*कोरोना उत्तर काल में अर्थ व्यवस्था का हाल*
तरह-तरह की आशंकाओं के बावजूद
भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर शक्तिकांत दास का यह आश्वासन भीषण लूओं के मौसम में ठंडी फुहार जैसा है कि लॉकडाउन की पाबंदियों में धीरे-धीरे ढील दिये जाने के बीच भारतीय अर्थव्यवस्था सामान्य स्थिति की तरफ लौटने के संकेत देने लगी है। अगर यह सच है तो बेहद सुखद है। क्योंकि जिस तरह कोरोना को काबू कर लिए जाने के तमाम दावों के बावजूद वैश्विक महामारी का आतंक नित नए नए रूप धर कर अपनी उपस्थिति बढ़ाता दिख रहा है और लोगों की जेबें खाली तथा बाजार उजड़े दिख रहे हैं, इस हाल में अर्थ व्यवस्था का स्वास्थ्य ठीक होने की खबर पर सहज यकीन करने को मन नहीं मानता। यकीन तब जमेगा, जब सचमुच वित्तीय स्थिरता के लक्षण दिखाई देंगे। इसके लिए वृद्धि दर को तेज करना और मजबूत वापसी करना आज की अर्थ व्यवस्था की पहली ज़रूरत है।
फिर भी 7वें एसबीआई बैंकिंग एंड इकनॉमिक्स कॉन्क्लेव के दौरान भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर का यह संतोष नई आस तो जगाता ही है कि भारतीय कंपनियों और उद्योगों ने संकट के समय बेहतर प्रतिक्रिया दी है। लेकिन यह आस कितनी क्षणभंगुर है, इसका पता हाथोंहाथ चल जाता है। क्योंकि अगली ही साँस में दास महोदय यह कहते हुए हाथ उठा देते हैं कि आपूर्ति शृंखला के पूरी तरह से बहाल होने और माँग की स्थिति सामान्य होने में कितना समय लगेगा, यह अभी अनिश्चित है। इतना ही नहीं, यह भी अनिश्चित है कि यह महामारी हमारी संभावित वृद्धि पर किस तरह का टिकाऊ असर छोडने वाली है। उनके इन तांत्रिक शबर मंत्रों का अर्थ सयाने बूझें तो बूझ लें, आम आदमी के पल्ले तो 'खाक बटा धूल इज़ इक्वल टु नथिंग'ही पड़ता है! इसीलिए वे स्वीकार करते हैं कि संकट की स्थितियों को देखते हुए हमें अपनी नीतियों में संशोधन पर विचार करना होगा।
वैसे सच बात तो यह है कि हमारे आर्थिक नीतिकार खुद अँधेरे में भटक रहे हैं। वर्तमान बिगड़े हालात से आँख मिलाने की ताब न लाकर वे देश को संभावनाओं के काल्पनिक जगत में विचरण कराना चाहते हैं। उन्हें लगता है कि सरकार ने जिन लक्षित एवं विस्तृत सुधार उपायों की घोषणा की है, उनसे आर्थिक वृद्धि को सहारा मिलना चाहिए। सचमुच मिलेगा? कुछ पक्का नहीं! संभावनाओं के अपने जाल को वे प्रेमी जन की तरह चाँद के पार तक फैलाते हुए यकीन दिलाने की कोशिश करते हैं कि कोविड-19 के बाद की बेहद अलग दुनिया में संभवत: अर्थव्यवस्था के भीतर उत्पादन के कारकों के पुन: आबंटन तथा आर्थिक गतिविधियों को विस्तृत करने के नवोन्मेषी तरीकों से कुछ पुनर्संतुलन बन सकेगा और आर्थिक वृद्धि को गति देने वाले नये वाहक उभर सकेंगे। पर शायद उन्हें भी पता है कि ये सब बातें आज की तारीख में तारे तोड़ कर लाने के वायदों जैसी हैं और इन पर तब तक यकीन नहीं किया जा सकता जब तक बाज़ार ढर्रे पर न आ जाए! दास महोदय शायद इसीलिए यह नहीं बताते कि वित्तीय क्षेत्र को सामान्य स्थिति की ओर लौटाने के लिए उनके पास कौन कौन से कारगर उपाय हैं! इसके बावजूद यह भरोसा वे ज़रूर दिलाते हैं कि कोविड-19 महामारी का ठीक-ठाक असर होने के बाद भी सभी भुगतान प्रणालियों और वित्तीय बाजारों समेत देश का वित्तीय तंत्र बिना किसी रुकावट के काम कर रहा है। लेकिन शायद इसका श्रेय नीतिकारों से अधिक इस देश की जनता के उस संयम को जाता है जो आपदा के वक़्त ज़रूरतों को सिकोड़ कर जीना सिखाता है!
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