एक था मद्रास होटल
85 साल के प्रियवदन राव अब कनॉट प्लेस के आसपास आने से बचते हैं। इसी कनॉट प्लेस में उनके पिता के.सुब्बा राव ने मद्रास होटल खोला था। ये बातें 1935 की हैं। तब कनॉट प्लेस नया-नया बना था।
मद्रास होटल नाम इसलिए रखा गया था क्योंकि तब तक दिल्ली के लिए दक्षिण भारत का मतलब मद्रास ही होता था। सुब्बा राव तो मौजूदा कर्नाटक के उड़पी से थे।
मद्रास होटल में डोसा,इडली,वड़ा खाने के लिए लोग आने लगे। दिल्ली पहली बार दक्षिण भारतीय डिशेज का स्वाद चख रही थी। इससे पहले दिल्ली में निश्चित रूप से इस तरह का कोई रेस्तरां नहीं था।
पर सुब्बा राव की 1955 में अकाल मृत्यु के बाद मद्रास होटल को संभालने की जिम्मेदारी उनके पुत्र प्रियवदन राव पर आ गई। उन्होंने पहला फैसला ये लिया कि डोसे के एक-दो बार आलू की अतिरिक्त मांग करने वालों तथा बार-बार सांभर मांगने वालों को मना नहीं किया जाएगा। उनसे अतिरिक्त पैसा भी नहीं लिया जाएगा।
यकीन मानिए कि इस पहल से दिल्ली मद्रास होटल पर जान निसार करने लगी। ये मद्रास होटल की यूएसपी बन गई। आपको अब भी दर्जनों दिल्ली वाले मिल जाएंगे जिन्होंने यहां आकर दो –तीन बार आलू और पांच-छह बार तक सांभर लिया। मद्रास होटल का गर्मागर्म सांभर पीकर आत्मा भी तृप्त हो जाया करती थी।
सत्तर के दशक के आते-आते मद्रास होटल का जादू सिर चढ़कर बोलने। इधर रोज हजारों स्वाद के शैदाई आने लगे। मद्रास होटल की लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 1967 में शिवाजी स्टेडियम से सटे बस टर्मिनल का नाम ही मद्रास होटल हो गया। हालांकि उसे 1982 में बदला गया।
कनॉट प्लेस आने वालों के लिए मद्रास होटल में लजीज डिशेज का भोग लगाना अनिवार्य हो गया। गुस्ताफी माफ, जिन्होंने मद्रास होटल के जायके नहीं चखे उन्हें इस बात का सही से अंदाजा कभी नहीं होगा कि वहां क्यों टूटती थी दिल्ली।
खस्ता- करारा डोसा, वड़ा और इडली तो दिव्य होता था। उसके साथ मिलने वाली नारियल की चटनी का स्वाद भी अतुल्नीय रहता था।
दिल्ली रोज हजारों डोसे, इडली, वड़ा वगैरह चट करके भी अतृप्त ही रहती। कौन भूल सकता है मद्रास होटल की लाजवाब थाली को। उसमें गीली सब्जी, सूखी सब्जी, रस्म, दही पापड़, अचार, मिष्ठान आदि रहता था।
लंच 12-3 बजे तक चलता था। इस दौरान सैकड़ों भूखे सुस्वादु थाली के साथ कायदे से न्याय करते थे।
मद्रास होटल के शेफ के काम तय होते थे। कुछ शेफ सिर्फ डोसा ही बनाते थे, तो कुछ इडली और वड़ा। सभी शेफ उड़पी के होते थे।
मद्रास होटल में कभी नान-वेज डिशेज नहीं परोसे गए। राव साहब इस मसले पर किसी भी तरह के समझौते के लिए तैयार नहीं हुए।
वे खुद सुबह-शाम होटल परिसर में ही घूमते थे। वे बीच-बीच में मद्रास होटल में आने वालों से पूछ लेते थे कि “क्या स्वाद और सर्विस में कोई कमी तो नहीं रह गई है?” अब अपने ग्राहकों को कौन देता है इतना मान-सम्मान।
पर साल 2005 मद्रास होटल के लिए मनहूस रहा। उसे अपना किराये का स्पेस खाली करना पड़ा क्योंकि जिनका स्पेस था उन्होंने उसे अपने उपयोग के लिए उसे लेना था।
इस तरह दिल्ली के सबसे महत्वपूर्ण लैंडमार्क कनॉट प्लेस का हमेशा आबाद रहने वाला हिस्सा उजाड़ हो गया। आखिरी बार राव साहब मद्रास होटल से निकले तो बच्चों की तरह फूट-फूट कर रोए थे। समाप्त।
लेख 17 सितम्बर 2020 को पब्लिश हुआ।