Quantcast
Viewing all articles
Browse latest Browse all 3437

राजा जनक का आत्मज्ञान


राजा जनक को आत्म ज्ञान की प्राप्ति?प्रस्तुति अति विस्तृत है। इसलिए शांति के साथ पढें।

      मिथिला नामक देश में एक महाप्रतापी राजा हुए । उनका नाम महाराज जनक था। महाराज जनक को आत्मज्ञान के बारे में बहुत जिज्ञासा थी।और इस पर चर्चा के लिए उनके दरबार में हमेशा विद्वानों की महफ़िल बनी रहती थी। पर राजा जनक को जिस आत्मज्ञान की तलाश थी । उसके बारे में कोई विद्वान उन्हें संतुष्ट नहीं कर पाता था ।

उन्हीं दिनों की बात है राजा जनक ने एक रात में सोते हुए एक सपना देखा कि वो अपने बहुत सारी सेना के साथ जंगल में शिकार खेलने के लिए गए हुए हैं । एक जंगली सूअर का पीछा करते करते राजा जनक बहुत दूर तक निकल गए । उनकी सारी सेना पीछे छूट गयी ।

और वह सूअर घने जंगल में बहुत दूर जाकर अदृश्य हो गया । राजा जनक  थककर चूर हो चूका थे । उनकी पूरी सेना का कोई पता नहीं था । अब राजा को बहुत तेज भूख प्यास लगने लगी थी । बेचैन होकर राजा ने इधर उधर नजर दौड़ाई ।

तो कुछ ही दूर पर उन्हें एक झोपड़ी नजर आई । जिसमें से धुआं उठ रहा था । राजा ने सोचा कि वहां कुछ खाने पीने के लिए मिल जायेगा । वो झोपड़ी में गये । तो  देखा कि झोपड़ी के अन्दर एक बुढ़िया औरत बैठी हुई थी । राजा ने कहा । मैं एक राजा हूँ । और मुझे खाने की लिए कुछ दो । मैं बहुत भूखा हूँ । बुढिया ने कहा कि इस समय खाने के लिए कुछ नहीं है ।

 और मुझसे काम नहीं होता । लेकिन यदि तुम चाहो तो वहां थोड़े से चावल रखे है । तुम उनको पकाकर खा सकते हो । राजा ने सोचा । इस समय इसके अतिरिक्त और कोई उपाय भी तो नहीं है । राजा ने बड़ी मुश्किल से चूल्हा जलाकर किसी तरह भात को पकाया । फिर जैसे ही राजा एक केले के पत्ते पर रखकर उस भात को खाने लगा ।

 तभी तेजी से दौड़ता हुआ एक सांड आया । और पूरे भात पर धूल गिर गई । उसी समय राजा की आँख खुल गई । और वो राजा आश्चर्यचकित होकर चारों और देखने लगा।

 उसके मन में ख्याल आया कि मैंने एक राजा होकर इस तरह का स्वप्न क्यों देखा ??

 यही सोचते हुए राजा को पूरी रात नींद नहीं आई । दूसरी सुबह राजा ने दो सिंहासन बनवाये और एक एलान अपने राज्य में कर दिया कि मेरे दो प्रश्न हैं । जो कोई मेरे पहले प्रश्न का जवाब देगा । उसे मैं अपना आधा राज्य दूंगा । और यदि नहीं दे पाया । तो बदले में आजीवन कारावास मिलेगा । तथा जो मेरे दूसरे प्रश्न का उत्तर देगा । उसे मैं पूरा राज्य दूंगा । और यदि नहीं दे पाया तो उसे फांसी की सजा होगी ।

 राजा ने ये दोनों सजाएँ इसलिए तय कर दी थी कि वही लोग उसका उत्तर देने आये जिनको वास्तविक ज्ञान हो । ऐसा न करने पर फालतू लोगों की काफी भीड़ हो सकती थी ।

..आगे की कहानी जानने से पहले हमें महान संत अष्टावक्र के बारे में जानना होगा ।

 अष्टावक्र जी उन दिनों मां के गर्भ में थे । और संत होने के कारण उन्हें गर्भ में भी ज्ञान था । एक दिन की बात है । जब अष्टावक्र के पिता शास्त्रों का अध्ययन कर रहे थे । अष्टावक्र ने कहा । पिताजी । जिस परमात्मा को तुम खोज रहे हो । वो शास्त्रों में नहीं है । अष्टावक्र के पिता शास्त्रों के ज्ञाता थे । उन्हें अपने गर्भ स्थिति पुत्र की बात सुनकर बहुत क्रोध आया।

 उन्होंने कहा । तू मुझ जैसे ज्ञानी से ऐसी बात कहता है । जा मैं तुझे शाप देता हूँ कि तू आठ जगह से टेढा पैदा होगा । इस तरह ज्ञानी अष्टावक्र विकृत शरीर के साथ पैदा हुए थे । उधर क्या हुआ कि अष्टावक्र के पिता को धन की कमी हो गई । तो वे राजा जनक के आधे राज्य के इनाम वाला उत्तर देने चले गए । और उत्तर ठीक से नहीं दे पाए ।

अतः आजीवन कारावास में डाल दिए गए । इस तरह 12 साल गुजर गए । अष्टावक्र अब 12 साल की आयु के हो गए थे । और लगभग विकलांग जैसे थे । एक दिन जब अष्टावक्र अपने साथियों के साथ खेल रहे थे । सब अपने अपने पिता के बारे में बात करने लगे । तो अष्टावक्र भी करने लगे । अब क्योंकि बच्चों ने उनके पिता को जेल मैं पड़े होने के कारण कभी देखा नहीं था ।

इसलिए सब बच्चों ने उन्हें झिड़क दिया कि झूठ बोलता है । तेरा पिता तो कोई है ही नहीं । हमने उन्हें कभी नहीं देखा अष्टावक्र जी अपनी माँ के पास आये । और बोले कि माँ आज तुम्हे बताना ही होगा कि मेरे पिता कहाँ गए हैं ?? वास्तव में जब भी बालक अष्टावक्र अपने पिता के बारे में पूछता । तो उसकी माँ जवाव देती कि वे धन कमाने बाहर गए हुए है ।

 आज अष्टावक्र जी जिद पकड़ गए कि उन्हें सच बताना ही होगा कि उनके पिता कहाँ हैं ?? तब हारकर उनकी माँ ने उन्हें बताया कि वे राजा जनक की जेल में पड़े हुए है । बालक अष्टावक्र ने कहा कि वे अपने पिता को छुडाने जायेंगे । और राजा के दोनों प्रश्नों का जवाव भी देंगे । उनकी माँ ने बहुत कहा कि यदि राजा ने तुझे भी जेल में डाल दिया ।

तो फिर मेरा कोई सहारा नहीं रहेगा । लेकिन अष्टावक्र जी ने उनकी एक न सुनी । और वे कुछ बालकों के साथ राजा जनक के महल के सामने पहुँच गए । एक बालक को महल की तरफ घुसते हुए देखकर दरबान ने उन्हें झिड़का ।  ऐ बालक कहाँ जाता है ??

 वक्र जी बोले । मैं राजा जनक के प्रश्नों का उत्तर देने आया हूँ । मुझे अन्दर जाने दो । दरबान ने बालक जानकर उन्हें रोकने की बहुत कोशिश की । तब अष्टावक्र ने कहा कि वो राजा से उसकी शिकायत करेंगे । क्योंकि राजा ने ये घोषणा कराइ है कि कोई भी उनके प्रश्नों का उत्तर दे सकता है । ये सुनकर दरबान डर गया ।

 वो समझ गया कि ये बालक तेज है । यदि इसने मेरी शिकायत कर दी । तो राजा मुझे दंड दे सकता है । क्योंकि ये बालक सच कह रहा है । उसने अष्टावक्र को अन्दर जाने दिया । अन्दर राजा की सभा जमी हुई थी । अष्टावक्र जी जाकर सीधे उस सिंहासन पर बैठ गए ।

जिस पर बैठने बाले को राजा के दुसरे प्रश्न का जवाव देना था । और इनाम में पूरा राज्य मिलता । तथा जवाव न दे पाने की दशा में उन्हें फांसी की सजा मिलती । एक विकलांग बालक को ऐसा करते देखकर सब आश्चर्यचकित रह गए । और फिर पूरी सभा जोर जोर से हंसी ।

 उनके चुप हो जाने के बाद अष्टावक्र जोर से हँसे । राजा जनक ने कहा कि सभा के विद्वान क्यों हँसे ? ये तो मेरी समझ में आया । पर तुम क्यों हँसे ? ये मेरी समझ में नहीं आया ।
अष्टावक्र ने कहा । राजा मैं इसलिए हंसा कि मैंने सुना था कि आपके यहाँ विद्वानों की सभा होती है, पर मुझे तो इनमें एक भी विद्वान नजर नहीं आ रहा । ये सब तो चमड़े की पारख करने वाले चर्मकार मालूम होतें हैं ।

अष्टावक्र के ये कहते ही राजा जनक समझ गए कि ये बालक कोई साधारण बालक नहीं हैं । लेकिन अष्टावक्र के द्वारा विद्वानों को चर्मकार कहते ही सभा में मौजूद विद्वान भड़क उठे । उन्होंने कहा । ये चपल बालक हमारा अपमान करता है । अष्टावक्र ने कहा । मैं किसी का अपमान नहीं करता ।

 पर आप लोगों को मेरा विकलांग शरीर दिखाई देता है । विकलांग शरीर होने से क्या इसमें विराजमान आत्मा भी विकलांग हो गयी । क्या किसी भी ज्ञान का शरीर से कोई सम्बन्ध है ? उनकी ये बात सुनकर पूरी सभा में सन्नाटा हो गया । राजा जनक ने उनकी बात का समर्थन किया । राजा जनक समझ गए कि बालक के रूप में ये कोई महान ज्ञानी आया है ।

 ये बोध होते ही जनक अपने सिंहासन से उठकर कायदे से अष्टावक्र के पास पहुंचे । और उन्हें दंडवत प्रणाम किया । अष्टावक्र बोले । पूछो क्या पूछना है ?? जनक ने अपना पहला प्रश्न किया । उन्होंने अपने सूअर के शिकार वाला स्वप्न सुनाया । और कहा कि स्वप्न व्यक्ति की दशा और सोच पर आधारित होते हैं ।

कहाँ मैं एक चक्रवर्ती राजा । और कहाँ वो दीनदशा दर्शाता मेरा स्वप्न ? जिसमें मैं लाचारों की तरह परेशान था । इनमें क्या सच है ? एक चक्रवर्ती राजा या वो स्वप्न ..? अष्टावक्र हंसकर बोले । न ये सच है । न वो स्वप्न सच था । वो स्वप्न 15 मिनट का था । और जो ये तू राजा है । ये स्वप्न 100 या 125 साल का है ।

इन दोनों में कोई सच्चाई नहीं है । वो भी सपना था । ये जो तू राजा है । ये भी एक सपना ही है । क्योंकि तेरे मरते ही ये सपना भी टूट जायेगा..?? इस उत्तर से पूरी सभा दंग रह गई ।

 इस उत्तर ने सीधे राजा की आत्मा को हिला दिया । और वे संतुष्ट हो गए । आधा राज्य अष्टावक्र जी को दे दिया गया । पर क्योंकि अष्टावक्र जी पूरे राज्य के इनाम वाली कुर्सी पर बैठे थे । इसलिए बोले बताओ ।

राजन तुम्हारा दूसरा प्रश्न क्या है ?? जनक ने कहा । मैंने शास्त्रों में पढा है । और बहुतों से सुना है कि यदि कोई सच्चा संत मिल जाय । तो परमात्मा का ज्ञान इतनी देर में हो जाता है । जितना घोड़े की एक रकाब से दूसरी रकाब में पैर रखने में समय लगता है । अष्टावक्र बोले ।

 बिलकुल सही सुना है । राजा बोले ठीक है । फिर मुझे इतने समय में परमात्मा का अनुभव कराओ । अष्टावक्र जी बोले । राजन तैयार हो जाओ । लेकिन इसके बदले में मुझे क्या दोगे ? जनक बोले- मेरा सारा राज्य आपका ।

 अष्टावक्र जी बोले । राज्य तो तुझे भगवान का दिया है । इसमें तेरा क्या है ? जनक बोले- मेरा ये शरीर भी आपका । अष्टावक्र जी बोले । तूने तन तो मुझे दे दिया । लेकिन तेरा मन अपनी चलाएगा । तब जनक बोले- मेरा ये मन भी आपका हुआ । अष्टावक्र जी बोले – देख राजन, तुम मुझे अपना तन मन धन सब दे चुके हो अब मैं इसका मालिक हूँ, तुम नहीं | तो मैं हुक्म करता हूँ कि तुम सबके जूतों में जाकर बैठ जाओ |

 यह बात सुनकर दरबार में सन्नाटा छा गया | मगर राजा जनक समझदार थे जरा भी नहीं झुंझलाये | और जूतियों में जाकर बैठ गये | अष्टावक्र ने ऐसा इस लिए किया कि राजा से लोक-लाज छुट जाये | लोक- लाज रूकावट है बड़े-बड़े लोग यहाँ आकर रुक जाते है |

       फिर अष्टावक्र ने कहा कि यह धन मेरे है मेरे धन में मन न लगाना | राजा का ध्यान बार-बार अपने राज,धन की और जाता और वापस आ जाता कि नहीं यह तो अब अष्टावक्र जी का हो चूका है | मन की आदत है, वह बेकार और चुप नहीं बैठता, कुछ न कुछ सोचता ही रहता है |

राजा के मन का यह खेल अष्टावक्र देख रहे थे | आखिर राजा आँखे बंद करके बैठ गया कि मैं बाहर न देखूं,न मेरा मन वैभवो में भागे | अष्टावक्र जी यही चाहते थे उन्होंने राजा जनक से कहा तुम कहाँ हो | राजा जनक बोले मैं यहाँ हूँ |

 इस पर अष्टावक्र बोले- तुम मुझे मन भी दे चुके हो, खबरदार जो उसमे कोई ख्याल भी उठाया तो | राजा जनक समझदार थे समझ गये कि अब मेरे अपने मन पर भी मेरा कोई अधिकार नहीं है | समझने की देर थी कि मन रुक गया |

 जब ख्याल बंद हुआ तो अष्टावक्र ने अपनी अनुग्रह दृष्टी दे दी | रूह अंदर की यात्रा पर चल पड़ी रूहानी मंजिल की सैर करने | राजा को अंतर का आनंद होने लगा | घंटे भर पश्चात राजा जनक को अष्टावक्र ने आवाज दी | राजा ने अपनी आंखे खोली तो अष्टावक्र ने पुछा – क्या तुम्हे ज्ञान हो गया |

राजा जनक ने जवाब दिया - हाँ हो गया | तब अष्टावक्र ने कहा मैं तुम्हे तन,मन,धन वापिस देता हूँ इसे अपना न समझना।अब तुम राज्य भी करो और आत्म ज्ञान का आनंद लो | इस तरह अष्टावक्र ने एक सेकंड में मुक्ति और जीवनमुक्ति पाने की विधि बताई और ज्ञान दिया | राजा जनक ने अष्टावक्र जी के पिता और सभी कैदियों को रिहा करवा दिया । राजा जनक ने उन्हे गुरु का स्थान दिया और आत्मज्ञान प्राप्त किया।

आध्यात्मिक भाव जीवनमुक्त स्तिथि माना जीते जी सब आकर्षण, बंधन, वैभवो के प्रभाव ससे मुक्त रहना | इसका मतलब यह नहीं कि सब कुछ छोडकर सभी से दूर रहना परन्तु सबके बीच रहते हुए, सभी जिम्मेवारियों को निभाते हुए भी किसे भी बंधन में नहीं फँसना सुख और दुख: के बंधन में भी नहीं फँसना – यही सच्ची जीवनमुक्त स्तिथि है जो शिव बाबा सिखाते है

Viewing all articles
Browse latest Browse all 3437

Trending Articles



<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>