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कश्मीरी गेट के शिया मुस्लमान / विवेक शुक्ला

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कश्मीरी गेट के शिया मुसलमान

 कश्मीरी गेट की स्थायी चहल-पहल और कोलाहल पर कोराना की नजर लग गई है। रमजान के महीने के उल्लास का कहीं पता नहीं चल रहा है। कश्मीरी  गेट थाने से सटी शिया जामा मस्जिद के बाहर ताला लगा हुआ है। हां,मस्जिद के अंदर पांचों वक्त की नमाज इमाम साहब और मुइज्जिन पढ़ रहे हैं। यही स्थिति कश्मीरी गेट और इसके आसपास  हेमिल्टन रोड, चाबी गंज, पंजा शरीफ,खजूर वाली शिया मस्जिदों की भी है।

 इधर बमुश्किल से सात-आठ खाटी दिल्ली वाले शिया परिवार अब बचे हैं। बड़ी संख्या में कश्मीरी गेट के शिया मुसलमान 1947 में पाकिस्तान चले गए थे। वे सब वकील,डाक्टर, कारोबारी थे। जो बचे थे, वे भी दिल्ली के दूसरे भागों में जाते रहे। पर वे रमजान, मोहर्रम और हजरत अली की शहादत वाले दिन कश्मीरी गेट की मस्जिदों में आकर ही इबाबत करना पसंद करते रहे हैं। इस बहाने अपने पुराने घरों-गलियों में दोस्तों-रिश्तेदारों से मिलना जुलना भी हो जाता था। लेकिन इस बार सत्यानाशी कोरोना ने सब कुछ तो गड़बड़ कर दिया है। सन 1841 में बनी शिया जामा मस्जिद के इमाम मौलाना मोहम्मद मोहसिन तकी ने पिछली 17 मार्च को ही लॉकडाउन के कारण मस्जिद में नमाजियों के आने पर रोक लगा दी थी। कहते हैं- “ इधर लाउड स्पीकर से अजान की रिवायत नहीं है। इसका एक नाम हामिद अली मस्जिद भी है।”
 शिया जामा मस्जिद में जुमें के रोज 600-700 नमाजी बाड़ा हिन्दू राव, शास्त्री पार्क, नोएडा वगैरह से आते ही थे। खजूर वाली मस्जिद कश्मीरी गेट कृष्णा गली में है।

इधर घूमते हुए आपको एक इमारत के बाहर एक पत्थर पर लिखा हुआ मिलेगा ‘आजाद मंजिल’। ये आजाद मंजिल आशियाना था निर्भीक पत्रकार मौलवी मोहम्मद बाकर का। उन पर कश्मीरी गेट के शिया फख्र करते हैं। उन्हें शिया बिरादरी का नायक माना जाता है। वे ‘देहली उर्दू अखबार’के संपादक थे। बाकर पहली जंगे आजादी की खबरें  तटस्थ भाव से छापते थे। जहां पर गोरों को शिकस्त मिलती थी, उसे  प्रमुखता से छापा जाता। बाकर साहब की कलम  हिन्दू-मुस्लिम एकता पर लगातार चला करती थी।  देहली उर्दू अखबार सारे उत्तर भारत से छपने वाला पहला उर्दू का अखबार माना जाता है। उस जंगे ए आजादी में आखिर गोरे जीते तो उम्मीद के मुताबिक बाकर साहब को14 दिसंबर, 1857 को तोप से उड़ा दिया गया था।

अब मूल आजाद मंजिल का नामोनिशान भी नहीं बचा है। वहां पर एक कमर्शियल बिल्डिंग खड़ी हो गई है। पर उस जगह की पहचान बाकर साहब से ही होती है। बाक़र साहब के घर का नाम आज़ाद मंज़िल संभवत: उनके बेटे मोहम्मद हुसैन आज़ाद के नाम पर होगा। वे प्रख्यात उर्दू लेखक थे। कभी-कभी कोई इतिहास का शोधार्थी भी आजाद मंजिल की तलाश में पहुंच जाता है। एक बार दुनिया पहले की तरह चलने लगेगी, तो यहां के शिया बिरादरी का मन है कि थाने के पास पड़ी उनकी एक जमीन पर लड़कियों का स्कूल खोला जाएगा।

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