📎📎आभार/ साभार
दैनिक युग करवट एवं
भाई श्री सलामत मियां जी
भाई श्री सुब्रत भट्टाचार्य जी
(सुविधा हेतु मूल पाठ संलग्न)
पुलिस ने ही किया अपने भस्मासुर का अंत
विकास दुबे उपजाऊ सियासी भूमि की वह खरपतवार है जिसका संरक्षण किसी खास मकसद से किया जाता है और भस्मासुर बन गए ऐसे लोगों का संहार सरकार को करना पड़ता है। विकास दुबे के आतंक के अध्याय का भले ही अंत हो गया हो लेकिन समाज में उसने स्वयं को एक खुली किताब के तौर पर ही पेश किया। बीते दो दशक में विकास दुबे ने सरकार की नाक के नीचे सूबे में अपनी समानांतर सत्ता खड़ी की थी। इसमें संदेह नहीं है कि विकास दुबे जैसे अपराधी को खड़ा करने में पुलिस तंत्र और राजनीतिज्ञों की बराबर की भूमिका रहती है। दो दशक के उसके आपराधिक रिकॉर्ड पर गौर करें तो साफ हो जाता है कि विकास दुबे का साम्राज्य पुलिस और नेताओं की बैसाखी पर ही टिका था। विवादित जमीन खरीदने, लोगों की संपत्ति पर जबरन कब्जा करने, हत्या जैसे 70 से अधिक मामले दर्ज होने के बावजूद विकास दुबे का भस्मासुर बनने तक बाल भी बांका नहीं हुआ था।
जिस अपराधी विकास दुबे ने भरे थाने में 30 पुलिसकर्मियों की मौजूदगी में राज्यमंत्री स्तर के नेता संतोष शुक्ला को मौत के घाट उतार दिया हो और मौके पर मौजूद एक भी पुलिसकर्मी ने उसके खिलाफ मुंह ना खोला हो, इसके पीछे कारण क्या होगा? इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। कानून के राज में पूरे सिस्टम पर इससे बड़ा तमाचा और क्या हो सकता है? जाहिर है पुलिस के आला अफसरों से लेकर सिपाही तक से उसकी सांठगांठ ही नहीं "भाई चारा"भी था। मीडिया में आई तमाम तस्वीरें और विवरण इस बात का प्रमाण हैं कि विकास दुबे की पहुंच तमाम राजनीतिक दलों तक थी। सूबे में सरकार किसी दल की भी रही हो, किसी ने उस पर कभी हाथ डालने का साहस नहीं किया। कानून व्यवस्था को दुरुस्त करने की कवायद में जब-जब दुर्दांत अपराधियों व टॉप क्रिमिनल्स की सूची बनी, उसका नाम किसी फेहरिस्त में सामने नहीं आया। क्या यह एक सामान्य चूक है?
विकास दुबे द्वारा मुठभेड़ में 8 पुलिस वालों की जिस तरह हत्या की गई वह हमें चंबल की याद दिलाता है। विकास दुबे के साम्राज्य को "मिनी चंबल"कहा जा सकता है। जहां उसका ऐसा अभेद दुर्ग था जिसे पुलिस वाले जान गंवाने के बावजूद भेद नहीं पाए। उसे गिरफ्तार करने की पुलिस की पहली ही कोशिश में सेंध लग गई। 8 पुलिसकर्मियों के शहीद होने के बाद चौकी इंचार्ज से लेकर थाना प्रभारी और पुलिस कप्तान तक की संदिग्ध भूमिका पर जिस तरह से सवाल उठ रहे हैं उनके जवाब तलाशने की जरूरत ही अब शायद नहीं रह गई है। क्योंकि सच्चाई से मुंह अब नहीं मोड़ा जा सकता। अलबत्ता सवाल यह भी है कि जिस विकास दुबे को पकड़ने के लिए सूबे की पुलिस के साथ पड़ोसी राज्यों की पुलिस मुस्तैद थी तो क्या ऐसा व्यक्ति पुलिस या राजनैतिक संरक्षण के बिना उज्जैन पहुंच सकता था? यहां एक चौंकाने वाला तथ्य उजागर करना और जरूरी है। वह यह कि उज्जैन के एक खास इलाके के थाना प्रभारी और क्षेत्राधिकारी का पहली रात नाटकीय तरीके से स्थानांतरण होता है। उनकी जगह आधी रात को नए थानेदार और सर्किल ऑफिसर की तैनाती होती है। और अगले दिन इंडिया का मोस्ट वांटेड क्रिमिनल नाटकीय तरह से मंदिर में गिरफ्तारी देता है।
विकास की मौत के साथ कई सवाल दफन हो गए हैं तो कुछ नए सवाल भी उठ खड़े हुए हैं। सूबे के तमाम राजनैतिक दल आज भले ही एक दूसरे पर दोषारोपण करें लेकिन विभिन्न राजनैतिक दलों में उसकी आवाजाही किसी से छिपी नहीं है। विकास दुबे का पुलिस के हाथों मुठभेड़ में मारा जाना, कथित रूप से इस बात का संकेत भी है कि न्याय प्रणाली पर सिस्टम का यकीन भी घटता जा रहा है। ऐसा न होता तो शायद विकास दुबे को अदालत से ही सजा दिलाने की प्रक्रिया में यकीन किया जाता। जैसी प्रक्रिया 26/ 11 के दोषी अजमल कसाब, तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के हत्यारे सतवंत सिंह और पंजाब के मुख्यमंत्री बेअंत सिंह के हत्यारे को फांसी तक पहुंचाने में अपनाई गई थी।
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