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प्रसंग : प्रेमचंद की प्रासंगिकता


प्रसंगः प्रेमचंद की प्रासंगिकता
जनसत्ता Published on: July 292020
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प्रेमचंद आधुनिक हिंदी साहित्य की चेतना रूपांतरण के बड़े लेखक थे । उन्होंने अपने परवर्ती लेखकों का मानस विस्तार कर सर्वाधिक प्रभावित किया। अकारण नहीं कि कथा साहित्य में उनके नाम की परंपरा कायम हुई। क्यों साहित्य की इतनी विविधता और विस्तार के बावजूद प्रेमचंद ही बार-बार याद आते हैं? यह सवाल अक्सर किया जाता है। प्रेमचंद का लेखन स्वाधीनता के बुनियादी सरोकारों से सूत्रबद्ध है। उनकी राष्ट्रीयता और पराधीन देश की मुक्ति के आशय अपने समकालीनों से सर्वथा भिन्न हैं। उसमें जाति, धर्म, संप्रदाय या किसी भेदभाव के बिना भारतीय समाज की बहुलता के मद्देनजर सभी वर्गों की सहभागिता निहित है। उनकी स्वाधीन भारत की संकल्पना भावुक और रूमानियत से परे भारतीय परिवेश में सच्चाइयों की समझ से उपजी है।

इसीलिए उनके ‘स्वराज’ का स्वप्न महात्मा गांँधी के विचारों के काफी निकट है। प्रेम, त्याग और बलिदान के उच्च आदर्श उनके आरंभिक लेखन में भी दिखते हैं, पर उनका दायरा व्यापक और यथार्थपरक होता गया। वे आजादी की लड़ाई को केवल राजनीतिक सत्ता हस्तांतरण नहीं, साधारण जनों के आर्थिक-सामाजिक-सांस्कृतिक सवालों से जोड़ना चाहते थे। किसान, स्त्री और दलितों को समाज की सामंती और पूंजीवादी व्यवस्था के शोषण और उत्पीड़न से मुक्त कराना चाहते थे। इसलिए उन्होंने इन वर्गों की वास्तविकता को अपनी कहानियों और उपन्यासों में दिखा कर, उनकी मुक्ति के सवाल बार-बार उठाए। हिंदू-मुसलिम सहअस्तित्व की जरूरी चिंताएँ भी उनके लेखन से अछूती नहीं। 

उनका उपन्यास ‘गोदान’ आज भी नए परिप्रेक्ष्य में विचार के लिए प्रेरित करता है। यह औपनिवेशिक युग में किसानों के शोषण की गाथा ही नहीं, समकालीन नव-उपनिवेशवाद, भूमंडलीकरण की चुनौतियों और उसके विमर्शों से सामना करने वाली सच्ची रचना भी है। प्रेमचंद के समय महाजनों का महाजन अंग्रेजी राज था, आज अमेरिकी साम्राज्यवाद आर्थिक नीतियों में अदृश्य रूप से घुसा है। देश में बड़े पैमाने पर किसानों की आत्महत्या के चलते ही कर्जमाफी की योजनाएं बनीं। गरीब आदमी अब भी सर्वाधिक संकटग्रस्त हैं। जीवन और जीविका के लिए जूझते-झींकते ‘होरी’ आज भी गाँवों में मौजूद हैं।

किसानों की स्थितियों को लेकर प्रेमचंद सदैव चिंतित रहे। ‘जागरण’ में उनका संपादकीय ‘हतभागे किसान’ और ‘महाजनी सभ्यता’ जैसे लेख इसके प्रमाण हैं। भारतीय संरचना में किसानों की ऐतिहासिक और सामाजिक-आर्थिक भूमिका को वे भली-भांति समझते थे। इसे ‘प्रेमाश्रम’, ‘कर्मभूमि’ और ‘गोदान’ उपन्यास तथा ‘पूस की रात’ जैसी कहानियाँ लिख कर उन्होंने सिद्ध भी किया। ‘गोदान’ की अप्रतिम दृष्टि और सृजन अपने समय को अतिक्रमित करता है। पूँजीवादी औद्योगिक विकास के खतरों को प्रेमचंद ने वर्षों पहले ‘रंगभूमि’ में उजागर किया। भूमंडलीय नीतियाँ ग्रामीण अस्मिता, निम्नवर्गीय जीवन और सपनों पर कहर बरपा रही हैं।

शहरों के पास की गंँवई जमीन और जीवन हमेशा कथित विकास के एजेंडे की भेंट चढ़ता है। प्रेमचंद ने अंग्रेजी राज द्वारा बनारस के निकट पांडेपुर गांव में सूरदास के जमीन से बेदखली की कथा तब कही थी, जब औपनिवेशिक भारत में पूंजीवादी-उद्योगीकरण ने पांँव पसारने शुरू किए थे। सूरदास वर्गीय प्रश्नों से ऊपर तत्कालीन राष्ट्रीय संदर्भों के लिए संधर्ष करता स्वाधीनता का बलिदानी नायक है। प्रेमचंद की चर्चित कहानी ‘कफन’ भी विमर्श और विवाद के केंद्र में रही है। सहमतियों और असहमतियों के बीच इसकी आंतरिक शक्ति और लेखकीय परिपक्वता, इसे कभी अप्रासंगिक नहीं होने देती। अपने कलात्मक शिखर पर संयम से रची सिर्फ इसी कहानी को लेकर प्रेमचंद आज भी चुनौती की तरह अडिग हैं। इस पर अनेक दृष्टियों से विचार हुआ, फिर भी संभावनाएँ बनी रहती हैं। सामान्य तर्कों से परे जाकर ही कहानी, कहानी बनती है। तभी वह बड़े जीवन सत्य को अभिव्यक्त कर पाती हैं। इस अर्थ में ‘कफ़न’ गहरे निहितार्थों की कहानी है। किसी वर्ग-जाति की निंदा की नहीं।

दलित वर्ग के प्रति वे संवेदनशील थे। ‘गोदान’ का मातादीन-सिलिया प्रसंग ही नहीं, ‘सद्गति’, ‘ठाकुर का कुआँ’ और ‘दूध का दाम’ आदि कहानियाँ इस संदर्भ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। उनकी दलितों के पक्ष में चिंता का संबंध भी भारतीय नवजागरण और स्वाधीनता आंदोलन से मिली प्रेरणाओं से है- जो हमेशा उनके रचनात्मक लेखन में मौजूद रहीं। उस वक्त ‘स्त्री की सामाजिक अस्मिता’ के अनेक सवाल सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलनों का अहम हिस्सा थे। ‘सेवासदन’ और ‘निर्मला’ उपन्यास तथा ‘बड़े घर की बेटी’, ‘घासवाली’, ‘बूढ़ी काकी’, ‘सुभागी’ आदि कहानियों के जरिए प्रेमचंद ने अपने रचनात्मक सरोकारों में स्त्री जीवन से जुड़ी समस्याओं को अभिव्यक्त किया। यही नहीं, स्वाधीनता आंदोलन के प्रमुख मुद्दों में उन्हें शामिल करने के लिए संघर्ष करते हुए आवाज भी उठाई।

इस तरह समकालीन साहित्य-विमर्श में प्रचलित प्रमुख आयामों के ‘बीज’ रूप प्रेमचंद के लेखन में मौजूद हैं, जिनका संबंध क्रमश: किसानों, स्त्रियों और दलितों की मुक्ति तथा कथा-साहित्य में प्रचलित विमर्शों से है। गौर करना चाहिए कि प्रेमचंद ये चिंताएं तब साहित्य के केंद्र में लाए, जब इनके बारे में कोई ठीक-ठाक विचार भी नहीं था। उन्होंने कहानी-उपन्यास को रूमानी, मनोरंजक और आभिजात्य के समांतर सामयिक चिंताओं और वृहत्तर जीवन संदर्भों से जोड़ा, तभी सामाजिक, सोद्देश्य और यथार्थवादी भूमिका पर संभावना के रास्ते फूटे। उन्होंने पहले सैकड़ों ऐसी कहानियां लिखीं, जिनका हृदय परिवर्तन पर अंत है। उन्हें आलोचकों ने आदर्शवादी खाँचे में रख कर कला की दृष्टि से अपरिपक्व कहा। प्रेमचंद ने अपनी सीमाओं का अतिक्रमण कर कथायात्रा के अगले मुकाम पर श्रेष्ठ कलात्मक और यथार्थोन्मुख कहानियाँ लिखीं।

उनकी साधारण कही जाने वाली कहानियों का भी आंतरिक सौंदर्य महत्त्वपूर्ण है। ‘पंच परमेश्वर’, ‘ईदगाह’, ‘नमक का दारोगा’, ‘दो बैलों की कथा’ आदि ऐसी कहानियाँ हैं, जिनके जरिए हर पीढ़ी का पहला ‘परिचय’ प्रेमचंद से होता है। हिंदी-उर्दू की विरासत से बहुत कुछ लेकर उन्होंने अपनी सहज कथा पद्धति विकसित की। आरंभ में नारी उद्धार और सामाजिक रूढ़ियों से मुक्ति संबंधी विचार प्रेमचंद ने आर्य समाज से ग्रहण किए थे। जब वहां मुसलमानों के शुद्धिकरण का प्रश्न हिंदू-मुसलिम के बीच दरार पैदा करने लगा, तो वे उससे अलग हो गए। ‘पंच परमेश्वर’ में अलग धर्मों के दो मित्रों की दोस्ती, नैतिकता और न्याय की विजय कामना कर प्रेमचंद अपने समय और समाज के नवनिर्माण का ही सपना देखा था।

आजाद देश में बेसहारा और पीड़ित वर्ग को हक और न्याय मिलना जितना जरूरी था, उतना ही हिंदू-मुसलिम का भाईचारा। प्रेमचंद के उस धर्म निरपेक्ष सपने की अहमियत आज भी कम नहीं हुई है। उन्होंने सांप्रदायिकता प्रतिरोध और हिंदू-मुसलिम एकता का प्रबल समर्थन कई लेखों, कहानियों, उपन्यासों और ‘कर्बला’ नाटक द्वारा किया। पत्रकारिता में उनका वैचारिक लेखन भी प्रेरणाप्रद है। लेखन के विविध आयामों के बीच वे मूलत: युगप्रवर्तक कथाकार थे। अपने अभावों और संघर्षों से भरे जीवन की कठिनाइयों के चलते उन्होंने जनजीवन से एकात्म बना कर साहित्य की पूंँजी कमाई। यह उनकी निष्ठा, प्रतिबद्धता और साधना की मिसाल है। देश के लिए उनके देखे सपने की आकांक्षा अभी खत्म नहीं हुई है। इसलिए प्रेमचंद का प्रासंगिक होना स्वाभाविक है। वे अपनी सर्जना और विचारों के साथ आज के संघर्षों और चुनौतियों के मार्गदर्शक हैं।

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