नसीराबाद से बजा था बिगुल, 1857 की पहली जंगे आजादी का
यहां आजादी का परचम लहराने की पहल 15 वीं बंगाल नेटिव इन्फैंट्री के सैनिकों ने की। इन सैनिकों ने नसीराबाद के अंग्रेज बंगलों तथा सार्वजनिक भवनों को लूट लिया और उनमें आग लगा दी। यहां तक कि फर्स्ट बॉम्बे कैवलरी दल ने भी अपने अंग्रेज अधिकारियों से सहयोग नहीं किया और भारतीय सैनिकों के विरुद्ध कोई कार्रवाई करने से इन्कार कर दिया। जबकि इस दल के सिपाहियों ने यूरोपीय महिलाओं और बच्चों की उस समय सुरक्षा व्यवस्था की जब वे ब्यावर की ओर जा रहे थे। दो अंग्रेज अधिकारी मारे गये और तीन घायल हो गये।
अंग्रेज लेखक इल्तुदूस थामस प्रिचार्ड ने पुस्तक "म्यूटिनीज इन राजपूताना" (1860) में लिखा है कि नसीराबाद के सिपाहियों ने जब विद्रोह किया तब बम्बई की घुड़सवार सवार-सेना ने उनसे युद्व करने से इंकार कर दिया। उसके हिसाब से दोनों में पहले से कोई समझौता हो चुका था। बंबई की सेना में अवध के सिपाही भी थे लेकिन वे उसका एक हिस्सा ही थे। उसमें गैर-हिन्दुस्तानी भी थे और उन्होंने हिन्दुस्तानियों की सहायता की।
इस प्रकार, नसीराबाद स्वतन्त्रता सेनानियों के हाथ में चला गया। दूसरे दिन आजादी के सिपाहियों ने नसीराबाद छावनी को लूट दिल्ली का मार्ग लिया।
इतिहासकार सुंदरलाल अपनी प्रसिद्व पुस्तक "भारत में अंगरेजी राज" (द्वितीय खंड) में लिखते है कि देसी सिपाहियों के नेता दिल्ली सम्राट के नाम पर नगर के शासन का प्रबंध करके खजाना, हथियार और कई हजार सिपाहियों को साथ लेकर दिल्ली की ओर चल दिए।
इन आजादी के दीवाने सैनिकों का पीछा मारवाड़ के एक हजार प्यादी सेना ने किया जिसका नेतृत्व अजमेर का असिसटेन्ट कमिशनर लेफ्टिनेन्ट वाल्टर और मारवाड़ का असिस्टेंट जनरल तथा लेफ्टिनेन्ट हीथकोट और एन्साईन बुड कर रहे थे। लेकिन पीछा करने वाली सेना को कोई सफलता नहीं मिली। प्रिचार्ड के अनुसार, विद्रोही सिपाहियों से लड़ने के लिए जब जोधपुर और जयपुर दरबारों के दस्ते आये (अंग्रेजों के नेतृत्व में राजस्थान में रहने वाली देशी पलटनों से ये भिन्न थे), तब उन्होंने लड़ने से इंकार कर दिया। उन्होंने इस बात को छिपाया नहीं कि उनकी सहानुभूति विद्रोहियों के साथ है क्योंकि उन्हें ऐसा विश्वास हो गया था कि ब्रिटिश लोग उनके धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप कर रहे थे।
जिस असाधारण तेजी से आज़ादी की सिपाही दिल्ली की ओर बढ़ रहे थे इसका एक कारण नसीराबाद की विद्रोह पूर्ण घटना भी थी। डब्ल्यू. कार्नेल, जो उस समय अजमेर में सुरक्षा का सैन्य अधिकारी था जब अजमेर पर आक्रमक कार्रवाई की गयी थी, अंदर-बाहर के खतरों के बावजूद दिन रात जागते हुए तेजी से आगे बढ़ रहा था। उस समय वह काफी हताश भी था। उसने जोधपुर के महाराजा द्वारा भेजी गई विशाल सेना को भी अजमेर में रहने की अनुमति नहीं दी। उस समय अजमेर-मेरवाड़ा का कमिशनर कर्नल सी. जे. डिक्सन था।
जबकि दूसरी तरफ, अजमेर की स्थिति का लाभ न उठाकर आज़ादी के सिपाहियों की सेना तेजी से दिल्ली की ओर बढ़ती ही चली गयी। जबकि अंग्रेज अजमेर की हर कीमत पर रक्षा करने को तत्पर थे क्योंकि वह राजपूताने के केन्द्र में स्थित था तथा सामरिक दृष्टि से भी उसकी स्थिति काफी महत्वपूर्ण थी। यदि वह स्वतंत्रता सेनानियों के हाथ में चला जाता तो अंग्रेज हितों को भारी आघात लग सकता था क्योंकि अजमेर में भारी शस्त्रागार, खजाना और अपार सम्पदा मौजूद थी। यही कारण है कि स्वयं जार्ज लारेंस किले की मरम्मत करवाने तथा छह माह की रसद इक्ट्ठा करने में प्रयत्नशील रहा। इस प्रकार के प्रबन्ध से अजमेर क्रांति की लपटों से बचाया जा सका।
प्रसिद्ध हिंदी लेखक रामविलास शर्मा ने अपनी पुस्तक "सन् सत्तावन की राज्य क्रांति"में लिखा है कि राजस्थान की जनता का हदय अंग्रेजों से लड़ने वाली देश की शेष जनता के साथ था। अपने सामन्तों और अंग्रेज शासकों के संयुक्त मोर्चे के कारण वह अपनी भावनाओं को भले सक्रिय रूप से बड़े पैमाने पर प्रकट न कर सकी हो किन्तु उसकी भावनाओं के बारे में सन्देह नहीं हो सकता।
वहीँ प्रिचार्ड ने राजस्थान के सामन्त-शासकों के बारे में लिखा है कि वे अपने कर्तव्य-पथ पर अडिग रहे अर्थात् अपनी जनता के प्रति विश्वासघात करके अंग्रेजों का साथ देते रहे। लेकिन उसने स्वीकार किया है कि अनेक सामन्त अपने सिपाहियों और प्रजा पर नियन्त्रण न रख सके। इन्होंने अपनी सेनाएं अंग्रेजों की सेवा के लिए भेजीं लेकिन कुछ अपवादों को छोड़कर उन्होंने विद्रोहियों से लड़ना अस्वीकार कर दिया।
"राजस्थान में स्वतन्त्रता संग्राम"पुस्तक में बी एल पानगड़िया लिखते है कि विद्रोही अगर दिल्ली की बजाय अजमेर जाकर वहां के शस्त्रागार पर अधिकार कर लेते और प्रशासन हाथ में ले लेते तो राजपूताने की रियासतों में विद्रोह को भारी बल मिलता और उस पर नियन्त्रण पाना अंग्रेजी सल्ननत के लिए आसान न होता। पर देश के भाग्य में तो अभी गुलामी ही बदी थी।
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