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रवि अरोड़ा की नजर से...

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बुलबुल

रवि अरोड़ा

बीती रात नेटफ़्लिक्स पर एक फ़िल्म देखी- बुलबुल । निर्माता अनुष्का शर्मा की इस फ़िल्म को लिखा और निर्देशित किया अनविता दत्त ने और फ़िल्म के मुख्य कलाकर थे- तृप्ति डिमरी, राहुल बोस और अविनाश तिवारी । यह फ़िल्म हाल ही में 24 जून को नेटफ़्लिक्स पर ही रिलीज़ हुई है और बेहद पसंद की जा रही है । यह फ़िल्म एक एसी लड़की की कहानी है जिसकी पाँच साल की उम्र में एक अधेड़ ज़मींदार से शादी हो जाती है और अनवरत उत्पीड़न के बाद मर कर वह चुड़ैल बन जाती है तथा बदला लेने के लिए एक के बाद एक कई क़त्ल करती है । सन 1880 के बंगाल प्रेसीडेंसी के परिवेश पर बनी यह फ़िल्म रंगों के अपने संयोजन के लिये भी अनूठी बन पड़ी है । ख़ास बात यह है कि भूतिया माहौल और मर्डर मिस्ट्री होने के बावजूद यह फ़िल्म डराती नहीं और एक लव स्टोरी सी ही सुनाती हुई चलती है ।

अब आप पूछ सकते है कि भूत-प्रेत और हत्याओं से भरी किसी बे-सिर पैर वाली फ़िल्म की तारीफ़ का आख़िर क्या कारण है ? तो चलिये  आज इसी पर बात करते हैं । इस फ़िल्म के बाबत मेरी कई लोगों से बात हुई । कुछ लोगों ने इसे अंधविश्वास को बढ़ावा देने वाली साधारण सी मर्डर मिस्ट्री और सस्पेंस थ्रिलर फ़िल्म बताया तो कई ने इसे नारी अस्मिता से जुड़ी बेहद कलात्मक फ़िल्म क़रार दिया । फ़िल्म के कलात्मक पक्ष पर मुग्ध लोगों ने रहस्य को रेखांकित करने के लिये लाल रंग के संयोजन की जम कर तारीफ़ की तो इसे मर्डर मिस्ट्री मानने वालों ने लाल रंग को ख़ून का द्योतक माना । जहाँ तक मेरी बात है , मुझे तो बस इतना पता है कि डेड घंटे की इस फ़िल्म ने मुझे बांधे रखा और मनोरंजन की जिस गर्ज़ से मैंने यह फ़िल्म देखी , उसकी तमाम शर्तें यह फ़िल्म पूरा करती है । फ़िल्म को घोर कलात्मक मानने वालों से भी मैं सहमत नहीं और इसे सिर्फ़ चुड़ैल की कहानी मानने वालों पर भी मुझे एतराज़ है । फ़िल्म तो फ़िल्म है , उसमें इतनी गहराई से उतरने का क्या लाभ ?

चलिये मेरे कहने से थोड़ी देर के लिए कल्पना कीजिये कि यदि इस फ़िल्म को लेकर अलग अलग राय रखने वाले लोग आपस में लड़ पड़े तो ? अपने पक्ष पर मज़बूती से टिके लोग दूसरे पक्ष से गाली गलौज करने लगें तो ? निजी सम्बंध ताक पर रख कर एक दूसरे का सामाजिक बहिष्कार और सोशल मीडिया पर एक दूसरे के ख़िलाफ़ निजी और ओछे आरोप लगाने लगें तो ? अब आप पूछ सकते हैं कि भला एक फ़िल्म के लिए कोई एसा क्यों करेगा और यदि करता है तो उससे बड़ा मूर्ख कोई नहीं होगा । बिलकुल ठीक कहा आपने । भला एक फ़िल्म के लिए कोई एसा क्यों करे और यदि करता है तो उसकी बुद्धिमता पर संदेह किया ही जाना चाहिये । चलिये अब यह बताइये कि राजनीतिक दल भी क्या किसी फ़िल्म से अधिक महत्व रखते हैं हमारे जीवन में , फिर इनके लिये हम एसा क्यों कर रहे हैं ? किसी राजनीतिक दल के सक्रिय कार्यकर्ता की बात तो चलो समझ में भी आती है मगर हम साधारण लोग जो अलग अलग पेशे अथवा कार्यक्षेत्र से आते हैं हम क्यों एक दूसरे के कपड़े फाड़ रहे हैं ? सोशल मीडिया पर राजनीतिक दलों के आईटी सेल सैंकड़ों मैसेज हमें प्रतिदिन परोसते हैं और उनके साथ फ़ार्वड फ़ार्वड खेलते हुए हम सुबह से लेकर रात तक अपनो से ही पंजा लड़ाते रहते हैं । हमें अच्छी तरह पता है कि कोई मुसीबत आई तो कोई नरेंद्र मोदी अथवा राहुल गांधी हमारे काम नहीं आएगा । हमारी मुसीबत की तो इन्हें ख़बर भी न होगी और यही हमारे लोग जिनसे हम दिन भर उलझते हैं , हमारे साथ खड़े होंगे । क्षमा करें राजनीतिक दलों की भूमिका को हमने अपने जीवन मे ज़रूरत से अधिक बड़ा मान लिया है जबकि इनकी भूमिका किसी फ़िल्म सरीखी ही है । अच्छी होगी तो चल जाएगी वरना पिट जाएगी । तो चलिये आप भी यह फ़िल्म देखिये और इसका आनंद लीजिये ।

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