इंसान जाने कहाँ खो गये हैं!*/ अनाम कवि
*जाने क्यू*,
*अब शर्म से*,
*चेहरे गुलाब नहीं होते।*
*जाने क्यूँ*,
*अब मस्त मौला* *मिजाज नहीं होते।*
*पहले बता दिया करते थे*,
*दिल की बातें*,
*जाने क्यूँ,अब चेहरे*,
*खुली किताब नहीं होते।*
*सुना है,बिन कहे*,
*दिल की बात, समझ लेते थे*
*गले लगते ही*,
*दोस्त*,
*हालात समझ लेते थे।*
*तब ना फेस बुक था*,
*ना स्मार्ट फ़ोन*,
*ना ट्विटर अकाउंट*,
*एक चिट्टी से ही*,
*दिलों के जज्बात, समझ लेते थे।*
*सोचता हूँ*,
*हम कहाँ से कहाँ*
*आ गए*,
*व्यावहारिकता सोचते सोचत*,
*भावनाओं को खा गये।*
*अब भाई भाई से*,
*समस्या का* *समाधान,कहाँ पूछता है,*
*अब बेटा बाप से*,
*उलझनों का निदान,*
*कहाँ पूछता है*
*बेटी नहीं पूछती*,
*माँ से गृहस्थी के सलीके,*
*अब कौन गुरु के*,
*चरणों में बैठकर*,
*ज्ञान की परिभाषा सीखता है।*
*परियों की बात*,
*अब किसे भाती है,*
*अपनों की याद*,
*अब किसे रुलाती है,*
*अब कौन*,
*गरीब को सखा बताता है,*
*अब कहाँ*,
*कृष्ण सुदामा को गले लगाता है*
*जिन्दगी में*,
*हम केवल* *व्यावहारिक हो गये हैं,*
*मशीन बन गए हैं हम सब,*
*इंसान जाने कहाँ खो गये हैं!*
*इंसान जाने कहां खो गये हैं*....! 🙏🏻