Quantcast
Channel: पत्रकारिता / जनसंचार
Viewing all articles
Browse latest Browse all 3437

रवि अरोड़ा की नजर (से ) में

$
0
0
कारगिल विजय दिवस और दौड़ते लड़के

रवि अरोड़ा

गाँव-देहात से अक्सर गुज़रना होता है । सुबह हो या शाम, यहाँ तक कि भरी दुपहरी ही क्यों न हो , जवाँ लड़कों के समूह सड़कों पर दौड़ते दिख ही जाते हैं । मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि ये लड़के फ़ौज में भर्ती होने की गरज से पसीना बहा रहे हैं । कड़ी मेहनत, जान का जोखिम और बहुत अधिक वेतन न होने के बावजूद सेना में भर्ती होना आज भी देहाती युवाओं का पहला ख़्वाब होता है । मैंने कई बार रोक कर इन युवाओं से बात भी की है और हर बार इसी नतीजे पर पहुँचा हूँ कि देशवासियों में सैनिक के प्रति सम्मान उनके इस क्रेज़ का सबसे बड़ा कारण है । इन युवाओं का मानना होता है कि फ़ौजी जीते जी तो अपने परिवार को गौरवान्वित करते ही हैं और यदि शहीद भी हुए तो पूरे ख़ानदान और गाँव का नाम ऊँचा होता है । कई बार सोचता हूँ कि एसी गौरवशाली परम्पराओं से आने वाले इन सैनिकों की जान की क़ीमत क्या हमारे देश के नेता वाक़ई समझते हैं ? क्या उन्हें इस बात का अहसास होता है कि अपने अहं की संतुष्टि के लिए वे कई बार एसे फ़ैसले भी ले लेते हैं जिनकी भारी क़ीमत हमारे जवानों को चुकानी पड़ती है ? 

देश आज कारगिल विजय दिवस मना रहा है । आज ही के दिन 21 साल पहले भारतीय जवानों ने पीठ में छुरा घोंपने वाले पाकिस्तान को धूल चटाई थी । पीठ में छुरा इसलिए कि फ़रवरी 1999 में भी तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई दोस्ती के संदेश सहित बस लेकर लाहौर गए थे और पाकिस्तान से उनकी गलबहियों को छः महीने भी नहीं बीते थे कि घुसपैठियों के नाम पर पाकिस्तान ने छद्म हमला कर दिया । साफ़ ज़ाहिर था कि जिस समय वाजपेई लाहौर में दोस्ती का पैग़ाम दे रहे थे उसी समय पाकिस्तान कारगिल युद्ध की तैयारी कर रहा था । सवाल यह है कि हर बार धोखा देने वाले पाकिस्तान से फिर किस आशा में मोदी जी अचानक वहाँ के प्रधानमंत्री की नातिन की शादी में शरीक होने अचानक चले गये ? क्या उन्होंने लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी और स्वयं अपने आदर्श पुरुष वाजपेई को मिले धोखे से कोई सबक नहीं लिया ? स्वयं मोदी जी की लाहौर यात्रा के नौ महीने बाद जब यही धोखा उन्हें उरी में सैन्य मुख्यालय पर कायरना हमला के रूप में मिला तब ही क्यों उन्होंने पाकिस्तान का मूल स्वभाव समझा और उससे दूरी बना ली ? अब यही कुछ चीन के साथ सम्बंधों में भी नहीं हो रहा है ? जिस प्रकार जवाहर लाल नेहरु चीन के तत्कालीन प्रधानमंत्री चाउ एनलाई के हिंदी चीनी भाई भाई के नारे के धोखे में आकर अपनी 43 हज़ार किलोमीटर ज़मीन 1962 के युद्ध में गँवा बैठे उसी प्रकार मोदी जी भी चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग को झूला झुलाते हुए गलवाँ घाटी में घुसपैठ करवा बैठे । साफ़ दिख रहा है कि चेन्नई के निकट महाबली पुरम में मोदी जी जिस समय शी जिनपिंग का स्वागत कर रहे थे , उसी समय चीन भारत की भूमि पर घुसपैठ की तैयारी में जुटा रहा होगा । 

बेशक मोदी जी के नेतृत्व में भारत ने सर्जिकल स्टाइक़ कर पाकिस्तान को सबक़ सिखा दिया है और चीन के प्रति भी कोई नरमी नहीं दिखाई जा रही है मगर न जाने क्यों मोदी जी की भाषा में चीन के प्रति वह सख़्ती नहीं है जो पाकिस्तान को लेकर रहती है । आज अपने मन की बात कार्यक्रम में इक्कीस साल पहले के कारगिल युद्ध को लेकर तो उन्होंने कई बार पाकिस्तान का नाम लिया मगर चीन से आजकल चल रहे विवाद के बावजूद उसका नाम फिर नहीं लिया । हैरानी इस बात पर भी है कि चीन द्वारा भारतीय भूमि पर क़ब्ज़े और बीस जवानों की शहादत के बावजूद मोदी जी ने चीन को यह कह कर भी क्लीन चिट दे रखी है कि भारत की एक इंज भूमि पर भी किसी का क़ब्ज़ा नहीं है । चीन से युद्ध की आशंका के मद्देनज़र भारत की तैयारियों, भारतीय सैन्य शक्ति और अपने जवानों के पराक्रम पर कोई शुबह न होने के बावजूद यह डर तो मन में फिर भी लगा ही रहता है कि सड़कों पर दौड़ते दिखने वाले ये युवक कहीं किसी नेता की मूर्खता अथवा अहं की बलि न चढ़ जायें । एसे लोग जो अपना हाथ जलवाए बिना आग का चरित्र ही न समझ पाते हों , उनसे एसी तमाम आशंकाएँ रहती भी तो हैं ।


  भईया एक हाफ़

रवि अरोड़ा

मैंने  भी अब समाज की मुख्यधारा में शामिल होने का निर्णय ले लिया है । तय कर लिया है कि अब मैं भी शराब से सुलह कर लूँगा और संडे हो या मंडे रोज़ खाओ अंडे की तर्ज़ पर प्रतिदिन दारू पीयूँगा ।  क्या करूँ अब देश-प्रदेश चलाना है तो अपनी तरफ़ से कुछ तो योगदान देना ही पड़ेगा । वैसे भी जब सरकार की यही तवक्को है कि कुछ और करो या न करो मगर शराब ज़रूर पियो तो यही सही । अब आप पूछ सकते है कि इस बुढ़ापे में आकर मुझे यह इल्हाम कैसे हुआ ? कैसे उम्र के इस मोड़ पर आकर शराब की उपयोगिता से मैं वाक़िफ़ हुआ ?  तो जनाब मैं अपनी ग़लती मानता हूँ और स्वीकार करता हूँ की यह फ़ैसला मुझे बरसो पहले कर लेना चाहिये था । दरअसल इसमें मेरी ग़लती भी उतनी अधिक नहीं है । अब से पहले मुझे किसी ने अहसास ही नहीं कराया कि देश के उत्थान में शराब की इतनी बड़ी भूमिका है । किसी ने बताया ही नहीं कि शराबी कह कर समाज के जिस वर्ग को उपेक्षित किया जा रहा है दरअसल यही वर्ग है जो तमाम सरकारें चला रहा है । ये तमाम सड़कें, पुल, स्कूल और अस्पताल उसी के पैसे से सरकारें बनाती हैं । धन्यवाद योगी जी आपने मेरी आँखें खोल दीं । 

इतवार को कुछ ज़रूरी सामान ख़रीदने की ग़रज़ से बाज़ार जाना हुआ मगर तमाम दुकानें बंद मिलीं । हालाँकि मैं अच्छी तरह जानता था कि शुक्रवार रात से सोमवार सुबह तक का लॉक़डाउन है मगर मेरी जानकारी में था कि परचून और दवा की दुकानें खोल सकते हैं । गोया कि सामान ख़रीदने कई जगह गया मगर कहीं कोई दुकान खुली नहीं मिली । यहाँ तक कि तक दवा की दुकानें भी बंद थी । बस एक तरह की दुकानें खुली थीं जिन पर लिखा था- अंग्रेज़ी अथवा देसी शराब की सरकारी दुकान या ठंडी बीयर । इन दुकानों पर भीड़ भी ख़ूब दिखी । दुकानदार और ग्राहकों की सुरक्षा के लिए पुलिस की एक जिप्सी भी वहाँ मौजूद थी। हताश-निराश होकर मोहल्ले के कई परचून दुकानदारों को फ़ोन मिला दिया और सूरते हाल जानने का प्रयास किया । पता चला कि लॉक़डाउन की वजह से सामान्य ग्राहक घर से ही नहीं निकल पा रहे तो दुकानें किसके लिये खोलें ? यूँ भी ग्राहक से अधिक पुलिस वाले शनिवार-रविवार में आ जाते हैं और उन्हें मुफ़्त में सामान देना पड़ता है । एक चौराहे पर रुक कर पुलिस का तमाशा मैंने भी देखा । एक व्यक्ति पुलिस से यूँ उलझ रहा था कि उसने दवा लाने की बात कही थी मगर उसके पास डाक्टर का पर्चा नहीं था । इसी बीच कई एसे लोग वहाँ से धड़ल्ले से निकल गए जिन्होंने कहा कि वे वाईन शॉप जा रहे हैं । बस वही वह पल था जब मुझे शराब का महत्व समझ आया और अपनी हीनता और दारू के महात्म का अहसास हुआ । 

तमाम ख़बरें बताती हैं कि अधिकांश राज्यों की सबसे अधिक आमदनी पेट्रोल-डीज़ल और शराब की बिक्री से ही होती है । यूपी में भी बीस फ़ीसदी सरकारी आमदनी अकेले शराब से ही है । पिछले साल ही सरकार ने 24 हज़ार करोड़ रूपया शराब की बिक्री से कमाया । प्रदेश में 18 हज़ार शराब की दुकानें हैं और उन्हें एक दिन के लिए भी बंद करने का साहस सरकार नहीं रखती । शराब से हो रही आमदनी को देखते हुए प्रदेश सरकार ने अब मॉल में भी शराब की बिक्री की अनुमति दे दी है । वैसे एक सवाल दिमाग़ में आता है कि जीएसटी के रूप में टैक्स तो सभी तरह के सामान पर सरकार को मिलता होगा ? फिर अकेले शराब पर ही इतनी मेहरबानी क्यों ? और वह भी एसी पार्टी के शासन में जो नैतिकता के पाठ सुबह शाम हमें पढ़ाती है ? उस मुख्यमंत्री के कार्यकाल में जो गेरुए वस्त्र पहनते हैं ? कहीं एसा तो नहीं कि यह सरकार शराब सिंडिकेट के हाथों में खेल रही है और येन केन प्राकेण हमें भी नशे के गर्त में धकेलने पर तुली है ? क्या इस सरकार के कर्णधार दिमाग़ी रूप से दिवालिया हैं या किसी साज़िश के तहत एसा कर रहे हैं ? देखिये हो गई न गड़बड़ ? शराब पीए बिना लिखने बैठ गया और आएँ बाएँ सवाल करने लगा । सोरी भाईयों मेरी बात ख़त्म, मैं तो अब बोतल ख़रीदने जा रहा हूँ और मेरी मानिये तो आप भी जाइये और दुकान की जाली में हाथ डाल ज़ोर से कहिये- भईया एक हाफ़ ।



 जो दिखता है

रवि अरोड़ा


अयोध्या में राम मंदिर का काम शुरू होने से मैं बहुत प्रसन्न हूँ । इसलिए नहीं कि मेरी भगवान राम में गहरी आस्था है वरन इसलिए कि चलिये इस बहाने देश की राजनीति का एक विवादित अध्याय तो समाप्त हुआ । पाँच अगस्त को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस मंदिर का भूमि पूजन करेंगे और इसी दिन से विधिवत रूप से मंदिर का निर्माण भी शुरू हो जाएगा । इसी के साथ देश उस गहरे गड्ढे से भी बाहर आएगा जिसे राजनीतिज्ञों ने मंदिर-मस्जिद के नाम पर खोदा और जानबूझकर कर देश की करोड़ों करोड़ जनता को उसमें धकेल दिया। हालाँकि मैं जानता हूँ कि राजनीति में मुद्दे आसानी से दफ़्न नहीं किए जाते और समय आने पर पुनः झाड़ पोंछ कर उन्हें सामने खड़ा कर दिया जाता है मगर अब कम से कम इस मुद्दे को लेकर तो आसानी से एसा नहीं हो पाएगा । विवादित ढाँचा अब है नहीं और मंदिर बन ही रहा है तो फिर विवाद कैसा ? 

राम जन्मभूमि मंदिर को लेकर पाँच सौ सालों से स्थानीय स्तर का विवाद था मगर इसे राजनीति के केंद्र में लाकर एक अनोखा प्रयोग नौवें दशक की शुरुआत में ही किया गया । खेल की शुरुआत बेशक कांग्रेस ने की और मंदिर के ताले खुलवा कर मंदिर का शिलान्यास कराया तथा मुल्क में साम्प्रदायिक राजनीति का एक नया अध्याय प्रारम्भ किया मगर बाज़ी अंतत भाजपा ने ही मारी । भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी ने सोमनाथ से अयोध्या तक रथयात्रा निकाल कर इसे भारतीय राजनीति का एसा अवसर बना दिया जिसके नाम पर न जाने कितनी सरकारें बनीं और गिरीं । इस विवाद ने अब तक न जाने कितने दंगे करवाये और न जाने कितने हज़ार लोगों की जानें लीं । शुक्र है कि अब मंदिर-मस्जिद की इस घटिया राजनीति का पटाक्षेप होने जा रहा है । 

कहते हैं कि विवाद राजनीति का खाद पानी है । इसके बिना बात ही नहीं बनती । देश के इतने बड़े मुद्दे का पटाक्षेप होने जा रहा है और कोई शोर शराबा न हो , एसा राजनीतिज्ञ आसानी से कैसे होने दे सकते हैं ? मगर क्या करें, आम जनता तो कोरोना संकट की वजह से अपनी दाल रोटी की जुगत में ही व्यस्त है और मंदिर की बात ही नहीं कर रहा । ज़ाहिर है इससे वे लोग बहुत परेशान हैं जो इसका श्रेय लेना चाहते हैं । सो रोज़ाना एसा कुछ किया जा रहा है जिससे विवाद उत्पन्न हो । विवाद होगा तभी तो अख़बारों में सुर्ख़ियाँ बनेंगी , टेलिविज़न पर गर्मा गर्म बहसें होंगी और लोगों बाग़ ठिठक कर इस ओर ध्यान देंगे । यही वजह है कि छुटभैये विरोधियों से मुख़ालफ़त के बयान दिलवाए जा रहे हैं । कोई इस बात पर विरोध कर रहा है कि भूमिपूजन मोदी जी से नहीं कराना चाहिये तो कोई कार्यक्रम के मुहूर्त पर सवाल उठा रहा है । कोरोना के चलते भूमिपूजन का समय अनुपयुक्त तो बताया ही जा रहा है । कोई कार्यक्रम में अतिथियों की संख्या पर झूठी नाराज़गी जता रहा है तो कोई कार्यक्रम के दूरदर्शन पर सीधे प्रसारण का विरोध कर रहा है । बात बनती न देख अब असुदद्दीन ओवैसी को भी मैदान में उतारा गया है ताकि हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण हो सके । 

एक नई तरकीब की तहत अब यह चर्चा भी शुरू कराई जा रही है कि मंदिर के कार्यक्रम को आतंकवादी निशाना बना सकते हैं । बात करने के लिए दुश्मन नम्बर वन पाकिस्तान एसे वक़्त पर ही काम आता है । एसी अफ़वाह भी फैलाई जा रही है कि भूमिपूजन के समय दो हज़ार फ़ुट की गहराई में काल पात्र यानि टाइम कैप्सूल भी गाड़ा जाएगा ताकि हज़ारों साल बाद भी मंदिर के इतिहास को लोग जान सकें । इसी बहाने यह चर्चा भी शुरू कराई जा रही है कि इस टाइम कैप्सूल में क्या क्या लिखा गया होगा ? मगर हाय रे ! बात फिर भी नहीं बन रही । लोगबाग़ अपने मसलों में इतने मशगूल हैं कि इतने तमाशे के बावजूद मंदिर की बात ही नहीं कर रहे । हालाँकि मंदिर को भुनाने की चाह रखने वाले अभी निराश नहीं हुए हैं । कार्यक्रम में एक सप्ताह का समय है और अभी न जाने कितने टोटके हैं जो आज़माए नहीं गए हैं । आप भी मेरी तरह इंतज़ार कीजिये कुछ नया अवश्य होगा । इतने बड़े इवेंट को यूँ फ़ुस्स पटाखा नहीं होने दिया जाएगा । जनाब वो लोग देश चला रहे हैं और बख़ूबी जानते हैं कि जो दिखता है वही बिकता है ।



राम नाम की लूट

रवि अरोड़ा


पहले मुझे शक होता था मगर अब पक्का विश्वास हो चला है कि हमारी तमाम सरकारें लुटेरी हैं । जब जहाँ मौक़ा मिलता है , हमारी गाढ़ी कमाई हमसे छीन लेती हैं । यही नहीं अपने कुत्ते-बिल्लियों को भी वे खुली छूट देती हैं कि जितना चाहो ग़रीब जनता को लूटो । अब इस कोरोना संकट को ही देखिये । बेशक नब्बे फ़ीसदी लोग सड़क पर आ गए मगर दस फ़ीसदी फिर भी एसे हैं जिन्होंने सरकारी मिली भगत से जम कर चाँदी काटी । अब आम आदमी तो बेचारा निजी अस्पताल, मेडिकल स्टोर और राशन वालों के अतिरिक्त और किसी को देख ही नहीं पाता , अतः उसे पता ही नहीं कि किस किस ने इस आपदा को अवसर बनाया और उसकी जेब काटी । अब इस एन 95 मास्क को ही लीजिये जिसके नाम पर हज़ारों करोड़ रुपये का खेल हो गया । शुरुआती दौर में कहा गया कि कोरोना से बचाव में यह मास्क सर्वाधिक कारगर है और जब करोड़ों लोगों ने मुँह माँगी क़ीमत पर इसे ख़रीद लिया तो अब कह दिया कि यह मास्क बेकार है । 

कोरोना संकट से पहले देश में चुनिंदा कम्पनियाँ ही एन 95 मास्क बनाती थीं । इनमे भी त्रियम, वीनस और मैगलम का मास्क सबसे अधिक बिकता था । जनवरी माह से पहले इस मास्क की क़ीमत बारह रुपये थी मगर मार्च का महीना आते आते तक इस मास्क की क़ीमत सत्तर रुपये से भी अधिक हो गई । बड़ी कम्पनियों की देखा देखी जब हज़ारों छोटी कम्पनियाँ भी मैदान में कूद पड़ीं तब कहीं जाकर इसके दाम कुछ कम हुए । मगर आज भी बाज़ार में यह तीस रुपये से कम में नहीं मिलता जबकि इसकी लागत केवल ग्यारह रुपये है । एक सर्वे के अनुसार देश में प्रतिदिन दस करोड़ मास्क की माँग है और प्रतिदिन सोलह सौ करोड़ रुपये के तो केवल एन 95 मास्क ही बिकते हैं । जनवरी में बताया गया कि यह मास्क बाहर से अंदर की तरफ़ आने वाले 98 फ़ीसदी बैक्टीरिया और वायरस को रोकता है । दावा किया गया कि यह अधिक समय तक चलता है और चेहरे पर भी पूरी तरह फ़िट बैठता है । इसी का नतीजा हुआ कि अस्पतालों , स्वास्थ्य एवं सुरक्षा कर्मियों, भयभीत नागरिकों व आर्थिक रूप से बेहतर स्थिति के लोगों ने भारी मात्रा में यह मास्क ख़रीद लिये । मगर अब छः महीने बाद केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय और इंडियन काउंसिल आफ मेडिकल रिसर्च ने एडवाइज़री जारी की है कि यह मास्क प्रदूषण के कण रोकने में तो सक्षम है मगर वायरस और बैक्टीरिया के मामले में उपयोगी नहीं है । यही नहीं यह भी कहा गया कि इस मास्क को पहनने वाले को यदि कोरोना है तो उसके निकट आने वाले व्यक्ति तक वायरस को पहुँचने से यह मास्क नहीं रोक सकता । जबकि जनवरी में इन्हीं विभागों और संस्थाओं ने दावा था कि यह अपने नाम के अनुरूप 95 फ़ीसदी बैक्टीरिया रोकता है । 

कमाल की बात देखिए कि अमेरिका, यूरोप और चीन समेत तमाम बड़े देशों की तरह हमारे यहाँ इस तरह के मास्क की क्वालिटी चेक करने और उसे प्रमाणित करने के लिए आजतक कोई नियामक संस्था भी हमारे यहाँ नहीं बनी और सादे कपड़े में ढक्कन लगा कर उसे एन 95 के नाम पर ख़ूब बेचा जा रहा है । सवाल यह है कि इस मास्क में एसी कौन सी राकेट साइंस थी जो छः महीने तक सरकार को पता नहीं चली ? और अब जब पूरे मुल्क ने अपनी सुरक्षा को यह मास्क ख़रीद लिये तो अब इसे बेकार बता रहे हैं । क्या इस बात का सरकार को अंदाज़ा है कि न जाने कितने करोड़ लोग इस मास्क को पहन कर स्वयं को सुरक्षित महसूस करते रहे होंगे और कितने लोग लापरवाही में कोरोना के शिकार हो गए ? देश में कोरोना से हुई न जाने कितने फ़ीसदी मौतों की वजह यह मास्क ही रहा होगा ? समझ से परे है कि जो काम मुँह पर कपड़ा लपेट कर अथवा गमछे व दुपट्टे-चुन्नी से भी हो सकता था उसके लिये आख़िर इतनी बड़ी लूट क्यों होने दी गई ? राफ़ेल और राम मंदिर से फ़ुर्सत मिले तो इस विषय में भी अवश्य सोचिएगा ।





Viewing all articles
Browse latest Browse all 3437

Trending Articles



<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>