इधर नेपाल के प्रधानमंत्री के पी शर्मा ओली ने एक नया रहस्योद्घाटन किया है। चीनी राजदूती (!) की आध्यात्मिक संगत से उन्हें अचानक यह अंतर्ज्ञान हुआ बताते हैं कि भगवान राम नेपाली थे और असली अयोध्या नेपाल में है! प्रसिद्ध नेपाली कवि भानुभक्त के जन्मदिन पर हुए समारोह में के पी शर्मा ओली ने अपने आवास पर अपनी इस मौलिक खोज से जगत को अवगत कराया कि, ‘असली अयोध्या - जिसका प्रसिद्ध हिंदू महाकाव्य रामायण में वर्णन है - वह नेपाल के बीरगंज के पास एक गाँव है। वहीं भगवान राम का जन्म हुआ था। भगवान राम भारत के नहीं, बल्कि नेपाल के राजकुमार थे।’ इतना ही नहीं, उन्होंने भारत के मत्थे पर सांस्कृतिक दमन तक का आरोप जड़ने में भी संकोच नहीं किया।
वैसे तो राम सबके हैं और सब स्थान राम के हैं, इसलिए ओली महोदय को दोष भी नहीं दिया जा सकता। सारा कन्फ्यूजन तो खुद राम जी का ही क्रिएट किया हुआ है! लेकिन यह बात तब लागू होती, जब ओली के दिल का यह ओले ओले बोलना भक्ति या अध्यात्म से प्रेरित होता। प्रेम सच्चा हो तो राम नेपाल तो क्या, खुद ओली के दिल में भी प्रकट हो सकते हैं। प्रेम तें प्रकट होइँ भगवाना! लेकिन यहाँ तो मामला उल्टा नज़र आ रहा है। भारत-द्वेष में ओली महोदय अयोध्या और राम को अपने यहाँ घसीटे लिए जा रहे हैं। पर यह हो नहीं सकता, क्योंकि राम को कपट पसंद नहीं - मोहि कपट छल छिद्र न भावा!
ऐसे में यह जिज्ञासा होना सहज है कि आखिर ओली के भीतर अचानक राम और अयोध्या के लिए इतना छद्म प्रेम क्यों उमड़ आया है। लगता है, उन्होंने किसी से सुना होगा कि राम पतितों को उबारने वाले पतित-पावन हैं, तो सोचा कि ज़रा आजमा ही लिया जाए, क्योंकि उन्हें अपना पतन अवश्यंभावी दीख रहा है। पर शायद ही राम उन्हें उबारने आएँ, क्योंकि राम को अपनी जन्मभूमि स्वर्ग से भी प्यारी है (स्वर्गादपि गरीयसी) और ओली उसी का इतिहास-भूगोल बदलने पर उतारू हैं।
अगर राम के नाम का इस्तेमाल नेपाली प्रधानमंत्री ने भारत और नेपाल के समाज-सांस्कृतिक रिश्ते मजबूत करने के लिए किया होता, तो शायद उन्हें चहुंदिश समर्थन मिलता। लेकिन उनका दुर्भाग्य यह है कि राम और अयोध्या के अपहरण की यह कुचाल उन्होंने भारत के साथ बिगड़ते रिश्तों को और बिगाड़ने की नीयत से चली है। शायद कोई क्रूर ग्रह उनकी खोपड़ी में घुस बैठा है, जिसके प्रभाव में आकर पहले तो उन्होंने 'नक्शा कांड'किया और अब 'अयोध्या कांड'कर बैठे हैं। उस क्रूर ग्रह की निशानदेही करने के लिए किसी ज्योतिषी या ओझा-गुनी की ज़रूरत नहीं। सबको पता है कि उसका नाम चीन है। चीनी प्रभाव के आधिक्य से उन्हें सियासी मधुमेह हो गया है, जिसके कारण उनका पूरा इतिहास बोध गड्डमड्ड हो गया लगता है। आज उन्हें राम नेपाली लग रहे हैं, तो कल वे तुलसीदास और उनके रामचरित मानस को भी नेपाली सिद्ध कर देंगे। क्योंकि तुलसी ने अयोध्या में ही तो अपने महाकाव्य को प्रकट किया था - अवधपुरी यह चरित प्रकाशा! सयाने तो यह संभावना भी देख रहे हैं कि किसी दिन नींद खुलते ही ओली महोदय नेपाल के विराटनगर को महाभारत वाला विराटनगर घोषित कर सकते हैं। वैसा हुआ तो फिर हस्तिनापुर और इंद्रप्रस्थ भी कहीं वहीं आसपास खोजने होंगे; जैसे अभी लंका खोजनी पड़ रही है। ओली महोदय को शिकायत है कि भारत वाली अयोध्यापुरी जनकपुरी से इतनी दूर कैसे हो सकती है। उस ज़माने में तो संचार और यातायात की सुविधा भी नहीं थी और इसीलिए शादियाँ आसपास ही की जाती थी। ऐसे में उन्हें लंका भी समुद्र के पार नहीं, नेपाल सीमा पर किसी झील-पोखर के किनारे खोजनी होगी। देवगण भी नेपाल के प्रधानमंत्री के इस अंतर्ज्ञान की बलिहारी हैं!