक़े से अपनी लड़ाइयों को जीता। जाबिर हुसेन के संपादन में निकलने वाली इस ‘दोआबा’ को हम ‘पहल’, ‘सदानीरा’, ‘तद्भव’, ‘बहुवचन’, ‘पक्षधर’, ‘बनासजन’, ‘साखी’ आदि गंभीर साहित्यिक पत्रिकाओं के साथ रख सकते हैं। हिंदी भाषी लेखक और पाठक समाज के बीच ‘दोआबा’ के लोकप्रिय होने की ख़ास वजह यह है कि इस पत्रिका के संपादक जाबिर हुसेन ने रचना-चयन करते हुए हमेशा रचना का उत्कृष्ट होना ज़रूरी माना है। कोई रचनाकार नया है या युवा है और उसकी रचना अनुपम है, तो उसकी रचनाओं को ‘दोआबा’ में उसी सम्मान के साथ स्थान दिया जाता रहा है, जो स्थान वरिष्ठ साहित्यकारों को दिया जाता है।
‘दोआबा’ का जुलाई-सितम्बर 2020 अंक पत्रिका के चौदहवें वर्ष का चौंतीसवाँ अंक है। इस अंक में नसीरउद्दीन शाह और विभावरी ने सुपर स्टार इरफ़ान की मृत्यु के बारे में, रुचि भल्ला ने सुपर स्टार ऋषि कपूर और सुपर स्टार सुशांत सिंह राजपूत की मृत्यु के बारे में तो आशुतोष दुबे ने फ़िल्मकार बासु चटर्जी की मृत्यु के बारे में लिखते हुए इन सभी कलाकारों के जीवन-यथार्थ को उकेरकर हमें मर्माहत किया है। ‘स्मृति-स्तंभ’ में इन कलाकारों को ‘दोआबा’ की ओर से दी गई बतौर श्रद्धांजलि ये टिप्पणियाँ हमेशा याद की जाएँगीं।
‘कथा समय’ में सूर्यबाला की कहानी ‘योगी बॉस’, निधि अग्रवाल की कहानी ‘और कितने अभिमन्यु’, राजेन्द्र राजन की कहानी ‘कम्फ़र्ट ज़ोन’, लाल्टू की कहानी ‘तुम आराम से सोते रहो’, रजनी गुप्त की कहानी ‘थोड़ा और रुक जाते’, अनिता रश्मि की कहानी ‘नौनिहाल वृहस्पतिया की उड़ान’, अर्चना मिश्र की कहानी ‘पाँच महीने इक्कीस दिन’ छापी गई है। ये सारी कहानियाँ कविता के प्रवाह की तरह आगे बढ़ती हुई हमारे दिलों में उतर जाती हैं। इन कहानियों का प्लॉट हमारे बिलकुल क़रीब से उठाया गया है। तभी ये सारी कहानियाँ हमारे अपने जीवन की कहानियाँ होने का एहसास दिलाती हैं। ये कहानियाँ हमें हमारे जीवन की जिन सच्चाइयों का साक्षात्कार कराती हैं, उन सच्चाइयों का साक्षात्कार करके हम भौंचक हुए बिना नहीं रह पाते।
‘दोआबा’ ने कविता प्रेमियों का ख़्याल हमेशा रखा है। आज जब सत्ता का जनविरोधी अभियान चरम पर है, ‘दोआबा’ जानती है कि कविता अकेली ऐसी विधा है, जो सत्ता की चालाकियों को ग़ैरक़ानूनी घोषित करती है। तभी ‘दोआबा’ ने इस अंक में अनन्या मोहन की और एमिली डिकिंसन की कविताओं के अनुवाद छापे हैं और साथ-साथ लीलाधर मंडलोई, कुमार अरुण, स्वप्निल श्रीवास्तव, अनादि सूफ़ी, शिव कुशवाहा, निशांत, राहुल बोयल, कुलदीप शर्मा, कैलाश मनहर, अनु चक्रवर्ती, मालिनी गौतम, दीप्ति कुशवाह, वन्दना गुप्ता, अनुप्रिया, लता प्रासर, मनोज मोहन, अनिल अनलहातु की कविताएँ भी छापी गई हैं। अनन्या मोहन की कविता का अनुवाद नरेश गोस्वामी ने और एमिली डिकिंसन की कविता का अनुवाद गोपाल माथुर ने किया है। ‘कविता समय’ खंड में छापी गई कविताओं के माध्यम से हम विश्व कविता और भारतीय कविता, दोनों का आस्वादन कर सकते हैं।
अंत में क़मर मेवाड़ी से अवध बिहारी पाठक से ली गई बातचीत है। बातचीत सार्थक है और साहित्य के स्याह और सफ़ेद समय को परत-दर-परत खोलती है।
कुल मिलाकर ‘दोआबा’ का यह अंक अपनी साहित्यिक परंपरा को और आगे की तरफ़ बढ़ाता है। अंक संतुलित है। जिन रचनाकारों को इस अंक में स्थान मिला है, वे इस बात के लिए गर्व कर सकते हैं कि उन्होंने पत्रिका को बेहतर बनाने में अपना रचनात्मक योगदान किया है। साथ में, जाबिर हुसेन की डायरी ‘सब गुफाएँ एक समान होती हैं’ भी छापी गई है। जाबिर हुसेन की डायरी के पन्ने हमारी ज़िंदगी के उन ज़ख़्मों को सहेजकर रखते हैं, जो ज़ख़्म हमारी ज़िंदगी का अनमोल हिस्सा हैं।
अनुप्रिया का आवरण कमाल का है और उतने ही कमाल के हैं उनके बनाए हुए भीतरी रेखांकन। अनुप्रिया जी को साधुवाद।
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