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मांगलिक कार्य होने वाला श्मशान घाट / संजय सिंह

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ऐसा श्मशान घाट, जहां होते हैं मांगलिक कार्य


संजय सिंह, बड़हलगंज (गोरखपुर से)
(2015)

सरयू की निश्चल और कलकल धारा ना जाने कब से बह रही है। घाट पर एक ओर करुण क्रन्दन के बीच चिताये जल रही हैं, वहीं दूसरी ओर किसी के पुत्र का मुंडन संस्कार हो रहा है। सोरहो-श्रंगार में सजी-धजी महिलाएं सोहर गा रही हैं। शिव की विशाल प्रतिमा जीवन-मरण के इस शाश्वत सत्य की गवाह है और वे मन्द-मन्द मुस्करा रहे हैं। वे महाकाल और जगत नियंता हैं। लोग वहां भय-दुख और डर से मुक्त हो चुके हैं। समाज द्वारा खींची गई जाति-पांति और धर्म की रेखाएं भी टूट रही हैं। मुस्लिम पुरुष ही नहीं बल्कि मुस्लिम महिलाएं भी इस अनूठे श्मशान घाट को देखने और वहां कुछ पल बिताने के लिए उमड़ पड़ी हैं। यह एक पर्यटक स्थल के रूप में भी विख्यात हो चुका है। 
..अरे हां, क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि श्मशान घाट में वैवाहिक कार्य भी हो सकते हैं और वहां शहनाई भी बज सकती है ! शायद नहीं ! लेकिन इस श्मशान घाट पर शहनाई भी बजती है। अभी कल (19 अप्रैल) ही तो गाजीपुर जिले के रमगढ़ टोला निवासी हीरावन की पुत्री अनीता ने देवरिया जिले के करईलवा नई बस्ती के रहने वाले राम दरश की पुत्र राजू के साथ वहां सात फेरे लिए हैं। सुन्दर और विभिन्न तरह के वृक्षों, फूल-पत्तियों से आच्छादित पार्क में शादी के लिए लड़का-लड़की का देखौनी (सगाई) कार्यक्रम चल रहा है। लड़की ने सिर पर पल्लू डाल रखा है और उसकी नजरें उठ ही नहीं रही हैं। लड़का उसे देखकर मन्द-मन्द मुस्करा रहा है। शायद शादी पक्की हो गई है। 
यह ‘मुक्तिद्वार’ है। गोरखपुर जिले के दक्षिणी सिरे पर स्थित प्राचीन उपनगर बड़हलगंज में सरयू नदी के किनारे कभी निचाट और भुतहा माने जाने वाले स्थान पर निर्मित श्मशान घाट। शायद उत्तर प्रदेश ही नहीं बल्कि देश का इकलौता अनोखा, अनूठा श्मशान घाट।  परम्पराओं और अंधविश्वासों पर प्रहार करता एक ऐसा श्मशान घाट जो गोरखपुर में ही नहीं बल्कि देश-विदेश में भी चर्चा का केन्द्र बन चुका है। एक ही विशाल परिसर में एक किनारे श्मशान घाट है। घाट पर शवों को जलाने की त्रिस्तरीय व्यवस्था है। एक तो खुले में नदी के बिल्कुल ही किनारे चबूतरों पर। फिर बरसात के मौसम में छत के नीचे बनाए गए चबूतरों पर और फिर बाढ़ के दौरान नदी के विकराल रूप धारण कर पहले मंजिल के पानी में डूब जाने के बाद दूसरी मंजिल पर। 
इस घाट पर मुक्तिपथ सेवा संस्थान द्वारा कुरीतियों और अंधविासों के खिलाफ भी लोगों को शिक्षा दी जाती है। हिंदू समाज सर्प दंश से मरने वाले, जल कर मरने वाले, चेचक से होने वाली मौत और गर्भवती महिला की मृत्यु होने पर उसके शव को सीधे नदी में प्रवाहित कर देता आ रहा है। लेकिन यहां पर उन्हें बताया जाता है कि यह एक कुरीति है और शव को ऐसे ही नदी में बहाने से नदी प्रदूषित होती है। लोगों में चेतना जागृत हो रही है। अब वे ऐसा नहीं कर रहे। 
मुक्तिपथ सेवा संस्थान ने नदी को प्रदूषण से मुक्त करने के लिए एक और प्रयास किया है। वहां शव को जलाने के लिए बायोमास गैसीफायर संयंत्र लगाया गया है। उस संयंत्र में लकड़ी एक ज्वलनशील गैस में परिवर्तित हो जाती है, जिसे प्रोड्यूसर गैस कहते हैं। इस गैस को भट्ठी में जलाया जाता है। भट्ठी का दरवाजा बन्द करके गैस को बर्नर के माध्यम से भट्ठी में जलाया जाता है ताकि भट्ठी गर्म हो जाए। उसी दौरान मृत शरीर को पांच लकड़ियों पर रखकर ट्राली में लेटाया जाता है। जो भी रीति-रिवाज है उनको ट्राली में कर लिया जाता है। इस संयंत्र में 60 से 80 मिनट में पूर्ण दहन सम्पन्न हो जाता है। भट्ठी के बीस मिनट में ठंडा होने के बाद थोड़े से बचे अवशेष को अस्थिपूजा के लिए निकाल लिया जाता है। शव जलने के दौरान जो धुंआ निकलता है उसे पानी के माध्यम से स्कैबर में छानकर चिमनी से वातावरण में छोड़ दिया जाता है। इस संयंत्र में ऐसा प्रबन्ध स्वचालित है। इस विधि में एक तो लकड़ी बहुत ही कम लगती है, जिससे अवशेष यानि कि राख और कोयले बहुत ही कम निकलते हैं और उन्हें नदी में प्रवाहित नहीं किया जाता। नदी प्रदूषित होने से बच जाती है। 
मुक्तिपथ वाले बाबा यानि कि श्री राजेश त्रिपाठी उर्फ स्वामीजी कहते हैं, ‘‘देश में यह पहला ऐसा संयंत्र है, जो यहां लगा है। यह वायु और जल को संरक्षित करता है। उत्तर प्रदेश सरकार ने मुक्तिपथ के इस प्रयोग को अपनी योजना में शामिल कर लिया है। श्री त्रिपाठी कहते हैं कि मुक्तिपथ एक जनजागरण का केन्द्र भी है। पहले लोग बायोगैस संयंत्र में शवदाह करने से कतराते थे, लेकिन उन्हें जब मोटिवेट किया गया तो समझ में आया। पहले जहां इस संयंत्र के माध्यम से दाह संस्कार करने वालों की संख्या तीन माह में एक हुआ करती थी, अब प्रतिदिन दो-तीन है। इस श्मशान घाट पर बिद्युत शवदाह गृह क्यों नहीं है ? बाबा का कहना है कि इस उपनगर में बिजली की उपलब्धता 12 घंटे से अधिक नहीं है और उसका भी कोई ठीक नहीं है कि बिजली कब आएगी और कब जाएगी, इसलिए विद्युत शवदाह गृह का विचार त्याग दिया गया।
बाबा कहते हैं कि यहां सिर्फ शवदाह ही नहीं होता बल्कि अनेक शुभकार्य जैसे- सगाई, बरक्षा, मुंडन, उपनयन संस्कार और विवाह भी होते हैं। मुक्तिपथ के निर्माण से पहले वहां आना लोगों को भयावह लगता था, अब मध्य रात्रि में भी इस उपनगर के लोग सपरिवार सैर करने के लिए आते हैं। श्मशान घाट परिसर में दूसरी ओर श्रद्धालुओं के नहाने के लिए पक्की सीढ़ियां बनाई गई हैं। वहां रेस्टोरेंट, साज-श्रंगार की दुकानों की अच्छी श्रंखला है। पूरे दिन और देर रात तक घूमने-फिरने आने वाले लोगों की भीड़ से घाट और दुकानें गुलजार रहती हैं। घाट पर नहाने वाली महिलाओं को वस्त्र बदलने के लिए कक्ष का निर्माण किया गया है। घाट पर मां सरयू मन्दिर, श्री काल भैरव मन्दिर तथा श्री भूतनाथ मंदिर भी स्थापित है।  
परिसर के एक विशाल हिस्से में पंचवटी (पार्क) है, जिसके एक सिरे पर स्मृति भवन सभागार है। इस सभागार में ही मांगलिक कार्य सम्पन्न होते हैं। पंचवटी की हरियाली और उसका रखरखाव देखते ही बनता है। वहां दुर्लभ जड़ी-बूटियों, वृक्ष-लताओं तथा फूलों का अनुपम संग्रह है। पानी का फव्वारा पंचवटी को और भी मनमोहक बनाता है। पंचवटी के प्रवेश द्वार पर ही शिव की 52 फुट ऊंची विशाल प्रतिमा है,जो एक शिलाखंड पर स्थापित है। उनकी जटा से जल का निरन्तर प्रवाह हो रहा है। शिलाखंड के नीचे एक गुफा भी बनाई गई है, जिसमें शिव की विभिन्न झांकियां हैं। वहां भारत की समस्त नदियों और तीर्थ स्थलों के जल से भरा कलश रखा हुआ है। सभागार में श्रीकृष्ण द्वारा अजरुन को गीतोपदेश देते हुए झांकी स्थापित की गई है। कर्ण की चिता अपनी हथेली पर सजाए कृष्ण की प्रतिमा है। एक पुस्तकालय भी है, जहां हिन्दू धर्म ही नहीं बल्कि सभी धर्मो से संबंधित पुस्तकें रखी हुई हैं। परिसर में एक ओर मनुष्य को आदर्श जीवन जीने हेतु प्रेरित करते शिलालेख और झांकियां हैं तो दूसरी ओर गांधी जी के तीन नहीं चार बंदर (स्टैचू) हैं। चौथा बंदर मुक्तिपथ वाले बाबा के दिमाग की उपज है, जो कि जनता को जनसंख्या नियंतण्रका संदेश दे रहा है। उसके हाथ अपने गुप्तांगों को ढके हुए हैं। कुछ पर्यटक चौथे बंदर को देख कर खूब हंस रहे हैं। 
मुक्तिपथ पर भव्य सरयू महोत्सव का वाषिर्क आयोजन किया जाता है, जिसमें हजारों लोग शिरकत करते हैं। घाट पर प्रतिदिन प्रात: 4.30 बजे से ध्यान योग शिविर लगता है। प्रत्येक दिन सूर्यास्त के वक्त मां सरयू की भव्य महाआरती की जाती है। प्रत्येक पूर्णिमा को स्मृति भवन में आध्यात्मिक प्रवचन होता है। बाबा (राजेश त्रिपाठी) कहते हैं, ‘मुक्तिपथ सर्वधर्म समभाव का भी संदेश देता है। यहां ईद के दिन एक मेला सा लग जाता है। मुस्लिम समाज के लोगों से पूरा परिसर अट जाता है। इतनी भीड़ होती है कि सुरक्षाकर्मियों को तैनात करना पड़ता है। पूर्णिमा, अमावस्या, स्वतंत्रता दिवस तथा गणतंत्र दिवस को भी वहां भारी भीड़ जमा होती है। लोग घाट पर आनन्दित होते हैं और छुट्टी का लुत्फ उठाते हैं। मुक्तिपथ देशप्रेम का भी संदेश देता है। भारत के नक्शे वाला द्वार और काफी ऊंचाई पर लहराता तिरंगा पर्यटकों को आकषिर्त करता है।

एक पत्रकार जिसने मुक्तिपथ को एक जनान्दोलन बना दिया

मुक्तिपथ के निर्माण की गाथा भी कम प्रेरणादायक और निश्छल समाजसेवा की मिशाल नहीं है। इस श्मशान घाट का निर्माण न तो शासन ने कराया है और न ही किसी ट्रस्ट या पूंजीपति ने। मुक्तिपथ का निर्माण उपनगर के एक सामान्य व्यक्ति और ब्लाक स्तर के एक पत्रकार राजेश त्रिपाठी के भगीरथ प्रयास, जिद, जुनून, लगन और निष्ठा का प्रतिफल है, जिन्होंने भिक्षाटन कर इस श्मशान घाट का निर्माण कराया। जो कि अब एक सिर्फ श्मशान घाट ही नहीं बल्कि एक पर्यटक स्थल के रूप में भी विख्यात हो चुका है और श्री त्रिपाठी मुक्तिपथ वाले बाबा के नाम से लोकप्रिय हो चुके हैं। गोरखपुर जिले के दक्षिणांचल में स्थित बड़हलगंज एक ब्लाक स्तरीय कस्बा है, लेकिन काफी समृद्ध है और प्राचीन बाजार है। सरयू नदी के तट पर स्थित इस कस्बे के बाहर कस्बे और आसपास के गांव के लोग नदी तट पर जहां दाह संस्कार किया करते थे, वहां न तो शेड था और न ही कोई वृक्ष। तट भी समतल नहीं था। नदी काफी नीचे थी, और तट काफी ऊंचाई पर और बिल्कुल खड़ा था। बरसात में तो शवदाह क्रिया करना बहुत ही दुष्कर कार्य हो जाता था, क्यों कि नदी अपने ऊफान पर होती थी और चिता बनाने के लिए जगह भी समतल नहीं मिल पाती थी। राजेश त्रिपाठी कहते हैं, ’वहां शव जलाने की कोई व्यवस्था नहीं थी। सूअर और कुत्तों का इतना आतंक था कि वे शव पर रखी हुई खाद्य सामग्री के लिए टूट पड़ते थे। बरसात में अधजली शव छोड़कर लोग चले जाचे थे और कुत्ते नोच नोच कर खाते थे। एक दिन मैं अपने किसी परिचित के जवान बेटे की अकाल मृत्यु पर उसके दाह संस्कार में शामिल होने घाट पर गया। बरसात का मौसम था और नदी में बाढ़ आई हुई थी। कीचड़ होने की वजह से शव जलाने की कोई जगह नहीं मिल पा रही थी। ऊपर से बारिश थी कि थमने का नाम ही नहीं ले रही थी। लम्बे इंतजार के बाद बारिश थमी तो चिता सजाई गई। शव को चिता पर लेटाया गया और जैसे ही धार्मिक अनुष्ठान शुरु हुए कि कुत्तों और सूअरों का झुंड शव पर कूद पड़ा। उन्हें भगाने के चक्कर में चिता पलट गई और विकराल धारा में शव विलीन हो गया। जवान बेटे की मृत्यु से शोकाकुल परिवार इस घटना से और भी दुख की दरिया में डूब गया। उसी दिन मैंने संकल्प लिया कि मैं जन-जन के सहयोग से इस स्थान पर ऐसा घाट बनावाऊंगा कि दुख की इस घड़ी में लोगों को और भी दुख न झेलना पड़े। लेकिन जब दोस्तों और लोगों के बीच मैंने अपनी इस सोच को प्रकट किया तो ज्यादातर लोगों ने मेरा मजाक उड़ाया।
वह कहते हैं, ‘‘शुरु में हम और मेरे कुछ मित्र इस कार्य के लिए स्थानीय बाहुबली विधायक और तत्कालीन मुलायम सरकार में मंत्री के पास गए और श्मशान घाट के निर्माण के लिए उनसे मदद मांगी। उन्होंने मना कर दिया। फिर हमनें प्रेस क्लब, बड़हलगंज के मित्रों से सहयोग मांगा। उन लोगों ने भी मजाक उड़ाया। बोला कि यह डोम का काम है। हम निराश नहीं हुए। नगर के व्यापार मंडल के व्यापारी मित्रों के समक्ष उसका प्रस्ताव रखा। कुछ मित्रों ने सपोर्ट किया कि यह बनना चाहिए। थोड़ उत्साह बढ़ा और व्यापार मंडल तथा समाज के विभिन्न क्षेत्रों से बीस लोगों की एक टीम बनी इस कार्य को आगे बढ़ाने के लिए। नाम दिया गया मुक्तिपथ और शिलान्यास की तिथि भी तय कर ली गई। सोचा कि स्थानीय विधायक से शिलान्यास करा लिया जाय। लेकिन वे इसके लिए भी तैयार नहीं हुए। कुछ मित्रों के सलाह पर शिलान्यास के लिए समाजसेवी नानाजी देशमुख को बुलाने के लिए चित्रकूट पहुंचा। 3 सितम्बर 2001 को उनके करकमलों से मुक्तिपथ की आधारशिला रखी गई। कार्यक्रम के दौरान जमकर बारिश हुई। नानाजी समेत उपस्थित तकरीबन ढाई हजार लोग भीग गए, लेकिन वहां से हटे नहीं। वहां पास में ही जल रही एक चिता बारिस के चलते बुझ गई। इसे देख नानाजी द्रवित हो गए। उन्होंने (नानाजी ने) रूंधे गले से घोषणा की कि मुक्तिपथ का निर्माण जरूर कराना है। उनके इस आह्वान और बारिस से उत्पन्न स्थिति ने लोगों ने भावनात्मक लगाव पैदा किया। शिलान्यास के पहले एमएलसी देवेन्द्र सिंह ही एक ऐसे जनप्रतिनिधि थे,जिन्होंने मुख्य मार्ग से मुक्तिपथ शिलान्यास स्थल तक अपने विधायक निधि से सड़क का निर्माण कराया। पहले कच्ची यानि कि मिट्टी की सड़क थी, जिस पर बरसात में चलना दूभर हो जाता था। शिलान्यास के बाद काम शुरू करने के लिए शुरुआत में तीन-चार लाख Rs की जरूरत पड़ी। चंदे के लिए हमने दक्षिणांचल के गांवों का रुख किया। भ्रांतियों के चलते कोई चंदा देने को कोई तैयार नहीं था। लोगों ने इसे गंभीरता से नहीं लिया। लोगों में यह अंधविास प्रबल था कि श्मशान घाट के लिए चंदा देना अशुभ होता है।  
उसके बाद हमनें तय किया कि पहले हमारी बीस लोगों की टीम से प्रत्येक व्यक्ति पांच-पांच हजार Rs दे तो एक लाख रुपये इकट्ठे हो जाएंगे और कुछ काम हो जाएगा तो लोगों का हमारे प्रति विास बढ़ेगा और लोग चंदा देंगे। लेकिन हमारे कुछ साथियों के पास पांच हजार रुपये भी नहीं थे तो उन्होंने सौ रुपये माह किश्त पर देना शुरू किया। इस पैसे से वहां चबूतरा बना। तब तक चिल्लूपार विधानसभा क्षेत्र (चिल्लूपार बड़हलगंज कस्बे में समाहित एक गांव है, जिसमे नाम पर यह विधानसभा क्षेत्र है) में हमारे कार्य की चर्चा हो गई थी और लोगों में मैं चर्चा का विषय बन गया था। भोर में हम लोग भिक्षाटन के लिए निकल जाते.। कभी पूरे दिन मशक्कत के बाद सौ रुपये मिलते। किसी दिन पांच सौ मिल जाते तो बड़ी खुशी होती। जैसे जैसे काम बढ़ता गया ..मुक्तिपथ एक जनान्दोलन का रूप लेता गया। मैंने संकल्प किया था कि जब तक यह कार्य पूरा नहीं हो जाएगा मैं न तो बाल बनवाऊंगा और न ही दाढ़ी। मैंने सिर पर कफन बांध लिया। सफेद वस्त्र- कुर्ता धोती धारण कर लिया। साल-दर साल दाढ़ी लम्बी होती चली गई तो मुझे लोगों ने मुक्तिपथ वाले बाबा के नाम से बुलाना शुरू कर दिया। भिक्षाटन करते-करते मैं थाइलैंड और सिंगापुर पहुंच गया। वहां गोरखपुर के इस इलाके के हजारों लोग काम करते हैं। उन लोगों ने दिल खोलकर चंदा दिया। तकरीबन एक दशक में मुक्तिपथ ने विशाल रूप ले लिया। ओैर काम अभी भी जारी है। मुक्तिपथ आंन्दोलन की जब शुरूआत हुई थी तो हमनें इसके रूप की कोई कल्पना नहीं की थी। सोचा था कि 4-5 लाख से एक शेड का निर्माण हो जाएगा तो ठीक रहेगा। लेकिन नियति को कुछ और भी मंजूर था। यह इतना विशाल रूप ले लेगा..हमने इसकी कल्पना भी नहीं की थी। अब तक मुक्तिपथ पर करोड़ों रुपये खर्च हो चुके हैं। 
हां.. इस आन्दोलन (मुक्तिपथ) के दौरान मेरी भाग्य रेखा भी टर्न ले रही थी। गांव-गांव में चंदा मांगते जब लोगों से मिलता था तो लोगों ने मुझ पर विधानसभा का चुनाव लड़ने के लिए दबाव बनाना शुरू किया। मैं इसे इग्नोर करता था। लेकिन लोग दिल से मुझे चाह रहे थे। वे कह रहे थे आप लड़िये हम तन-मन-धन से मदद करूेंगे। उस समय वहां के विधायक हरिशंकर तिवारी थे, जो कि बाहुबली ही नहीं हैं बल्कि उस वक्त मुलायम सिंह सरकार में मंत्री भी थे। ऐसे ही एक दिन बहन जी (बसपा सुप्रीमो मायावती) का बुलावा आ गया। उन्होंने मुझसे हरिशंकर तिवारी के खिलाफ लड़ने का प्रस्ताव रखा। उस वक्त जनता की आकांक्षा की भी सुधि आई। मैंने हामी भर दी। मेरी मां-बाप, रिश्तेदार,पत्नी कोई नहीं चाहता था कि मैं चुनाव लड़ूं। चुनाव  लड़ने पर मेरी जान को खतरा था। लेकिन सिर पर कफन तो मैंने पहले ही बांध रखा था। डरा नहीं। बसपा के टिकट पर लड़ा और जीत गया। मायावती मुख्यमंत्री बनीं। मुझे भी मायावती कैबिनेट में जगह मिली। पिछले चुनाव में भी मैंने इस सीट पर अपना कब्जा बरकरार रखा है। मौजूदा समय में चिल्लूपार का मैं विधायक जरूर हूं। लेकिन मैं इससे ज्यादा कहीं मुक्तिपथ वाला बाबा हूं।

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