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कोरोना बनाम युवा जनमानस / ऋषभ देव शर्मा

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वैक्सीन आने के बारे में तरह तरह के दावों और असमंजस के बीच यह खबर और भी चिंताजनक है कि कोरोना संक्रमण के ठीक होने के बाद भी एक बार संक्रमित हो चुके व्यक्ति के मस्तिष्क पर उसका असर लंबे समय तक रह सकता है। इसके अलावा आज सारी दुनिया इस महामारी से बदले हुए माहौल के युवाओं के मस्तिष्क पर पड़ रहे विपरीत असर को लेकर भी काफी चिंतित है। यानी, कोरोना विश्वमारी उन्हें तो चपेट में ले ही रही है, जो उससे संक्रमित हैं। लेकिन साथ ही उससे डरी हुई शेष आबादी के मानस को भी गिरफ्त में ले रही है। जैसा कि संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंतोनियो गुटेरेश ने कहा कि वैश्विक महामारी ने हमारे समाजों की ख़ामियों को उजागर और बेहतर पुनर्बहाली की आवश्यकता को रेखांकित किया है।

पूर्णबंदी से लेकर प्रतिबंध मोचन तक के सारे कोरोना जनित संस्कारों के बीच फँसा युवा मानस बेहद त्रस्त महसूस कर रहा है। अगर जल्दी ही दुनिया को कोरोना से निजात न मिली, तो युवा पीढी की मानसिक प्रतिक्रियाएं बड़ी सीमा तक विकार ग्रस्त हो सकती हैं। कहना न होगा कि ऐसा हुआ तो उसका सामाजिक व्यवहार भी सामान्य न रहेगा। इसीलिए कोरोना काल में युवा मानस को खास देखभाल की ज़रूरत है। यही वजह है कि आज दुनिया भर में युवाओं के लिए मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं को मज़बूत बनाने की ज़रूरत महसूस की जा रही है।

इसमें दो राय नहीं कि मानव जीवन में मानव संपर्क  की ज़रूरत होती है। उसके बिना जीवन असामान्य जो जाएगा। लेकिन कोरोना मनुष्यों को एक दूसरे से दूर रहने और नई तरह की छुआछूत बरतने के लिए मजबूर कर रहा है। वर्तमान में सरवाइव करने के लिए अनिवार्य होने के बावजूद यह प्रवृत्ति मानव स्वभाव के विपरीत है। मनुष्य को खुश रहने के समाज चाहिए। लंबा एकांत उसे थका देता है, थका रहा है! ऐसे में गौरतलब है कि स्वयं संयुक्त राष्ट्र ने स्वीकार किया है कि इस विश्वव्यापी महामारी  के कारण युवाओं के कल्याण और मानसिक स्वास्थ्य पर खराब असर हुआ है। इसीलिए उसने इस विषय पर चर्चा ज़रूरी समझी कि कोरोना वायरस संकट की नई वास्तविकताओं के मद्देनज़र युवा अपनी जि़न्दगी को किस तरह ढाल सकते हैं और मानसिक स्वास्थ्य का ख़याल रखते हुए आगे बढ़ सकते हैं। कोरोना उत्तर काल के बारे में एक बात तो पक्की कही जा सकती है कि दुनिया अब पहले जैसी नहीं रहेगी। सयाने बता रहे हैं कि आप चाहे  तालाबंदी वाले देशों में रह रहे हों या फिर ऐसे स्थानों पर जहाँ जीवन धीरे-धीरे फिर पटरी पर लौट रहा है, सभी जगह आपको एक ऐसी वास्तविकता का सामना करना पड़ेगा ही,  जो कोरोना पूर्व काल से एकदम अलग  है।

कोरोना के सामाजिक संबंधों और मानसिक दशाओं पर पड़ रहे विपरीत प्रभावों को बेअसर करने का एक तरीका यह है कि युवा लोग खुद को ऑनलाइन सामूहिक संवादों और सृजनात्मक गतिविधियों से जोड़े रखें। इधर जो  वेबिनार के नाम से ऑनलाइन संगोष्ठियों की बाढ़ आई है,  अगर आप उसके प्रमाणपत्र इकट्ठा करने के पागलपन की लहरों में बह गए तो उसे लक्ष्यहीन बना देंगे। दरअसल इन वेबिनारों का सदुपयोग वैश्विक स्तर पर वैचारिक आदान प्रदान के रचनात्मक मंचों के रूप में किया जाना चाहिए, सर्टिफिकेट बटोरने की होड़ के लिए नहीं। ये वेबिनार युवाओं को अनिश्चितता के वर्तमान माहौल में आपस में जुड़ने के लिए प्रभावी मंच बन सकते हैं। फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि आभासी जगत का यह वर्चुअल संपर्क उस जीवंत संपर्क का स्थान ले सकता है, जिसकी उपस्थिति मनुष्य को नित नई ऊर्जा से भरती है। इसलिए अचरज नहीं होना चाहिए कि कोरोना के कारण घरों में कैद किशोर और युवा मानस खुद को एक उत्साहहीन कशमकश में फँसा महसूस कर रहे हैं। कैसा भी हो, आदमी को समाज तो चाहिए ही। और कोरोना वही नहीं चाहता।

अंततः, कोरोना को समाज और सामाजिक संबंध पसंद नहीं हैं जी! और इसीलिए कोरोना जी, आप हमें पसंद नहीं हैं! 000

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