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चित्रकूट के घाट पर ? / ऋषभ देव शर्मा



चित्रकूट के घाट पर...?

उत्तर प्रदेश में चित्रकूट की खदानों में काम करने वाली नाबालिग लड़कियों के दैहिक शोषण की खबर केवल निंदनीय और कारुणिक ही नहीं, दुर्भाग्यपूर्ण और लज्जाजनक भी है। इस प्रकार की स्थितियों का विद्यमान होना हमारे 'महान लोकतांत्रिक समाज'को कलंकित करता है। रोटी-रोजी के वास्ते इन बच्चियों की खदानों में मजदूरी करने की मजबूरी खुद ही आर्थिक प्रगति के मुँह पर तमाचे से कम नहीं। ऊपर से, भूख और बदहाली के डर से इन्हें जिस प्रकार दुष्कर्म का शिकार बनना पड़ता है, उसके आगे तो शोषण मुक्त समाज के सारे दावे ही पाखंड प्रतीत होते हैं। ये लड़कियाँ बाल श्रमिक भी हैं और बंधक भी। स्कूल जाने की उम्र में अपना और परिवार का पेट भरने के लिए इनके लिए मजदूरी करना ज़रूरी है। और मजदूरी पाने के लिए ज़रूरी है चुपचाप यौन शोषण के लिए प्रस्तुत रहना। वरना दिन भर हाड़तोड़ मेहनत के बाद भी मेहनताना नहीं मिलेगा। यानी, अपना मेहनताना पाने के लिए दुष्कर्म झेलना अनिवार्य शर्त है! अचरज है कि इस कलंक कथा की ओर किसी सरकार का कोई ध्यान तब तक नहीं जाता, जब तक कि मीडिया इसका पर्दाफाश नहीं करता। उसके बाद भी अगर बेशर्मी से प्रशासन यह तर्क देकर ज़िम्मेदारी लेने से बचता दिखाई दे कि हमें तो किसी लड़की या किसी परिवार से ऐसी कोई शिकायत ही नहीं मिली, तो इसे उसकी संवेदनहीनता और ढिठाई ही कहा जा सकता है। पुलिस और प्रशासन जनता को अंधी और बेवकूफ समझना कब छोड़ेंगे?

सयाने बताते हैं कि चित्रकूट के पहाड़ों में लगभग 50 कोयला खदानें हैं। वनांचल के भूख और बेरोजगारी से पीड़ित कोल समुदाय के लिए ये खदानें ही आजीविका का एकमात्र स्रोत हैं। बिचौलिये और ठेकेदार उनकी गरीबी और भोलेपन का फायदा उठाते हुए उनकी नाबालिग बेटियों का हर प्रकार से शोषण करते हैं। मीडिया की मानें (और न मानने का कोई कारण नहीं) तो चित्रकूट के गाँवों में रहने वाली कोल आदिवासी नाबालिग बच्चियाँ अगर किसी खदान में जाकर काम माँगती हैं, तो उन्हें नौकरी पाने के बदले अपना शरीर सौंपना पड़ता है। ऐसी शोषित बालिकाओं ने आपबीती सुनाते हुए बताया है कि अक्सर उन्हें  काम का पूरा पैसा भी नहीं मिलता है। वैसे तो उनकी  दैनिक मजदूरी 300-400 रुपये है। लेकिन खदान के लोग कभी 200 देते हैं, तो कभी 150! इतने पर भी, नौकरी हाथ से निकल जाने के डर से वे आधी या तिहाई पगार पाकर और लगातार दुष्कर्म झेलकर भी उनका विरोध नहीं कर पातीं। अब यह आप पर निर्भर है कि इस सबको आप बाल शोषण कहें, श्रम शोषण कहें या स्त्री शोषण!

हकीकत यही है कि विकास का प्रकाश इन अँधेरी खदानों तक अब तक नहीं पहुँचा है। सच कहें तो विश्व की अग्रणी आर्थिक शक्ति बनने को आतुर यह महादेश अभी तक आर्थिक आज़ादी नहीं पा सका है। गरीबी, भूख और शोषण के ऐसे उदाहरण जब तक मौजूद हैं, तब तक आर्थिक विकास के सारे दावे निरर्थक नहीं हैं क्या? 10 से 18 साल  उम्र की ये नाबालिग लड़कियाँ खदानों में पत्थर उठाने का काम करती हैं और इस तरह अपने परिवार  का बोझ उठाती हैं। शिकायत करने पर उन्हें जान से मारने की धमकी दी जाती है। और इस तरह ठेकेदारों तथा बिचौलियों की कलंक कथा अबाध चलती रहती है। विवश माता-पिता भी सब कुछ देखते-बूझते चुप रहते हैं। भूख जो न कराए, कम है!...

अंततः अदम गोंडवी के शब्दों में इतना ही कि-

वो जिसके हाथ में छाले हैं, पैरों में बिवाई है।
उसी के दम से रौनक आपके बंगले में आई है।।

रोटी कितनी महँगी है, ये वो औरत बताएगी;
जिसने जिस्म गिरवी रख के, ये क़ीमत चुकाई है।।
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