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1857 का बड़ा नायक मौलाना अहमदुल्लाह / जिसकी याद करो क़ुरबानी

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वही था.. लम्बा, मस्कुलर, मुड़ी हुई लम्बी नाक, गहरी आँखें,  गोल भौहें और लालटेन सी ठुड्डी.., वही था जिसने रोटी और कमल के संदेशे ईजाद किये थे।

कर्नल जी.बी. मेल्सन लिखते है- क्रांति के ठीक पहले वो दिल्ली, मेरठ, पटना, कलकत्ता, आगरा और पंजाब में घूम रहा था। हर उस जगह जहां छावनियां थी। कलकत्ते से वो नई कहानी लेकर आया, दमदम की ऑर्डिनेंस फेक्ट्री में जो नए कारतूस बन रहे है, उसमे सूअर और गाय की चर्बी है। लखनऊ आकर उसने पूरे अवध में राजद्रोही पर्चे बांटे। वो रोज नाम बदलता था, कभी डंका शाह, कभी नक्कार शाह..। कई भाषाएं जानता था, उंसके एक हाथ कलम थी, दूसरे हाथ तलवार। जब बोलता, तो आग उगलता था। सिपाही मरने मारने पर उतारू हो जाते थे।

किसी तरह उसे पकड़ लिया गया। राजद्रोह के लिए मौत की सजा हुई। लेकिन मौत दी जाती, पहले ही क्रांति भड़क गई। उंसके साथी छुड़ा ले गए। वो लखनऊ की बेगम का खास बन गया। चिल्हट और रेसीडेंसी के हमले में उसने करवाये। लखनऊ रेसीडेंसी का पूरी क्रांति के दौरान अंग्रेजो की सबसे बड़ी कत्लगाह बनी। तीन महीने तक अवध आजाद रहा। वो मौलवी , इस म्युटिनी का सबसे बड़ा षड्यंत्रकारी था।
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1857 के हीरोज के नाम याद कीजिये। सबसे पहले रानी झांसी याद आएंगी जो खूब लड़ी मर्दानी थी। फिर मंगल पांडे, नाना साहिब, कुंवर सिंह .. ? और जोर दीजिये। बेगम हजरत महल, बख्त खां?? मगर क्या मौलवी अहमदुल्लाह का नाम सुना है??

अवध में मौलवी अहमदुल्लाह को गदर का "लाइट हॉउस"कहा गया। पिता यूपी में हरदोई के रहने वाले थे। मगर दक्षिण भारत मे हैदर अली की सेना में कर्मचारी थे। फिर अर्काट के नवाब के कारिंदे हुए। उसी वक्त सिकन्दर का जन्म हुआ।

धनी घर के सिकन्दर ने खासी पढ़ाई की, तो हथियार चलाना भी सीखा। देश विदेश घूमे, हज किया। उनका हैदराबाद निजाम की मदद से इंग्लैंड जाना और अंग्रेजी सीखना अपुष्ट है। मगर ये पुष्ट है कि ग्वालियर प्रवास के दौरान एक सूफी पीर के सम्पर्क में आकर अपना नाम मौलवी अहमदुल्लाह रखा। आगरे में उनके प्रवास के दौरान उनकी शिकायत हुई - "यह आदमी दरवेश सिर्फ नाम का है, असल मे लोगो को सरकार के खिलाफ भड़काता है".

मौलवी फैजाबाद आ गए। अब तक अवध को डलहौज़ी ने हड़प लिया था। जनता में गुस्सा था। फैजाबाद में मौलवी की एक्टिविटीज सन्दिग्ध थी। सरकार ने गिरफ्तार कर लिया, मौत की सजा दी। मगर उन्हें अभी मौत नही आनी थी।

गदर फूटा, साथियो ने छुड़ा लिया। अवध को आजाद किया गया। मौलवी ने बेगम हजरत महल के प्रशासन संभालने से अनुरोध को ठुकरा दिया। चे ग्वेरा को याद कीजिये जो क्रांति सफल करने आए बाद मंत्री पद छोड़ दीगर जगहों को क्रांति करने निकल गया।

मौलवी भी कुछ फौजियों को लेकर आगे बढ़ गए। अवध के बाद, देश को आजाद कराना अभी बाकी था। पवैया के जमींदार, जगन्नाथ सिंह उनके मित्र थे। मित्र ने क्रांति में मदद का वादा किया, बुलाया। 5 जून 1858 को मौलवी जब पहुंचे, तो मित्र ने गोली मार दी। सर काट कर अंग्रेजो को गिफ्ट कर दिया।
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रानी झांसी "अपनी झांसी नही देने"पर अड़ी थी। नाना साहब के पेशवा पिता की पेंशन और जायदाद छीनकर बिठूर में बैठा दिया गया था। हजरत महल को अवध वापस चाहिए था। मंगल पांडे को अपना धर्म बचाना था। कड़वा सच यही है कि जिन मुट्ठी भर रजवाड़ो ने विद्रोहियों का साथ दिया, वे असल मे अपनी सत्ता हारे हुए लोग थे।

इन सबके बीच, एक ऐसा शख्स जिसने न राज खोया था, न राज चाहिए था। जिसे धर्म नही , देश बचाना था। जो किसी इलाके से नही, पूरे हिंदुस्तान से अंग्रेजो को भगाना चाहता था। जो दरवेश था, फौजी था, लीडर था, लाइट हाउस था..  वही भुला दिया गया।

सुना है 100 साल पहले जेल दाखिल, और 50 साल पहले मर चुके एक माफीवीर को भारतरत्न दिया जाएगा। ठीक है, पर अगर सौ साल पीछे जा सकते हैं, तो डेढ़ सौ साल पीछे भी चले जाइये। मजे की बात है कि मौलवी ने अपनी क्रांति का गढ़ उसी फैजाबाद को बनाया था, जिसे अब अयोध्या कहते है और जहां से आपने अपनी सत्ता का मार्च शुरू किया था।

हम जानते हैं, ऐसा नही होगा। भुला दिया जाना मौलवी की नियति है।
आभार मनीष सिंह

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