Quantcast
Channel: पत्रकारिता / जनसंचार
Viewing all articles
Browse latest Browse all 3437

रवि अरोड़ा की नजर से...

$
0
0

 दुआ देने वालों का टोटा

रवि अरोड़ा

पाकिस्तान की मशहूर फ़िल्म है- बोल । इस फ़िल्म में एक हकीम के यहाँ पाँच बेटियों के बाद एक और बच्चा पैदा होता है मगर दुर्भाग्य से वह हिजड़ा यानि किन्नर है । यह बात हिजड़ों के गुरु को पता चलती है और वह उस बच्चे को लेने हकीम के पास आता है और बेहद ख़ूबसूरती से कहता है कि जनाब ग़लती से हमारी एक चिट्ठी आपके पते पर आ गई है , बराए मेहरबानी आप हमें वह लौटा दें । हकीम बच्चा गुरु को नहीं देता और डाँट कर भगा देता है । हकीम उस बच्चे को बेटे की तरह पालता है मगर क़ुदरत अपना काम करती है । बच्चा बड़ा होता है और उसकी शारीरिक संरचना और हाव भाव से ज़ाहिर होने लगता है कि वह पुरुष नहीं ट्रांस जेंडर है । इस पर लोक लाज के चलते हकीम अपने उस बेटे का क़त्ल कर देता है और बाद में हकीम की ही बड़ी बेटी उसकी भी हत्या कर देती है । हालाँकि यह फ़िल्म किन्नरों पर न होकर समाज में महिलाओं की विषम परिस्थितियों पर है मगर किन्नर वाला विषय भी इस फ़िल्म में बेहद संजीदगी से चला आता है । मेरा दावा है कि इस फ़िल्म को देखने के बाद आपको किन्नरों से प्यार हो जाएगा और यदि नहीं भी हुआ तब भी किन्नरों को लेकर आपके मन में जमी बर्फ़ ज़रूर कुछ पिघलेगा । आज अख़बार में एक अच्छी पढ़ी कि प्रदेश की योगी सरकार ने राजस्व सहिंता विधेयक के ज़रिये ट्रांस जेंडर को भी परिवार का सदस्य माना है और पारिवारिक सम्पत्ति में भी उनको अधिकार दे दिया है । इस ख़बर को पढ़ने के बाद आज बोल फ़िल्म बहुत याद आई । 


यह बात समझ में नहीं आती कि जिन तीसरे लिंग वाले लोगों का ज़िक्र रामायण और महाभारत जैसे ग्रंथों में बड़े सम्मान से किया गया हो , बाद में उनका यह हश्र कैसे हो गया कि सदियों तक उनकी ख़ैर-ख़बर भी किसी ने नहीं ली ?  एसा कैसे हुआ कि राजा-महाराजा, बादशाह और नवाबों के हरम की रखवाली जैसा महत्वपूर्ण काम जिन्हें मिला हुआ था उन्हें अब नाच-गाकर अथवा सड़कों पर भीख माँग कर गुज़ारा करना पड़ता है ? शायद यह कुरीति भी अंग्रेज़ों की देन हो । वही तो इन्हें अपराधी, समलैंगिक, भिखारी और अप्राकृतिक वेश्याओं के रूप में चिन्हित करते थे । पुलिस के मन में किन्नरों के प्रति नफ़रत का बीज भी शायद अंग्रेज़ ही बो गए थे । शुक्र है कि अब पिछले कुछ दशकों में तमाम सरकारें और अदालतें किन्नरों के प्रति संवेदनशील हो गई हैं और एक के बाद एक किन्नरों के हित में आदेश पारित हो रहे हैं । अवसर मिलना शुरू हुआ है तो किन्नरों ने भी अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करके दिखाया है । आज किन्नर जज, राजनीतिज्ञ, पत्रकार, लेखक, शास्त्रीय गायक और लेखक भी बन रहे हैं । कई किन्नर उच्च पदों तक भी पहुँच गये हैं । अन्य सरकारी नौकरियों के साथ साथ बीएसएफ, सीआरपीएफ और आईटीबीटी जैसे सुरक्षा बलों में भी अब केंद्र सरकार इनकी भर्ती शुरू करने जा रही है । ज़ाहिर है कि समाज का थोड़ा बहुत नज़रिया बदलने भर से ही यह सम्भव हुआ है । 


कहते हैं कि भारतीय समाज में सुधारों की गति सदा से ही बेहद धीमी रही है । अब देखिये न कि सुप्रीम कोर्ट ने 2014 में ही किन्नरों को तीसरे लिंग के रूप में मान्यता देते हुए उनके लिये देश भर में अलग से वॉश रूप बनाने के आदेश दिए थे मगर आज तक केवल एक एसा पेशाब घर मैसूर में ही बन सका है । किन्नरों को पैतृक संपत्ति में हिस्सा देने का आदेश बेशक अब पारित हो गया है मगर भारतीय समाज में जब आज तक महिलाओं को ही बराबर की हिस्सेदारी नहीं मिली तो एसे में किन्नरों को उनका हक़ मिलेगा , यह उम्मीद कैसे की जा सकती है । साल 2011 की जनगणना के अनुरूप देश में मात्र 4 लाख 88 हज़ार किन्नर थे । उनमे से भी 28 फ़ीसदी केवल उत्तर प्रदेश के निवासी हैं । एक सर्वे के अनुसार एक छोटे से आपरेशन के बाद इनमे से आधे किन्नरों को स्त्री अथवा पुरुष बनाया जा सकता है । छत्तीसगढ़ के समाज कल्याण विभाग ने एसा प्रयोग शुरू भी किया है । यह काम अन्य राज्य भी करें तो न जाने कितने परिवार बोल फ़िल्म की तरह बिखरने से बच जायें । कैसी विडम्बना है कि दूसरों को जम कर दुआएँ देने वालों को ख़ुद दुआ देने वालों का बेहद टोटा है ।


: एनिमल चैनल


रवि अरोड़ा 

टीवी पर अक्सर एनिमल चैनल देखता हूँ । वहाँ जानवरों के जीवन के अतिरिक्त अनेक कार्यक्रम शिकार सम्बंधी भी होते हैं । शेर अथवा कोई हिंसक जानवर जब अपने किसी शिकार पर हमला करता है तो उस समय शिकार के साथी और सगे सम्बंधी दूर खड़े चुपचाप तमाशा देखते रहते हैं । हिंसक जानवर जब अपने शिकार को नोंच रहा होता है , आश्चर्यजनक रूप से उस समय स्वयं शिकार भी ख़ामोशी से अपनी हत्या होते देखता रहता है और मुँह से कोई आवाज़ नहीं करता । कहावत है कि क़ुदरत की लाठी बेआवाज़ है । शायद यह बात सही भी हो मगर यह बात तो यक़ीनन दुरुस्त है कि निरीह की चीत्कार अवश्य ही बेआवाज़ है । उसके रुदन की कोई गूँज नहीं होती । उसकी आह भी ध्वनि रहित होती है । तथाकथित हमारे समाज के जंगल में विचरण कर रहे निम्न मध्यम और मध्यम मध्यम वर्ग के लोग भी मुझे उसी निरीह जैसे ही लगते हैं , जिनकी आह में कोई आवाज़ नहीं होती और बुरी तरह नुँच जाने के बावजूद वे ख़ामोश ही रहते हैं । 


एक पुराने कर्मचारी का सुबह फ़ोन आया । उसे अपने बैंक का एक मैसेज मिला था और उसी संदर्भ में वह जानना चाह रहा था कि क्या वाक़ई पिछले छः महीने से मिल रही किश्त जमा करने की बैंकों की छूट अब ख़त्म हो रही है ? बैंक का मैसेज तो हालाँकि यही है कि सभी प्रकार के लोन सम्बंधी मोरेटोरियम सुविधा अगस्त में ख़त्म हो रही है और पहली सितम्बर से सभी को बैंक की किश्त देनी पड़ेगी मगर फिर भी मैंने उसे तसल्ली दी कि अभी सरकार ने एसा कोई आदेश नहीं दिया है । हालाँकि मैं जानता हूँ कि अब मोरेटोरियम की सीमा बढ़ने की कोई उम्मीद नहीं है । सरकार और आरबीआई ने बड़े उद्योगपतियों के साथ सलाह मशविरा कर लगभग एसा मन बना लिया है । वैसे यह बात मेरी समझ में नहीं आई कि देश में जिन दो करोड़ लोगों की नौकरी गई और जिन पाँच करोड़ से अधिक लोगों की तनख़्वाह अथवा काम धंधे की कमाई आधी रह गई , इस फ़ैसले में उनकी बजाय राय उद्योगपतियों से क्यों नहीं ली गई ? कोरोना संकट में बेशक करोड़ों लोगों की माली हालत पतली थी मगर फिर भी मकान की किश्त, कार-स्कूटर की किश्त, एजूकेशन लोन, पर्सनल लोन, क्रेडिट कार्ड के भुगतान का कम से कम दबाव नहीं था अतः गाड़ी जैसे तैसे खिंच ही रही थी । बच्चों की स्कूल की फ़ीस और बिजली के बिलों को लेकर भी कोई विशेष संकट नहीं था मगर अब चहुँओर से दबाव शुरू हो गया है । करोड़ों लोगों की तीन चौथाई कमाई तो बच्चों की स्कूल फ़ीस और मकान-वाहन की किश्त में ही खप जाती है । क़ायदे से तो कोरोना का असली आर्थिक संकट अब पहली सितम्बर से उन्हें झेलना पड़ेगा । एविएशन, टूरिज़्म, हॉस्पिटैलिटी और ट्रांसपोर्ट जैसे सेक्टर से जुड़े लाखों लोग तो शायद धराशायी ही हो जाएँगे । 


वर्ल्ड बैंक कह रहा है कि भारत में गम्भीर आर्थिक संकट है । आरबीआई कह रही है 2020-21 में जीडीपी नेगेटिव में रहेगी । सरकार ने अनेक योजनाओं की घोषणा भी की मगर बैंकों ने उसे पलीता दिखा दिया । बैंकों ने अपनी तरफ़ से इतनी शर्तें लगा दीं कि बीस फ़ीसदी सरकारी घोषणाओं पर भी अभी तक अमल नहीं हुआ । सरकार ने जो मोरेटोरियम की सुविधा दी उसे भी अब ब्याज सहित लोगों को चुकाना है । इस मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट भी तीखी प्रतिक्रिया दे चुका है । उधर अर्थशास्त्री बार बार एक ही बात कह रहे हैं कि इकोनोमी को बचाना है तो ग़रीब आदमी में हाथ में पैसा देना होगा मगर ग़रीब को पैसा मिलना तो दूर अब एक सितम्बर से उसकी जेब और ख़ाली करने की तैयारी है । उम्मीद थी कि कम से कम दिसम्बर तक किश्त जमा करने की छूट मिलेगी मगर एसा होता नहीं दिख रहा । कमाल की बात यह है कि इतना बड़ा फ़ैसला हो रहा है मगर कहीं कोई आवाज़ नहीं हो रही । किसी ग़रीब, किसी मध्यम वर्गीय आदमी की कोई आह सुनाई नहीं दे रही जबकि करोड़ों लोग अब इस परिस्थिति का शिकार होंगे । आइये आप भी इस एनिमल चैनल को देखिये और निरीह लोगों के यूँ ख़ामोशी से शिकार होने के गवाह बनिए ।


Viewing all articles
Browse latest Browse all 3437

Trending Articles



<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>