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पाकिस्तानी हॉकी टीम

 हिन्दुस्तानी हो गया था वो पाकिस्तानी हॉकी कप्तान

अब्दुल राशिद जूनियर को पाकिस्तान हॉकी का महानतम सेंटर फारवर्ड माना जाता था। पर वे  हिन्दुस्तानी हो गए थे। वे 1980 के दशक में पाकिस्तान इंटरनेशनल एयरलाइंस (पीआईए) के कनॉट प्लेस स्थित दफ्तर में काम कर रहे थे। 


वे पाकिस्तान की टीम के क्रमश:1972 के म्युनिख ओलंपिक खेलों में कप्तान और 1976 के मांट्रियल ओलंपिक में कोच थे। उससे पहले वे 1968 के मेक्सिको ओलंपिक में भी पाकिस्तान टीम की तरफ से खेले थे।

भारत म्युनिख और मांट्रियल ओलंपिक खेलों में क्रमश: तीसरे और सातवें स्थान पर रहा था।

राशिद की मैदान में लय,गति और ताल कमाल की हुआ करती थी। राशिद को सक्रिय हॉकी छोड़ते ही पीआईए ने दिल्ली ट्रांसफर कर दिया था। वे यहां कार्गो मैनेजर के पद पर काम करने लगे। उनका पिछले बुधवार को निधन हो गया।


राशिद दिल्ली आने के बाद शिवाजी स्टेडियम हॉकी के मैच देखने जाने लगे। मतलब वे हॉकी से अपने को दूर नहीं कर पाए थे।

अब्दुल राशिद दिल्ली हॉकी लीग में भी खेले। उन्हें एक दिन शिवाजी स्टेडियम में मैच देखते हुए दिल्ली हॉकी के दो बेहतरीन खिलाड़ियों कुक्कू वालिया ( अब नेहरू हॉकी चैंपियनशिप के महासचिव) और भूपिंदर सिंह ( दिल्ली हॉकी के महासचिव रहे) ने पहचान लिया। आखिर राशिद हॉकी की दुनिया का बेहद जाना-पहचाना चेहरा रहे थे। राशिद दर्शक दीर्घा से दिल्ली हॉकी लीग का एक मैच देख रहे थे। दिल्ली और कस्टम्स की टीम से खेलते रहे भुपिंदर सिंह को याद है कि मैच खालसा ब्लूज़ और इंडिपेंडेंट क्लब के बीच था। राशिद को भी अच्छा लगा कि उन्हें यहां किसी ने पहचान लिया। उन्होंने दोनों से लीग में खेलने की इच्छा जताई। 


भुपिंदर सिंह ने उन्हें उसी समय खालसा ब्लूज से खेलने की ऑफर दे दी। तो इस तरह, पाकिस्तान का पूर्व कप्तान दिल्ली में खेलने लगा। वे दो साल खालसा ब्लूज से और एक साल न्यू स्टार की टीमों से खेले। 


 राशिद में पहले वाला तो दमखम नहीं रहा था पर वे बीच-बीच में अपने जौहर दिखा देते थे। वे यहां के नौजवान खिलाड़ियों को हॉकी की बारीकियां भी बताते। इधर वे काफी लोकप्रिय हो गए थे। वे  हॉकी कमेंटेटर के भी मित्र बन गए थे।

दादा ध्य़ानचंद,बन्नू और राशिद 

अब्दुल राशिद पाकिस्तान का खैबर पख्तूनख्वा प्रांत के बन्नू शहर से संबंध था। बन्नू वालों को

हॉकी खेलना दादा ध्यान चंद ने सिखाया था। वे वहां पर 1930 के आसपास रहे थे। तब  दादा ध्यानचंद की सेना की यूनिट बन्नू में तैनात थी। वे जब बन्नू में थे, तब तक वे हॉकी के जादूगर बन चुके थे। उनके खेल से प्रेरित होकर बन्नू में  नौजवानों ने हॉकी खेनना शुरू किया था।पेशावर से नजदीक है बन्नू। दिल्ली में  कृष्णा नगर, गीता कॉलोनी, विजय नगर जैसी कॉलोनियां और फरीदाबाद भरे हैं बन्नू से आए लोगों से। 


 आप कभी मूलचंद मेट्रो स्टेशन से  फरीदाबाद के सफर पर निकलिए। आपके कानों में अचानक से एक जुबान सुनाई देनी लगेगी जो आप आमतौर पर नहीं सुनते हैं। ये पंजाबी से मिलती-जुलती  है। ‘यारा, मौसम ठड्डा थिंदा’( बंधु, मौसम ठंडा हो रहा है) या ‘ भ्रा,ठिक इन मुंडा-कुंड़ी’ ( भाई,बेटा-बेटी ठीक है?)। फरीदाबाद के एनएचपीसी और दूसरे स्टेशनों के आते-आते इसे बोलने वाले हिन्दी, हरियाणवी या पंजाबी भाषियों को शिकस्त देने लगते हैं। इसे डेरेवाली भी कहते हैं।


बहरहाल, राशिद के दिल्ली में अनेक मित्र बन गए थे। उस दौर में दिल्ली लीग के मैच देखने के लिए शिवाजी स्टेडियम खचाखच भर जाता था। अब्दुल  राशिद लगभग तीन साल यहां पर रहने के बाद 1983 में वापस चले गए। 


Navbharatimes 5 नवंबर 2020।


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