हरि अनंत, हरि भाई अनंता
आलोक यात्री
हम दोनों के बीच ताल्लुक पुराना है। मेरे और उनके बीच जो ताल्लुक पनपते-पनपते पुख्ता हो गया, ऐसा ताल्लुक बनता कैसे है? यह बात आज भी समझ से परे है। उनके साथ अपने संबंधों के आधार पर मैं यह बता सकता हूं कि उपयोगिता विहीन अमरबेल किसी वृक्ष से प्रगाढ़ता स्थापित क्यों और कैसे कर लेती है?
असल में पहले दिन से ही अपने हाव, भाव, अनुभाव से वह मुझे किसी ऊंची पहाड़ी पर बने मंदिर के शिखर से नजर आते थे। पत्रकारिता की शाख पर मैं कोंपल सा फूट रहा था और अदीबों की जमात में वह महाकाय वृक्ष के रूप में गहरे धंसे हुए थे। तीस साल पुराना रिश्ता घिसते-घिसते आज टंगडीबाजी तक जा पहुंचा है
उनसे पहला रिश्ता (इकतरफा प्रेम की मानिंद) तब बना जब वह अमर उजाला मेरठ संस्करण में आए आए थे
उनसे दूसरा रिश्ता तब बना जब उनका विवाह हमारे साथ हिन्ट (गाजियाबाद से प्रकाशित अखबार) में हमारी सहयोगी पत्रकार ऋचा अग्रवाल जी के साथ हुआ
प्रत्यक्ष तौर पर हम दोनों का एनकाउंटर मेरे, या पिताश्री के, या हम दोनों के मुजफ्फरनगर गमन के दौरान अमर उजाला मेरठ कार्यालय में ही होता था
जहां आदरणीय श्री योगेन्द्र कुमार लल्ला जी, श्री सूर्यकांत द्विवेदी जी, श्री नरेन्द्र निर्मल जी, श्री अरुण नैथानी जी के दर्शनों का लाभ रुंगे के रूप में होता था
महाराजाधिराज तब भी ऐसे ही औघड़नाथ थे आज भी वैसे ही औघड़ बसंत हैं
आप कुछ समझे... किसका जिक्र कर रहा हूं मैं...
जी हां! भाई श्री हरि जोशी जी का
पत्रकारिता के क्षेत्र में मेरे प्रथम गुरुओं में पेज मेकर और मशीनमैन ही थे
जो बातचीत में यह अक्सर "डिस्टीफाई"शब्द का प्रयोग करते हुए कहा करते थे कि इस पेज की डिस्टीफाई गड़बड़ है
जिसके बाद लकड़ी के गुटके और हथौड़े से पेज की तबीयत दुरुस्त कर उसे चैंडर मशीन पर छपने लायक बनाया जाता था। अन्यथा चलती मशीन से पेज जिसे फर्मा बोलते थे, के गिरने की संभावना बनी रहती थी। मुझे लगता है फर्माबर्दार शब्द की उत्पत्ति अखबार के फर्मे से ही हुई है। मेरे फर्माबर्दार बनने में भी कहीं न कहीं डिस्टीफाई शब्द ने भरपूर भूमिका निभाई है
तो पाठकों... यह जो मैंने डिस्टीफाई शब्द की इतनी लंबी चौड़ी व्याख्या की है इसका लब्बो लुबाब यह है कि अपने हरि भाई की डिस्टीफाई को लेकर मैं शुरू में खासा कंफ्यूज रहा।
अपने केबिन में बैठ कर हरि भाई जिस खांटी भाषा में लोगों से बात करते थे उसे सुनकर मैं हमेशा इस खतरे से घिरा रहता था कि देर सबेर उनका गांडीव मेरा भी रुख करेगा
असल में पत्रकारिता के मेरे शैशव काल में पहले उस्ताद विनय संकोची ने मुझे पत्रकारिता सिखाने में इतने प्यालों की बली दी थी कि मुझे लगने लगा था कि मेरी भी डिस्टीफाई गड़बड़ है और ठोकने-पीटने से मैं दुरुस्त होने वाला नहीं हूं
मुझे याद है है कि चाय के साथ जितने प्याले आते थे उतने कभी वापस गए नहीं। संकोची भाई को चाय के दाम के अलावा फोड़े गए प्यालों के पैसे भी चुकाने पड़ते थे। जिसकी वजह से मेरे भीतर यह धारणा घर कर गई थी कि मेरी डिस्टीफाई भी गड़बड़ है। और हरि भाई के सामने जाते ही यह यकीन और पुख्ता हो जाता था
अमर उजाला में सारा काम ऑफसेट के अनुरूप होता था, कंपोज होकर फर्मा बनाने की कोई सूरत नहीं थी। लेकिन अपनी गड़बड़ डिस्टीफाई का क्या करता
हरि भाई की प्रतिभा का जितना मैं बचपन में कायल था उतना ही आज भी हूं। बचपन माने पत्रकारिता में जब मैं घुटनों के बल चलना सीख रहा था
हरि भाई मेरे पहले नायक थे। जो आज भी हैं
मेरा सौभाग्य रहा कि मुझे देश के तमाम बड़े और दिग्गज पत्रकारों/ संपादकों के सानिध्य में काम करने का अवसर मिला
उन्हीं में से एक हैं माननीय श्री रमेश नैयर जी आजकल रायपुर में हैं। वह भी मेरे नायकों में शुमार हैं
श्री अजय उपाध्याय जी के नाम से कौन परिचित नहीं है। सक्रिय पत्रकारिता के अंतिम दौर में उनका भी सानिध्य मिला। वह लंबा तो नहीं चला लेकिन वह भी मेरे नायकों में शामिल हैं
तो... बात चल रही थी शब्द "डिस्टीफाई"की
मुझमें जो थोड़ा बहुत अनुशासन आया है उसकी वजह शायद प्रलयंकर और हिन्ट अखबार के फोरमैन ही थे, जो ठोक-पीट कर पेज के फर्मे की "टेढ" (टेढापन) दूर करते थे। यानी पेज की डिस्टीफाई दुरुस्त करते थे
तो किस्सा ए कोताह यह है कि मेरठ आते-जाते जब भी मैं मोहकमपुर उतरूं हरि भाई की भी डिस्टीफाई पर ही ग़ौर फरमाता रहूं। यही सोचूं कि ऊपर वाले ने इन्हें कौन से सांचे में डाल कर तैयार किया है। अपने आप में पत्रकारिता की चलती फिरती यूनिवर्सिटी हुआ करते थे हरि भाई
यह मेरा दुर्भाग्य रहा कि मुझे इस यूनिवर्सिटी में कभी एडमिशन नहीं मिल पाया
भाई राजेश रपरिया जी के रहते ऐसा एक अवसर आया भी लेकिन कंप्यूटर संचालन में अंगूठा टेक होने की वजह से मैं उस सौभाग्य से भी वंचित हो गए
अलबत्ता अलंबरदारों को छापने वाले जोशी भाई ने मेरी एक कविता "टोपियों का अभिनंदन"को अपने परिशिष्ट में स्थान दिया तो हमारे बीच की लक्ष्मण रेखा भी खुद-ब-खुद मिट गई
इसके बाद उन्हें एक आर्टिकल भेजा
जो "इलैए"मैगजीन के संपादक जीन डॉमनिक बाॅबी और उसकी किताब "द बटर फ्लाई इन डाइविंग सूट"से जुड़ा हुआ था
अमर उजाला में वह भी सलीके से छप गया तो कांफिडेंस वापस लौटा
एक दिन हरि भाई ने डिस्टीफाई का भेद खोला। असल में यह शब्द फर्मे के जस्टिफिकेशन से जुड़ा था। जिसे फोरमैन और मशीनमैन स्केल से फर्मे को नापते हुए उसकी गुणवत्ता की घोषणा करते थे। हरि भाई के जस्टिफिकेशन में हमने अपने गड़बड़ डिस्टीफिकेशन के बारे में पूछा तो बताया कि फिलहाल चवन्नी हो, जल्दी ही अट्ठन्नी बन जाओगे। ऐसे ही चलते रहे तो रुपए पर रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की मोहर भी पक्की...
खैर... खुदा गंजे को नाखून नहीं देता है। मैं इस यूनिवर्सिटी का स्टूडेंट होता तो पता नहीं अंजाम क्या होता? अलबत्ता हुआ यह कि मेरा ट्रैक बदल गया और अपन दैनिक जागरण की दैनिक यात्रा के यात्री हो गए। इस दौरान हरि भाई अपने रस्ते और हम अपने रस्ते चलते रहे। चलते-चलते हरि भाई रिटायर हो कर परम सुख की अवस्था में पहुंच चुके थे और मैं भी सक्रिय पत्रकारिता का विदाई गीत गा चुका था
कि अचानक हम दोनों की मुठभेड़ चित्रा मुद्गल जी के दिल्ली मयूर विहार स्थित आवास पर हो गई
हम दोनों ही अवध नारायण मुद्गल जी को अलग-अलग श्रद्धांजलि देने गए थे
मुद्गल जी तो इहलोक की यात्रा समाप्त कर परलोक गमन कर गए। लेकिन उस दिन से हम दोनों एक ऐसे अदृश्य सूत्र में बंधे कि यह रिश्ता कब चुहलबाज़ी तक जा पहुंचा पता ही नहीं चला
हम दोनों की जोड़ी भी सलीम जावेद, शंकर जयकिशन जैसी है
हरि भाई चुहलबाज़ और मैं टंगड़ीबाज़
आए दिन उन्हें टंगड़ी मारता रहता हूं
यह हौसला उन्हीं का दिया हुआ है
वर्ना आगरे के इस बांके को कोई टंगड़ी मार सके है क्या...?
हरि भाई के जिगरे का जवाब नहीं
पिछले करीब दस सालों से दिन, दोपहर, शाम, रात यानी बिन बादल बरसात की तरह हमें झेल रहे हैं
अब ताजा मसला ही ले लीजिए
एक हफ्ते से इनकी तलाश में सारे कुओं में बाल्टी लटका ली। खूब घंटी मारी, दनादन मैसेज ठोके तो जवाब आया "सैन्य क्षेत्र में हूं, सिग्लन न के बराबर हैं"
हमारी समझ में माजरा ही नहीं आया
राफेल विमान तो अपने ठिकाने पर पहुंच गए, फिर हरि भाई सैन्य क्षेत्र में क्या कर रहे हैं?
जैसे-तैसे नेटवर्क की डिस्टीफाई दुरुस्त करके खैरियत मालूम की तो हरि भाई का संदेश आया "उनके लिए मच्छरदानी सिल्वा कर लाया हूं..."
पूछो कोई इस भले आदमी से सैन्य क्षेत्र में गए ही थे तो कोई तोप, टैंक ही ले आते
"सब जो गए बाग मेरा बुड्ढा भी चला गया,
सब तो लाए फूल बुड्ढा गोभी लेकर आ गया..."
गीत गाती वैजयंती माला याद आ रही हैं
बहुत हो गई टंगड़ी... मेरी डिस्टीफाई की ठोक पीट की संभावना फिलहाल इसलिए नहीं है क्योंकि हरि भाई चश्मे की दुकान पर बैठे ऐनक दुरुस्त करवा रहे हैं
मेरे फ़ोन की घनघनाहट ने हरि भाई की डिस्टीफाई ऐसी बिगाड़ी कि चश्मा हाथ से छूटकर कार के पहिए के नीचे आकर धराशाई हो गया
अभी ऋचा जी हरि भाई की डिस्टीफाई दुरुस्त कर रही हैं कि इतना महंगा चश्मा (बकौल हरि भाई, जो दहेज में मिला था) कैसे तोड़ दिया?
हरि भाई की हरि मिर्च, नींबू, कद्दू प्रेम की कथा फिर सही, फिलहाल कहा-सुना माफ