बहुचर्चित कवि, लेखक, संपादक एवं पेशे से शिक्षक वार्सन शियर का जन्म सोमाली माता-पिता से केन्या में हुआ और वे लंदन में रहती हैं। ‘घर के बारे में बातचीत‘ उनकी कविता-पुस्तक है, जो 2009 में आयी और देखते-देखते दुनिया भर में चर्चा का विषय बन गयी। ‘घर‘ इसी शृंखला की एक कविता है, जिसने पूरी दुनिया के लोगों को झकझोर कर रख दिया और यह कविता मीडिया से लेकर अन्य जनमाध्यमों के द्वारा करोड़ों लोगों तक पहुंची। हिन्दी में पहली बार इस कविता को पूरा पढ़िये:
घर
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-वार्सन शियर
घर नहीं छोड़ता कोई आदमी
जब तक कि घर किसी शार्क का जबड़ा न लगे
तुम बस भाग पड़ते हो सीमा की ओर
जब पाते हो कि समूचा शहर ही
भाग रहा है सिर पर पांव लिये
तुम्हारे पड़ोसी भाग रहे हैं तुमसे भी तेज़
सांसें लहूलुहान अटकती हैं गले में उनके
वह लड़का जिसके साथ स्कूल जाया करती थीं तुम
जिसने लिया था सिहरा देने वाला चुम्बन तुम्हारा
टिन के उस पुराने कारख़ाने के पीछे
उसने थाम ली है हाथों में ख़ुद से लंबी बन्दूक
तुम बस भाग ही सकते हो
घर जब तैयार न हो रहने देने को तुम्हें।
कोई घर नहीं छोड़ता
जब तक कि घर पीछे न पड़ा हो तुम्हारे
पांव के नीचे शोले
गर्म लहू तुम्हारे पेट में
तुमने ख़्वाब में भी कहां सोचा था
कि कभी यह भी करना पड़ सकता है
अंत तक बनी रहती हैं आशंकाएं
दग्ध छुरे की तुम्हारे गले पर
और तब भी जब ले जाते हो छिपाते हुए
अपनी सांसों के भीतर अपने गान
चिन्दी-चिन्दी करते अपना पासपोर्ट
किसी हवाई अड्डे के शौचालय में
काग़ज़ात भरे मुंह से चीत्कार करते
यह पक्का करते हुए कि अब कभी
नहीं जा सकते तुम वापस लौट कर।
तुम्हें समझना ही होगा,
कि कोई अपने जिग़र के टुकड़ों को
यों ही नहीं धकेल देता किसी नाव में
जब तक कि पानी अधिक सुरक्षित न हो
पांवों के नीचे की ज़मीन से
कोई भी झुलसाना नहीं चाहता अपनी हथेलियों को
रेलों के भीतर
गाड़ियों के तल में
कोई नहीं बिताना चाहता
अपने रात और दिन किसी ट्रक के पेट में
अखबारों पर खाना खाते मीलों लंबे सफ़र में
इसका मतलब यह है कि
यह महज एक सफ़र नहीं है।
कोई भी रेंगना नहीं चाहता बाड़ों के नीचे से
मार खाना कोई नहीं चाहता
कोई नहीं चाहता कि तरस खाया जाये उस पर
शरणार्थी शिविर किसी का चुनाव नहीं होते
कोड़े किसी को भी अच्छे नहीं लगते
यह ढूंढते हुए कि तुम्हारे जिस्म में
और कहां-कहां दर्द बाक़ी है
जेल किसी को अच्छे नहीं लगते,
जब तक कि वे सुरक्षित न लगें
जलते हुए किसी शहर की बनिस्बत
और जेल अगर रात में शरण देती हो
तो खचाखच भरे ट्रकों से तो बेहतर ही है
जहां हर चेहरा है तुम्हारे पिता जैसा
कोई भी इसे सह नहीं सकता
कोई भी पचा नहीं सकता इसे
कोई भी चमड़ी इतनी सख़्त नहीं होती
अपना नाम और अपने परिवार खोकर
साल भर, दो साल या दस साल के लिये
ढूंढते हुए कोई पनाह या वास-स्थान
नंग-धड़ंग भटकते हुए
हर कहीं रास्ते में आ जाती हैं जेलें
और अगर बच गये ज़िन्दा कहीं
तो किन शब्दों में सत्कार होता है
दफ़ा हो जाओ
अपने घर जाओ अश्वेतो
शरणार्थियो
गन्दे आप्रवासियो
इन आश्रय ढूंढने वालों नेे
चूस लिया है हमारे मुल्क़ को
ये कंगले और हब्शी
जिनसे एक अजीब सी गन्ध आती है
वहशी
उन्होंने रौन्द डाला अपने मुल्क़ को
और अब वे रौन्दना चाहते हैं हमें भी
बदशक़्लो
समेट लो अपना पिछवाड़ा यहां से
क्योंकि घूंसा उससे नरम शायद ही हो
जितने से टूट सकता है अंग कोई भी
क्या ये बोल अधिक नरम हैं
उन चौदह लोगों की जान से
जो फंसे हैं तुम्हारी टांगों की गिरफ़्त में
या कि अपमान को निगलना अधिक आसान है
बनिस्बत रोड़े-पत्थर के
हड्डियों के बनिस्बत
तुम्हारे बच्चे के जिस्म की बनिस्बत
जो बंटा हुआ है टुकड़ों में
मैं घर जाना चाहती हूं,
लेकिन घर तो जैसे किसी शार्क का जबड़ा है
बन्दूक की नाल है घर
और कोई भी तब तक घर नहीं छोड़ता
जब तक घर खदेड़ नहीं आता तुम्हें
समन्दर के आखि़री किनारों तक
जब तक नहीं कह देता घर
कि अपने पांवों की रफ़्तार तेज़ करो
छोड़ कर भागो अपने कपड़े-लत्ते
घिसटते हुए पार करो चाहे रेगिस्तान को
महासागरों पर उतराओ
डूब जाओ
बचो
भूखे मरो
भीख मांगो
भूल जाओ मान-सम्मान को
तुम्हारा ज़िन्दा रहना ही सबसे ज़्यादा ज़रूरी है।
कोई भी घर नहीं छोड़ता जब तक
घर कानों में नहीं कहता हांफती आवाज़ में-
जाओ,
दूर हट जाओ मुझसे फ़ौरन
मुझे नहीं मालूम कि क्या बन गया हूं मैं
लेकिन इतना मुझे मालूम है कि
दुनिया का कोई भी किनारा
सुरक्षित ही होगा यहां से
(अंग्रेज़ी से अनुवाद- राजेश चन्द्र, 21 अगस्त, 2018)