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प्यासा, गुरु दत्त और दिल्ली
के लेखक के साथ हुई ना इन्साफी
कितने लोग जानते हैं कि निर्माता-निर्देशक और अभिनेता गुरु दत्तकी यादगार फ़िल्म ‘प्यासा’ मूल रूप से उर्दू में लिखे गए एक उपन्यास ‘चोट’ पर बनी थी, जिसके लेखक थे दिल्ली के दत्त भारती। हालाँकि इसका क्रेडिट उनको नहीं मिला। हिन्दी के वरिष्ठ लेखक डा.प्रभात रंजन बताते हैं कि 1970 में जब दिल्ली हाई कोर्ट में दो जजों की खंडपीठ ने दत्त भारती के पक्ष में यह फ़ैसला सुनाया कि फ़िल्म उनके उपन्यास पर बनी थी तो उस फ़ैसले का कोई मतलब नहीं रह गया था क्योंकि गुरु दत्त का निधन हुए कई बरस बीत चुके थे। दत्त भारती ने अदालत में जीत के बाद गुरू दत्त की पत्नी गीता दत्त से सादे काग़ज़ पर ऑटोग्राफ़ लेकर उनको माफ़ कर दिया था। संयोग से आज गुरूदत्त का जन्म दिन है। उनका जन्म 1925 में हुआ था। दरअसल 1957 में रीलिज हुई प्यासा एक ऐसे शायर की कहानी है जो अपनी पहचान बनाने के लिए संघर्षरत है।
कौन थे गुरु दत्त
पर केस करने
वाले दत्त भारती
दत्त भारती ने भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लिया था। वे मूल रूप से पंजाब से थे। उनके 1948 में प्रकाशित उपन्यास ‘चोट’ के तीन साल में 2-2 हज़ार के दस संस्करण प्रकाशित हुए। भारती फिल्मी दुनिया में जगह बनाने के लिए मुंबई नहीं गए। उन्होंने दिल्ली में रहकर लेखक के रूप में पहचान बनाने का फ़ैसला किया। जाकिर हुसैन दिल्ली कॉलेज में प्रफेसर डा. प्रभात रंजन कहते हैं कि दत्त भारती उस दौर के अकेले लेखक थे जो बाक़ायदा ऑफ़िस में बैठकर लेखन करते थे और इसके लिए उन्होंने दफ्तर किराए पर ले रखा था। ख़ैर, लेखक दत्त भारती ने हिंदी में सौ से अधिक उपन्यास लिखे और उर्दू में क़रीब 60। ‘प्यासा’ के बाद भी
क्या था दत्त भारती का
गुलशन नंदा से संबंध
कहने वाले कहते हैं दत्त भारती दिल्ली के एक मशहूर प्रकाशक के चेम्बर से जब बाहर निकलते तो बाहर एक नौजवान बैठा मिलता, जब लगातार चार दिन तक यह सिलसिला चला तो दत्त भारती ने प्रकाशक से पूछा कि बाहर जो नौजवान बैठा रहता है वह कौन है और क्यों बैठा रहता है? प्रकाशक ने कहा कि नया लेखक है। इसने उपन्यास लिखा है। मैं इसको चार सौ दे रहा हूँ लेकिन यह सात सौ माँग रहा है। दत्त भारती ने कहा कि आप मेरी रॉयल्टी में से काटकर इसको पैसा दे देना। वह युवा लेखक गुलशन नंदा के नाम से मशहूर हुआ। दत्त भारती के उपन्यासों की बेवफ़ा स्त्रियों के स्थान पर गुलशन नंदा ने मजबूर स्त्रियों का फ़ोर्मूला बनाया जो, रूमानी उपन्यासों का ही नहीं बल्कि हिंदी फ़िल्मों का भी बेजोड़ फ़ोर्मूला साबित हुआ। गुलशन नंदा मुंबई में जाने से पहले लाजपत नगर में रहते थे। कहते हैं कि लाहौर में गुलशन नंदा जिस लड़की से प्यार करते थे वह अमीर परिवार की थी और गुलशन नंदा की ग़रीबी उनके प्यार को उनसे दूर ले गई। गुलशन नंदा ने इस बात को लेखक के तौर पर हमेशा याद रखा।
कहां दिल्ली ने देखी थी चौदहवीं का चाँद
दिल्ली के फिल्मी सीन पर गुजरे लंबे समय से नजर रखने वाले कहते हैं कि जिस तरह से दिलीप कुमार की फिल्में इक्सेल्सीअर में और राज कपूर की मोती में प्रदर्शित होती थीं, उसी तरह से गुरूदत्त की फिल्में गोलचा में प्राय लगती ही थीं। कागज के फूल, प्यासा, चौदहवीं का चाँद और साहिब बीवी और गुलाम जैसी फिल्में भी गोलचा में लगीं। दिल्लीः फोर शोज में जिया उस सलाम लिखते हैं कि चौदहवीं का चाँद गोलचा, मोती और इक्सेल्सीअर में लगीं और खूब देखी गई। इसकी कहानी लखनऊ शहर की है। इधर रहने वाले तीन सबसे अच्छे दोस्तों में से दो को जमीला नाम की एक ही महिला से प्यार हो जाता है। असलम (गुरुदत्त) और नवाब (रहमान) इस प्रेम त्रिकोण में जमीला (वहीदा रहमान) को चाहने वाले दो दोस्त हैं। गुरुदत्त फिल्म के अभिन्न हिस्सा हैं। कहते हैं कि तमाम दर्शक तो शकील बदायुंनी का लिखा और मोहम्मद रफी साहब की मखमली आवाज में गाया गीत चौदहवीं का चाँद हो, या आफ़ताब हो... भी देखने सुनने के लिए इस फिल्म को देखते थे।
ये लेख आज 9 जुलाई , 2020 को पब्लिश हुआ है ।