Quantcast
Channel: पत्रकारिता / जनसंचार
Viewing all articles
Browse latest Browse all 3437

फणीश्वर नाथ रेणु की जीवनी का अंश

$
0
0

 रेणु का देवदास बन भटकना / भारत यायावर


 1934 में रेणु का चौदहवाँ साल चल रहा था। उनके भीतर रूप-पिपासा की लपट-सी उठने लगी थी। यह मानसिक रोग था, जिसकी गिरफ्त में वे आते जा रहे थे। अररिया में कई बंगाली परिवारों के घर उनका आना-जाना होता था। तब तक उन्होंने रवीन्द्रनाथ की अनेक कविताएँ कंठस्थ कर ली थीं। वे शरतचन्द्र के उपन्यासों का भी पारायण कर चुके थे। अपने बंगाली मित्रों के साथ बंगला साहित्य पर उनका गपशप खूब होता। उनके भीतर एक प्रेमी हृदय का निर्माण हो रहा था। उसी समय एक सुन्दर बंगाली लड़की के प्रति उनका आकर्षण बढ़ रहा था। वे उसके घर जाते और उस लड़की से उनकी घंटों बातचीत होती। उस बातचीत में कभी-कभी उसके घर के भाई-माता-पिता भी शामिल हो जाते। रेणु के मन में उसके प्रति एकतरफा प्रेम पैदा हो रहा था। वे कहते कुछ नहीं थे। ऊपर से सामान्य रहते और नियमित स्कूल जाते।

 एक दिन स्कूल में उनके एक सहपाठी अपने बस्ते में एक किताब ले आया। वह पुस्तक थी- जवाहरलाल नेहरू की ‘पिता के पत्र पुत्री के नाम।’ जवाहरलाल नेहरू तब युवा हृदय सम्राट थे। उनका आकर्षक व्यक्तित्व और ओजस्वी भाषण लोग बेहद पसंद करते थे। रेणु के मन में नेहरू के प्रति बहुत आदर था। लोग उनकी इकलौती बेटी इंदिरा प्रियदर्शिनी की भी काफी चर्चा करते थे। यह कैसी है ? रेणु को भी देखने की जिज्ञासा थी। यह किताब मूल रूप से अंग्रेजी में लिखी गई थी। जवाहरलाल नेहरू ने हिंदी में प्रेमचंद से अनुवाद करवाकर बहुत अच्छे कागज पर इसे प्रकाशित करवाई थी। किताब के शुरू में आर्ट पेपर पर नवयौवना इंदिरा प्रियदर्शिनी की एक सुन्दर तस्वीर थी।

 रेणु ने जब उस पुस्तक को अपने सहपाठी से माँगकर देखी, तो तस्वीर देखकर मुग्ध हो गए। अपने सहपाठी से अनुनय-विनय कर पढ़ने के लिए उन्होंने यह किताब ली। डेरे पर आकर उस फोटो को निहारते रहते। संुदर मदमाती आँखें। लम्बी नाक। उनके मन-मस्तिष्क पर इतना असर कर गई थी कि वे उसे घंटों निहारते रहते। सुबह उठकर एक बार देखकर नित्यक्रिया करते। फिर स्कूल से आने के बाद बार-बार उसे देखते।

 उनके सहपाठी ने पुस्तक लौटाने के लिए कहा तो रेणु ने जवाब दिया- “एक-दो दिनों में लौटाता हूँ। अभी कुछ पढ़ना शेष रह गया है!”

 कुछ दिनों बाद किताब लौटाने के लिए उनका सहपाठी लड़ाई करने पर उतारू हो गया। अंत में, आजिज आकर रेणु ने किताब लौटा दी। उनके सहपाठी ने जब किताब को खोलकर देखा तो इंदिरा प्रियदर्शिनी की तस्वीर गायब थी। वह गुस्से में भर उठा- “तस्वीर कहाँ गई ?” रेणु ने कहा- “मैंने निकाल ली है और उसे नहीं लौटाऊँगा।” 

 उनका अपने परम मित्र से इस बात पर बहुत झगड़ा हुआ। बात क्लास टीचर के पास पहुँची। उन्होंने भी रेणु को समझाया। पर रेणु अड़े रहे। हेडमास्टर साहब तक बात पहुँची तो उन्होंने पिटाई भी कर दी। लेकिन रेणु टस-से-मस नहीं हुए और वह तस्वीर नहीं ही लौटाई! ऐसा उस रूप का आकर्षण था।

 वे अपनी पढ़ाई जारी रखते हुए रोज स्कूल जाते। लेकिन उस तस्वीर को देखना नहीं भूलते। उसे कई बार मोड़कर अपनी धोती में छुपाकर रखते। जब एकान्त मिलता, एक नजर देख लेते। अंत में वह तस्वीर जब जीर्ण-शीर्ण हो गई, तभी रूप का वह आकर्षण समाप्त हुआ।

 इसी समय उन्होंने शरतचन्द्र का उपन्यास ‘देवदास’ पढ़ा। धीरे-धीरे वे अपने-आपको ‘देवदास’ समझने लगे। और जिस बंगाली लड़की से वे प्रेम करते थे उसे पारो।

 यहाँ विषयांतर में जाकर ‘देवदास’ उपन्यास के बारे में बताना आवश्यक समझता हूँ। इस उपन्यास की रचना शरत्चन्द्र ने 1917 में की थी। एक बार उन्होंने कहा था- ‘देवदास’ के सृजन में मेरे हृदय का योग है।’ इस उपन्यास में भावुकता से भरे एक असफल प्रेमी का आत्महंता स्वरूप अजीब तरह से नवयुवकों को अपने में आविष्ट कर लेता था और कई भावुक युवकों ने इसे पढ़कर आत्मधात भी कर लिया था। बाद में शरतचन्द्र ने यह स्वीकार भी किया था कि देवदास की आत्मघाती भावुकता को इतना निश्च्छल और महान् बनाकर आदर्श रूप में उन्हें प्रतिष्ठित नहीं करना चाहिए था। लेकिन वे क्या करते ? जब वे लिख रहे थे उस समय वे ऐसे ही प्रेम की पीड़ा से छटपटाते रहते थे। वे छटपटाहट और प्रेम की पीड़ा की कसक एक अपरिपक्व किशोर हृदय की है और वह पार्वती या पारो तक पहुँचने का सही रास्ता स्वयं को समाप्त करना भी ठीक नहीं है। लेकिन ‘देवदास’ छप चुका था और उसके पाठकों की संख्या बढ़ती ही जाती थी। हिन्दी अनुवाद होकर जब वह हिन्दी प्रदेशों में फैला तो अनगिनत नवयुवकों के हृदय को उसने झकझोर दिया। ‘देवदास’ में प्रेम की प्रगाढ़ता एक अजीब तरह की बेचैनी पैदा करती है। भावुकता का प्रसार करती है। और जो प्रेम के मायाजाल में फँसे हुए हैं, उन्हें तो मानो पागल ही बना देती है।

 रेणु प्रेम में पड़े हुए थे और शरत्चन्द्र का देवदास उनके भीतर प्रवेश कर गया था। कुछ दिनों तक इन्दिरा प्रियदर्शिनी की तस्वीर ने इस देवदास का ध्यान पारो से हटाया, पर जब वह मुड़ी-तुड़ी तस्वीर का अस्तित्व समाप्त हो गया, तो फिर पारो की तरफ उनका मन भागने लगा। ऐसे में ही 1934 का साल बीत गया। आठवीं कक्षा उत्तीर्ण कर 1935 में वे नवीं कक्षा में गए। लेकिन उनका मन पढ़ाई से उचट चुका था। वे इधर-उधर से जुगाड़कर कहानी और उपन्यास पढ़ते। साहित्यिक पुस्तकें पढ़ने का यह रोग तो उनमें कम ही उम्र से था, वह अब उफान पर आ चुका था।

 वे जैनेन्द्र कुमार का कहानी-संग्रह ‘फाँसी’ पढ़ चुके थे। इसे पढ़कर वे इसके पात्र शमशेर और जुलैका के बारे में घंटों विचार करते रहते। बहुत बाद में  उन्होंने ‘फाँसी’ कहानी के इन दोनों पात्रों को लेकर जैनेन्द्र पर लिखते हुए एक रूपक बाँधने की कोशिश की थी, जो इस प्रकार है-

 लोगो,

 शमशेर से क्यों डरते हो ?

 वह फौलादी है,

 पर देखो, कितना झुक जाने को तैयार है!

 लेकिन, खबरदार!

 उसकी धार के सामने न पड़ना,

 वह न्याय की तरह बारीक है।

 शमशेर दो बातें जानता है.....

 बहादुरी और गरीबी

 जिनमें दोनों नहीं, वे क्या आदमी हैं ?

 ...जानते हो, शमशेर प्यार का क्या करता है ? उसे कुचल डालता है, फिर जरा रो लेता है और अपने काम में लग जाता है।

 रेणु की तब यही मनःस्थिति थी। उनका एक मन फौलादी था और एक मन झुकने को तैयार रहता था। उनका एक मन अपना सबकुछ लुटाकर मुफलिसी को गले लगाना चाहता था, पर बहादुरी को कभी खुद से अलग करना पसंद नहीं करता था।

 ‘फाँसी कहानी में शमशेर और जुलैका प्रसंग पर लिखते हैं-

 “और कुछ नहीं शमशेर, और कुछ नहीं?”

 “और कुछ नहीं?.... मरते वक्त और कुछ नहीं?”

 “नहीं!”

 “थोड़ा-सा प्यार?”

 “जुलैका, क्या कहती हो ?”

 “बिल्कुल जरा, जरा-सा प्यार...”

 रेणु लिखते हैं- “मेरा पूरा विश्वास है कि हिन्दी का प्रिय कवि शमशेर वही है, जिसे जुलैका प्यार करती थी। इसी विश्वास को लेकर जी गया। वरना पार्वती के दरवाजे पर किसी दिन सुबह भीड़ लग जाती और बैलगाड़ी पर लदी हुई लाश को लोग हाथ में अंकित नाम से ही पहचानते। देवदास पढ़ने के बाद ही अपने हाथ पर अपना नाम ‘गोदवा’ चुका था।

 देवदास बने रेणु के मन में पलायनवादी मानसिकता का निर्माण हो चुका था। वे भावुकता के भीषण दौर से गुजर रहे थे। प्रेम के लिए आत्मोत्सर्ग की भावना उनमें बलवती हो रही थी। एक दिन वे अररिया से फरार होकर भागलपुर पहुँच गए। दो दिनों तक इधर-उधर भटकते रहे। फिर घर की याद आने लगी- माँ, बाबूजी और दादी। सभी भाई-बहन। फिर अपनी प्रिया की याद आई। वे लौट आए। एक बार वे भागकर गौहाटी चले गए। किन्तु, मन को चैन नहीं था।

 अररिया में स्कूल जाते, घर आते और गुमसुम रहते। लेकिन पढ़ने का जो रोग लगा था, वह बरकरार रहा। वे हिन्दी और बंगला साहित्य की साहित्यिक किताबें बड़े ही मनोयोग से पढ़ते। एक रोग और भी उनमें लगा था- मेला देखने का। रूप का आकर्षण, प्रेम की ज्वाला, पढ़ने-लिखने के साथ-साथ मेला के अनेक दृश्यों को बहुत गौर से देखना- उनके व्यक्तित्व में समाहित था। ये सभी प्रसंग एक साथ चल रहे थे।

 इसलिए इस प्रेम-प्रसंग की कथा कहने के पहले मेला-प्रसंग की कथा कहना जरूरी है।

 पूर्णिया जिले में दुर्गापूजा के समय से अगहन महीने तक जगह-जगह मेला लगा करता था। उसमें तरह-तरह की नौटंकी कम्पनियाँ अपना ‘खेल’ दिखातीं। दुकानें सजतीं। तरह-तरह के सामान बिकते। रेणु स्कूल से भागकर इन मेलों में प्रायः जाते रहते थे। उनकी कहानी ‘तीसरी कसम अर्थात् मारे गए गुलफाम’ में फारबिसगंज में लगे एक मेले का आंशिक चित्र भी उन्होंने उपस्थित किया है, किन्तु अपनी कहानी ‘नेपथ्य का अभिनेता’ में उन्होंने अपने स्कूली दिनों के मेला देखने के शौक को संस्मरणात्मक रूप में प्रस्तुत किया है।

 1929 ई॰ में रेणु पहली बार गुलाबबाग मेला अपने पिताजी के साथ गए थे। गुलाबबाग पूर्णिया शहर के नजदीक एक व्यापारिक मंडी है। वहाँ के एक बड़े मैदान में यह मेला लगता था और यह पूर्णिया जिले का सबसे बड़ा मेला होता था। रेणु जब पहली बार गुलाबबाग मेला गए थे, तो वहीं पहली बार एक हवाज जहाज को बहुत नजदीक से देखा था। वहाँ कलकत्ता से एक थियेटर कम्पनी आई थी, जिसमें तिल धरने की जगह भी नहीं थी। उन्हें बेहद अजूबा लगा था- मंच पर ही रेलगाड़ी आती-जाती थी- इंजिन सहित, पुक्का फाड़ती, धुँआ उगलती हुई! मंच पर ही लाल-पीली रोशनी में अनेक परियों को उन्होंने पहली बार देखा था और देखते रह गए थे। जीवन में पहली बार थियेटर में यह सब देखकर वे बेहद उत्तेजित हो गए थे और आश्चर्य से भर उठे थे। उनका एक मित्र था बकुल बनर्जी! उसने बताया था कि इस थियेटर कम्पनी में नागेसरबाग मेला से निकाले गए कलाकार ही हैं। इसमें एक कलाकार का अभिनय रेणु को बहुत पसंद आया था। उस कलाकार ने एक रेलवे पोर्टर का अभिनय किया था- वह रेलवे के वेटिंग रूप में सोये हुए लड़के को छुरा से खून कर रहा था। देखकर रेणु का डर से रोम-रोम सिंहर उठा था। यह दृश्य भूलता ही नहीं था- गुलाबबाग मेला का वह थियेटर- मंच पर पंजाब मेल का आना- लड़के का खून!

 फिर कई साल के बाद सिंहेश्वर मेला में उमाकान्त झा की कम्पनी में इस अभिनेता को उन्होंने पहचान लिया था! अरे यह तो था वही खूनी हत्यारा! लेकिन यहाँ ‘बिल्वमंगल’ नाटक खेला जा रहा था और चिंताबाई की मजलिए में एक बाबाजी के भेष में वह सुमधुर कंठ से गा रहा था-


 काया का पिंजरा डोले रे

 साँस का पंछी बोले!


 रेणु चौंक पड़े! गुलाबबाग मेला में ठीक हत्यारे की तरह लग रहा था- हाथ में चाकू और लाल-लाल आँखें। पर यहाँ तो ठीक बाबाजी लग रहा है- गेरुआ कपड़े पहने! उस हत्यारे का कथन तो मानों उनको याद ही हो गया था-


 “क्यों मेरे हाथ! 

तू क्यों थरथरा रहा है ?

 तू तो केवल अपने मालिक का हुक्म अदा कर रहा है।

 मत काँप मेरे खंजर... वक्त बर्बाद मत कर!

 शिकार सोया है चादर तानकर!

 ले तू भी अपना काम कर!”


 लेकिन यहाँ तो यह सचमुच का बाबा लग रहा है! फिर उसने एक अद्भुत कवित्त का पाठ किया-


 मृदंग कहै धिक है, धिक है!

 मंजीर कहै किनको, किनको ?

 तब हाथ नचाय के गणिका कहती

 इनको, इनको, इनको, इनको!


 फिर अद्याप्रसाद की नाटक कम्पनी में ‘श्रीमती मंजरी’ नामक खेल में वही अंगरेज जज का भेष बनाकर टेबुल पर हथौड़ा ठोंककर बोला था- “वेल मोंजरीबाई! हाम टुमको सिड़ीमटी मोंजरी का खेराब डेटा हाय। आज से टुमको सिड़ीमटी मोंजरी बोलेगा, समझा!”


 फिर इस दृश्य के कुछ समय बाद वह बाबाजी के गेरुए भेष में वही गीत गाता हुआ प्रकट हुआ था- “काया का पिंजरा डोले रे! साँस का पंछी बोले।”


 रेणु के मन में थियेटर के इस अभिनेता के प्रति बेहद आकर्षण था। लेकिन अपने इलाके के रंगमंच के वे भी जमे हुए अभिनेता थे। उनके स्वाभिमान को ठेस लगने से वे तनकर खड़े हो जाते और उसका उत्तर दो टूक दिया करते। उस समय रेणु के भीतर देवदास की आत्मा घुसी हुई थी और दिल बहलाने को वे इधर-उधर भटकते रहते थे। 


 एक बार फारबिसगंज में मेला लगा हुआ था और अभिनेताओं का दल दिन में पान-सिगरेट-चाय के लिए निकला था। उसमें लैला, मजनूँ, शीरी, फरहाद, राजा, डाकू आदि का रोल करने वाले एक ग्रुप में गपशप करते हुए धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे थे और यह नया देवदास उनके पीछे-पीछे उनकी बातें सुनता चल रहा था। अचानक ‘काया का पिंजरा डोले रे’ गाने वाला साधु यानी वह हत्यारा यानी वह अंगरेज जज पीछे मुड़ा और इस देवदास को कड़े शब्दों में फटकारा- “क्यों बे छोकरे! इस तरह क्यों घूम रहा है हमारे पीछे-पीछे ? पाॅकेट मारेगा क्या ?”


 यह देवदास बने रेणु के आत्मसम्मान पर आघात था। उनके अहं को चोट लगी थी। उन्होंने करारा उत्तर दिया- “आपके पाॅकेट में है ही क्या जो कोई मारेगा?”


 “क्यों ? तू यह कैसे जानता है कि मेरा पाॅकेट खाली है ?” उसने चकित होकर पूछा था।


 रेणु के भीतर से तब देवदास निकलकर फुर्र हो गया था। उनके शिक्षक ने उन्हें सिखाया था कि अपरिचित आदमी से जब भी बात करो, अंग्रेजी में करो। क्योंकि अंग्रेजी बोलने से रौब जमती है और स्कूल का नाम भी होता है। लोग कहते हैं कि देखों इस स्कूल का विद्यार्थी फर्राटे से अंग्रेजी में बात कर लेता है। लेकिन उनके भीतर हिन्दी के प्रति बेपनाह प्रेम था, इसलिए अपनी अंग्रेजी को भीतर ही रोककर उन्होंने हिन्दी में कहा- “क्यों, रात को जो भीख माँग रहे थे- दाता तेरा भला करे!”

 वह अभिनेता पिछली रात को नाटक में भिखारी का अभिनय कर रहा था। उसी की याद रेणु ने दिलाई थी। उनकी बात सुनकर सभी अभिनेता ठठाकर हँसकर पड़े थे। उसने कहा- “यह छोकरा तो बहुत तेज है!”


 तब रेणु की अंगरेजी बाहर आई और उस अभिनेता को झाड़ते हुए उन्होंने कहा- “यू सी मिस्टर रेलवे पोर्टर-ऐक्टर! डोंट से भी छोकरा! आई एम एक हाई स्कूल स्टूडेंट! यू नो ?”


 रेणु के इस अंदाज में कहे गए शब्दों पर फिर सभी ठठाकर हँस पड़े।

 वहीं मेला में घूमते हुए उनकी नजर एक आदमी पर पड़ी। वह गोदना गोद रहा था। रेणु के भीतर से फिर घायल प्रेमी देवदास जाग्रत हुआ और उन्हें लगा कि जब उनकी लाश लावारिस रूप में पड़ी होगी तो लोग कैसे पहचानेंगे ? उन्होंने अपने नाम के प्रथमाक्षर को एक कागज पर लिखकर गोदना वाले को दिया- F.N.M.। और उनकी बाँह पर गोदना अंकित हो गया।


 1935 ई॰ में नौवीं कक्षा में वे पढ़ रहे थे। देवदास की भावुकता भरी छाया से वे लिप्त होते और फिर मुक्त होते। उनकी पारो की शादी तय हो गई थी। उसके परिवार में गहना-जेवर खरीदने की चिन्ता सता रही थी। एक दिन देवदास जी अपने गाँव गए और अपनी माँ के गहने जाकर दे आए। घर में जब जेवर की खोज शुरू हुई तो पिता का संदेह पुत्र पर हुआ। उन्होंने रेणु से पूछा तो उन्होंने अपने पिता को सब बातें बता दीं। फिर यह भी बताया कि उसकी शादी हो गई है और वह ससुराल चली गई है।


 फिर रेणु के भीतर का देवदास फफक-फफककर रोने लगा!


 पिता उसे देखते रह गए। उनके हृदय में दुख की लहरें उठने लगीं। उन्होंने सोचा था कि बेटा हमारा बड़ा नाम करेगा! लेकिन यह पुत्र तो प्रेम में पड़कर नालायक हो गया था अर्थात् किसी काम का नहीं रह गया था। घर भर में मातम पसर गया था। उसने यह भी घोषणा कर दी कि अररिया स्कूल में अब वह नहीं पढ़ेगा।


 देवदास बने रेणु गुमसुम रहते। माँ उनको जबरदस्ती कुछ खिलाती, वरना भूखे रहते। फिर उन्होंने रवीन्द्र और शरत को विधिवत पढ़ना शुरू किया। उनके बंगला साहित्य के गुरु फुदो बाबू हर सप्ताह आते और रेणु की अनेक जिज्ञासाओं को शांत करते। रेणु को रवीन्द्र की अनेक कविताएँ तब याद हो गई थीं। हिन्दी कविता और कथा-साहित्य भी वे मनोयोग से पढ़ते थे। वे ऋषभचरण जैन के कथा-साहित्य को भी बड़े ही चाव से पढ़ते।


 रेणु अररिया स्कूल में पढ़ना नहीं चाहते थे, इसलिए औराही में ही रहते। उनके पिता ने उन्हें बहुत समझाया और हाथ पकड़कर स्कूल ले गए। फिर उनको अपनी कक्षा में जाकर बिठा दिया। फिर गाँव चले आए। कुछ देर के बाद रेणु मियाँ भी स्कूल से फरार होकर अपने गाँव चले आए। लेकिन पिताजी की मार न पड़ जाए, इसलिए धान रखने के कोठार में जाकर छुप गए। कोठार में धान भरा हुआ था। उसमें छुपने के लिए पैर को मोड़ना और सिर को झुकाकर रखना आवश्यक था। ऐसी दशा में कुछ देर रहने के बाद ही उनका दुबला-पतला शरीर भी अकड़ने लगा। उनके सामने समस्या थी कि इतनी कम जगह में मेंढक की तरह बैठा कैसे जाए। वे कभी-कभार हाथ-पैर फैलाते तो खटर-पटर की आवाज सुनाई पड़ती। किसी ने कोठार की जब यह हलचल सुनी तो जोर से चिल्लाया- चोर ! चोर !


 घर के सभी लोग जुट गए- आँय ! कोठार में चोर घुसा हुआ है ? इसके पहले घर में कई बार चोरी हो चुकी थी। लोग चोरों से परेशान थे। शोर सुनकर पड़ोस के लोग भी जमा हो गए थे। सबने अपने हथियार अपने हाथों में पकड़े हुए थे- आज चोर को पकड़े हुए थे- आज चोर को पकड़ ही लेना है!


 रेणु मेंढकावस्था में कोठार में छुपे हुए मुस्कुरा रहे थे। तभी उनकी अपने पिताजी की कड़क आवाज सुनाई पड़ी- “ऊपर से भाला भोंक दो। जो भी चोर होगा, वहीं राम नाम सत्य हो जाएगा।”


 रेणु की जान सूख गई! चोर भी तो आदमी ही है। ऐसा कहीं भाला से भोंककर मारा जाता है! उन्होंने चिल्लाकर कहा- “पिताजी! मैं रेणु हूँ!” फिर कोठार के मुँह से अपना सिर बाहर निकाला।


 “अरे, यह तो रेणु है!” कहकर चोर पकड़ने वाले लोगों की भीड़ छँटती चली गई। शिलानाथ मंडल रेणु का हाथ पकड़कर अपनी बैठकी में ले आए और कहा, “तुम्हें तो मैं सुबह लेकर स्कूल में तुम्हारी कक्षा में बिठा आया था, फिर क्यों भाग आया ?”


 रेणु ने सपाट उत्तर दिया, “मुझे इस स्कूल में नहीं पढ़ना है। मेरा दिल नहीं करता। इसलिए आप मेरा टी॰सी॰ लेकर फारबिसगंज में नाम लिखा दीजिए।”


 उनके पिताजी को धीरे-धीरे सभी बातें समझ आ रही थीं। उन्होंने कहा, “ठीक है!”


 दूसरे दिन में हेडमास्टर के कक्ष में बैठकर रेणु का टी॰सी॰ ले रहे थे। टी॰सी॰ पर हस्ताक्षर करते हुए हेडमास्टर साहब ने कहा, “मंडल जी, इस लड़के को जिस स्कूल में ले जाना है, ले जाओ ! दुनिया-जहान की सैर कराओ। लेकिन इस मूर्ख लड़के का कुछ नहीं हो सकता! अस्तबल बदलने से घोड़ा तेज नहीं होता।”


 शिलानाथ मंडल ने बस इतना कहा, “देखते हैं आगे यह घोड़ा भागकर कहाँ-कहाँ जाता है ? लेकिन, सर! मैं यह समझ गया हूँ कि यह बँधकर रहनेवाला घोड़ा नहीं है।”


 फिर वे रेणु को घर ले आए। आगे जो भी करना था, गणेश प्रसाद विश्वास और रामदेनी तिवारी ‘द्विजदेनी’ से विचार-विमर्श कर ही करना था।


 रेणु के बचपन के शिक्षक गणेश प्रसाद विश्वास ढोलबज्जा स्कूल चले गए थे। वे फारबिसगंज से सटे ढोलबज्जा मिडिल स्कूल में पढ़ाने पैदल ही जाते। 1934 ई॰ के मध्य में फारबिसगंज के ‘ली एकेडेमी’ नामक हाई स्कूल में शिक्षक का एक पद रिक्त हुआ और उन्होंने आवेदन दिया। वे वहाँ बहाल हो गए। वे लिखते हैं- “अष्टम श्रेणी पास कर जब रेणु नवम् में गया तो एक दिन उसके पिताजी ने एकाएक फारबिसगंज में आकर मुझसे एकान्त में कहा- “गणेश बाबू, मैं जिस उच्च अभिलाषा से प्रेरित आपके विद्यार्थी को अररिया भेजा था, उस पर उसने पानी फेर दिया। वह एक बंगाली लड़की के प्रेम-चक्कर में फँस गया है। घर के पैसे के अलावे उसने कुछ स्वर्ण आभूषणों को भी उसके हवाले कर दिया है। अब मैं भारी परेशानी में पड़ गया हूँ। आप ही इसका उपचार सोचें।”


 आगे वे लिखते हैं- “मैं यह दुर्भाग्यपूर्ण समाचार सुनकर अवाक् एवं किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया। फिर उन्होंने अपना विचार प्रकट करते हुए कहा- आप अन्यथा न मानें तो मैं पुनः आपको कष्ट दूँ। मैं उसे फिर से आपके जिम्मे लगाना चाहता हूँ। आप उसे सुधारें।”


 गणेश प्रसाद विश्वास ने सहर्ष सहमति दी। फिर वे फारबिसगंज में ही रह रहे रामदेनी तिवारी ‘द्विजदेनी’ से मिले और रेणु के सन्बन्ध में सभी बातें बताईं। उन्होंने भी अपने संरक्षण में रखने की स्वीकृति दे दी। शिलानाथ जी अपने गाँव लौट गए। उन्होंने रेणु को अपने पास बुलाया और समझाया, फिर तिवारी जी और गणेश बाबू के सान्निध्य में रहकर फारबिसगंज में ही शिक्षा प्राप्त करने की बात कही। रेणु ने अपनी सहर्ष सहमति दी अर्थात् वे फारबिसगंज में रहने के लिए तैयार हो गए।


 एक दिन एक संदूक में अपने कपड़े और किताबों के साथ फारबिसगंज में तिवारी जी के घर शिलानाथ मंडल उनको छोड़ आए। तिवारी जी ने चंदा उगाहकर फारबिसगंज में एक नेशनल स्कूल एक खपड़ैल के मकान में कायम किया था, जो चल नहीं पाया था। उसी में काँगेस के कुछ युवा कार्यकर्त्ता रहा करते थे। रेणु पहले भी काँग्रेस के इस दफ्तर में रह चुके थे। तिवारी जी के घर से यह लगा हुआ था। तिवारी जी ने इसी के एक कमरे में रेणु के रहने की व्यवस्था कर दी। यहाँ रहकर उनका सघन अध्ययन का अभ्यास और भी तीव्र हुआ। तिवारी जी इन सभी युवाओं को देश-दुनिया की बातें बताते और बीच-बीच में कई हास्य-प्रसंग सुनाकर हँसाते। समय निकालकर पास में ही स्थित ली एकेडेमी स्कूल में जाकर वे गणेश मास्टर से भी शिक्षा ग्रहण करते।

 पूर्णिया जिले में उन दिनों हिन्दी के प्रमुख कथाकार अनूपलाल मंडल रहा करते थे। वे उपन्यासकार थे। उनके उपन्यास भागलपुर के उन्हीं द्वारा स्थापित युगांतर साहित्य संस्थान से प्रकाशित होते थे। इसी नाम से उनकी किताबों की दुकान थी। वे  पूर्णिया जिले के विभिन्न कस्बों में जाकर अपनी किताबें बेचा करते थे। उन्हीं के शब्दों में उनका आत्मवृत्तांत सुनिए : जब मुझे रुपयों की विशेष आवश्यकता पड़ती, एक बड़े बक्स में पुस्तकें भर कर सीधी ट्रेन से फारबिसगंज जा पहुँचता और वहाँ के नेशनल स्कूल में अपने साथी श्री बोकाय मंडल के यहाँ डेरा डालता। उन दिनों नेशनल स्कूल टूट चुका था, उसकी जगह काँग्रेस पार्टी के दस-बारह स्वयंसेवक रहा करते थे, जिनके संचालक मेरे साथी श्री मंडल थे। उन्हीं दिनों मेरे एक श्रद्धास्पद् और हितैषी थे, उनका मकान उक्त स्कूल के पास था। वे स्वयं अच्छे नाटककार थे और उनके कई नाटक निकल चुके थे। उनका वहाँ बड़ा सम्मान था। वे मुझ पर बड़े सदय और मेरे बड़े प्रशंसक थे। उन्हीं के सहयोग से मेरी सारी पुस्तकों की खपत हो जाती थी।


 अनूपलाल मंडल अपनी किताबों पर अपना नाम तब मंडल की जगह साहित्यरत्न लिखते थे यानी अनूप साहित्यरत्न। द्विजदेनी जी के यहाँ यदा-कदा उनकी भेंट शिलानाथ जी से हो जाती थी, जो अपने मंडल को छुपाकर विश्वास बताया करते थे। वे अपने पुत्र की रचनात्मक प्रतिभा की प्रशंसा भी करते रहते थे।


 1935 ई॰ में तिवारी जी के घर पर साहित्यरत्न की भेंट विश्वास से हुई। उन्होंने पूछा- आपका पुत्ररत्न कहाँ है ? क्या कर रहा है ?


 पिता ने बताया कि उसने पढ़ना छोड़ दिया है। वह यहीं काँग्रेस आश्रम में रहकर काँग्रेस पार्टी की वोलंटियरी करता है। शायद आपने देखा भी होगा।


 अनूप जी ने कहा- “काँग्रेस के आश्रम में तो दस-बारह लड़के रहते हैं, इसलिए पहचान नहीं पाया!”


 शिलानाथ ने कहा- “अभी तो आप हैं न! मैं उसे आपसे मिलने को कह दूँगा।“ 


 फिर वे जब लौटने लगे तो रेणु को बता गए कि प्रसिद्ध साहित्यकार अनूप साहित्यरत्न आए हुए हैं और वे तिवारी जी के यहाँ ठहरे हुए हैं। तुमसे मिलना चाहते हैं, मिल लेना।


 रेणु अनूपलाल की किताबें पढ़ चुके थे। अपने पिता के लेखक मित्र से मिलना उनका सौभाग्य था। अगले दिन तीन बजे वे अनूपलाल जी का चरण-स्पर्श कर सामने खड़े हो गए और अपना नाम बताया। वे रेणु के व्यक्तित्व को देखकर बहुत प्रभावित हुए- किशोर वय का शरीर, लम्बा और सुडौल, पानीदार साँवला-सलोना रंग, सिर पर सघन केश-कुछ ललाट पर छाए हुए, तीखे नाक-नक्श। वे देखते ही मोहित हो गए।


 उन्होंने पूछा- “तुम कविता करते हो ?”


 रेणु के सिर हिलाने पर उन्होंने सुनाने के लिए कहा। रेणु ने अपना लिखा एक सवैया सस्वर सुनाया, जिसकी आखिरी पंक्ति थी-


 कवि रेणु कहे, कब रैन कटे, तमतोम हटे!


 अनूपलाल जी ने तब पूछा- “तुमने अपना कवि नाम रेणु रखा है। रेणु का मतलब क्या होता है ?”


 रेणु ने उत्तर दिया- “जी रेणु का मतलब धूल होता है। मुझे धूल और धरती से बहुत लगाव है!”


 अनूपलाल जी बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने दिल खोलकर आशीर्वाद दिया और समझाया, “पढ़ाई करना बहुत जरूरी है। तुम देशहित में काम कर रहे हो, लेकिन भारत जब आजाद होगा तो पढ़े-लिखे लोगों का ही मान होगा। तुम्हारे बाबूजी तुम्हें पढ़ाना चाहते हैं। तुम्हें कुछ बनते हुए देखना चाहते हैं।वोलंटियरी करने से तुम्हें कुछ लाभ नहीं होगा। देखो रेणु, अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है। पढ़ना शुरू कर दो। किसी स्कूल में नाम लिखाकर। क्या कहते हो ? पढ़ोगे न ?”


 रेणु ने कुछ क्षण मौन रहकर कहा- “हाँ-हाँ, मैं पढ़ूँगा। आप मेरे बाबूजी से कह दें, वे मेरे पढ़ने की व्यवस्था कर दें।”


 अनूपलाल जी ने कहा- “वे चार बजे मुझसे मिलने आएँगे, मैं उनसे कह दूँगा।”


 रेणु को तो पढ़ने का भीषण रोग लगा ही हुआ था। वे नियमित साहित्यिक पत्र-पत्रिकाएँ और पुस्तकें पढ़ रहे थे। स्कूल में पढ़ने से भी उनकी कोई  असहमति नहीं थी। किन्तु, अररिया में रहते हुए उनके भीतर जो प्रेम का संचार हुआ था, वह उन्हें मथता रहता था। द्विजदेनी जी के सानिध्य में रहते हुए वे इस भीषण यंत्रणा से बाहर आने की कोशिश करते रहते थे। वे उन्हें लेकर विभिन्न गाँवों में जाया करते। एक बार वे अपने तीन-चार शिष्यों को लेकर काँग्रेस और गाँधी के संदेश को प्रचारित करते दूर के गाँव के एक सम्पन्न व्यक्ति के यहाँ पहुँचे। उन्होंने सब लोगों के लिए चाय की व्यवस्था की। रेणु के सामने भी चाय का गिलास रखा गया। तब तक वे चाय नहीं पीते थे। उन्होंने चाय पीने से इनकार कर दिया। तब द्विजदेनी जी ने चाय पर एक दोहा बनाकर सुनाया-


 दूध-चीनी-चाय डाली, केतली गरमागरम।

 एक प्याला पी लो रेणु, सर्वरोग विनाशनम।


 यह दोहा सुनकर सब हँसने लगे। गुरु का आदेश था। रेणु ने पहली बार चाय पी। सभी रोगों का विनाश चाय कैसे कर सकती थी ? रेणु को तीन रोग लग चुके थे जो असाध्य थे। पहला रोग पढ़ने-लिखने का था। दूसरा स्वाधीनता प्रेमी का और तीसरा प्रेम का! पहले दोनों रोग उनको विकास के पथ पर ले जा रहे थे लेकिन तीसरा रोग तो उनको तो उनको भीतर-भीतर कुतर-कुतर कर खा रहा था।


 गर्मियों के दिन थे। रेणु के मन में इच्छा हुई कि कविगुरु और शरत को देखा जाए। इनकी चर्चा बंगला पत्र-पत्रिकाओं में ही नहीं, हिन्दी की पत्रिकाओं में भी भरपूर रहती थी। रवीन्द्र और शरत् को तो वे लगातार पढ़ते ही रहते थे। एक दिन बिना किसी को बताए वे कलकत्ता के लिए प्रस्थान कर गए। फारबिसगंज से ट्रेन पकड़कर वे कटिहार जंक्शन पहुँचे। यह पूर्णिया जिले का सबसे बड़ा जंक्शन था। वहीं से कलकत्ता के लिए ट्रेन में बैठकर यात्रा की। इधर उनके गायब होने से उनके पिता और घर वाले बहुत चिंतित हुए। द्विजदेनी जी ने काँग्रेस आश्रम के सभी  शिष्यों से कहा- “रे रेणु कहाँ है, खोज-खोज!”


 लेकिन रेणु तो कलकत्ता पहुँचकर इधर-उधर भटक रहे थे। वे महानगर की भव्यता के चकाचौंध से विस्मित थे। कई दिनों के बाद खोजते-खोजते रवीन्द्रनाथ के महल के द्वार तक पहुँचे। उनके कपड़े धूल-धूसरित हो गए थे। उन्हें गेट पर ही रोक दिया गया। वे कविगुरु के भव्य भवन को देखते ही रह गए। उन्होंने चौकीदार से पूछा- इस जगह का नाम जोड़ासांको क्यों है? उसने बताया कि यहाँ पहले एक नाला था, जिसपर लकड़ी के पतले दो पुल बने थे। एक आने के लिए और एक जाने के लिए। पुल को बंगला में सांको कहते हैं। इसी के कारण इस जगह को जोड़ा सांको पुराने जमाने से कहा जाने लगा। अंग्रेजों ने जब इसका निर्माण किया तो नाले को भूमिगत कर दिया।


 रेणु को रवीन्द्रनाथ के दर्शन तो नहीं हो सके, लेकिन अब शरत से मिलना था। उन्होंने शरत के घर का पता लगाया तो उन्हें मालूम हुआ कि दक्षिण कलकत्ता के बालीगंज इलाके में 24, अश्विनी दत्त रोड में उनका मकान है। जैसे-तैसे वे वहाँ पहुँचे। पर शरत के मकान को खड़ा होकर देखा और सोचा- एक लेखक अपने दम पर इतने बड़े मकान का निर्माण करवाकर रह रहा है। यह बड़ी बात है। फिर उनके मन में आया कि कलकत्ता आए पाँच दिन हो गए हैं और मेरी माँ तथा बाबूजी चिंतित हो रहे होंगे। पितातुल्य तिवारी जी मुझे खोजते हुए भटक रहे होंगे। घर लौटना चाहिए। जो रकम थी, वह भी खत्म होने वाली थी। वे घर की ओर लौटे। घर लौटते हुए उनके मन में विचार आया कि इस तरह फटेहाल घर जाना ठीक नहीं है। वे पूर्णिया के बाद जैसे ही गढ़बनैली स्टेशन आया, उतर गए। वहाँ से वे बड़ी बहन लतिका की ससुराल बरेटा गाँव पहुँचे। दीदी ने नहला-धुलाकर खाना खिलाया। दूसरा कपड़ा पहनने को दिया और पहने हुए कपड़े को धोकर सुखा दिया। दो दिन आराम करने के बाद शरीर में स्फूर्ति आई। फिर घर की ओर प्रस्थान करने के लिए स्टेशन आए।

 गढ़बनैली का छोटा-सा स्टेशन। प्लेटफाॅर्म पर कोयले की छाय बिछी हुई। ऊपर से पुरवा हवा के साथ झमाझम बारिश होने लगी। जोगबनी की तरफ जानेवाली ट्रेन जब पहुँची तो उसमें हर डब्बे के दरवाजे पर अपार भीड़। बहादुर लोग ठेलम-ठेल कर किसी तरह भीतर प्रवेश कर रहे थे। बारिश के कारण हर डिब्बे की खिड़कियाँ यात्रीगण बन्द किए हुए थे। रेणु इधर-उधर पानी में भींगते हुए भीतर घुसने की कोशिश कर रहे थे, पर सफल नहीं हो पा रहे थे। गार्ड साहब की तीखी सीटी के बाद इंजन का मोटा सुर बजा। गाड़ी चल पड़ी। तब तक रेणु इधर-उधर दौड़-भाग ही कर रहे थे।


 चलती हुई गाड़ी का सामने का जो डिब्बा मिला, उसका हैंडल पकड़कर वे लटक गए। दरवाजा बन्द था। बारिश लगातार हो रही थी। दूसरे डिब्बे के दरवाजे पर एक आदमी गिरने ही वाला था कि उसके मित्र ने कहा- हत्था पकड़। हत्था! और इधर कुशाग्र बुद्धि रेणु ने भी हत्था पकड़ लिया।

 रेणु ने इस प्रसंग को अपने ही दिलचस्प अंदाज में लिखा है- “उस समय प्लेटफाॅर्म पर जो हो-हल्ला हो रहा था- वह मेरे ही लिए। गढ़बनैली के अद्य-पगला प्वाइंट्समैन की बोली आज भी कानों के पास स्पष्ट गूँज जाती है- “ए-य! छोटे मियाँ- आँ-आँ! मरेगा साला!”


 छोटे मियाँ उसने मुझ ही कहा था और गाली मुझे ही दी गई थी। बात यह है कि हमारे इलाके में उन दिनों पाजामा पहनने का रिवाज आम नहीं हुआ था। इसे मुसलमानों का ही पोशाक समझा जाता था। पाजामा नहीं-सूथना!

 रेणु भी पहले छोती ही पहनते थे। हाल-फिलहाल में ही उन्होंने पाजामा पहनना शुरू किया था। पाजामा पहनने के कारण ही मियाँ कहा गया था। उन्होंने सोचा- ...छोटे मियाँ मरेगा। हवा और बारिश की मार को कब तक बर्दाश्त कर सकेगा! जलालगढ़ पहुँचने के पहले ही वह गिरेगा-मरेगा। छोटे मियाँ काँप उठा। लपककर ‘हत्था’ पकड़ते समय ही उसने दरवाजे पर फस्र्ट क्लास का रोमन अंक देख लिया था। उसने सोचा- अन्दर कोई अंगरेज या एंग्लो इंडियन बैठा होगा। अनुनय-विनय करने पर दरवाजा खोलेगा। खादी का पाजामा-कुर्ता देखकर बूट की ठोकर मारकर गिरा देगा। छोटे मियाँ का कलेजा धड़कने लगा। जीभ सूखकर पहले लकड़ी हो चुकी थी। मरता क्या न करता!


 छोटे मियाँ के मुँह से ब-मुश्किल निकला- “ओपेन सर! प्लीज! आई एम डाईंग-डाईंग-ओपेन!!”

 दरवाजा खुला। एक गोरी कलाई, एक गोरा मुँह ?

 छोटे मियाँ ने आँखें मूँद लीं- अब बूट मारा!

 हैंडिल से हाथ कैसे छुटा और मैं डब्बे के अन्दर कैसे गया- सो, न आज याद है और न उस दिन!

 गौर वर्ण व्यक्ति कोई गोरा या एंग्लो नहीं ? शुद्ध खादीधारी! स्वजनोचित मुस्कान ? शुद्ध हिन्दी में ही उन्होंने पूछा, “क्यों ? चलती गाड़ी में क्यों सवार हुए आप ?”

 “जी, गाड़ी यहाँ ठहरना ही नहीं चाहती......।” तब गढ़बनैली में कभी-कभार ही गाड़ी रुकती थी। कोई रुक गई तो जल्दी चढ़ जाओ, नहीं तो स्टेशन पर किसी और गाड़ी के रुकने की प्रतीक्षा करते रहो।

 “कौन-सा स्टेशन था यह ?”

 “गढ़बनैली!”

 “कहाँ जाना है ?”

 “सिमराहा स्टेशन!”

 मैं लज्जित हुआ। क्योंकि बर्थ पर बैठी हुई लड़की रेणु के भींगे कपड़ों को देखकर शुरू से ही मुस्कुरा रही थी- एक ही अंदाज में। भले आदमी ने उस लड़की से कुछ कहा। न अंगरेजी, न हिन्दी, न ही बंगला-मैथिली। किन्तु, एकदम ग्रीक या चीनी भी नहीं। मैंने जितना-सा समझा- ठीक ही समझा। उन्होंने कहा था- अभी तो यह गिरकर मरता।..... लूगा ? कपड़े को हमारे गाँव में ‘लूगा’ ही कहते हैं।

 ‘लूगा’ सुनते ही मुस्कुराती हुई लड़की उठी। चमड़े के बक्स से खादी की धोती निकालकर वह अपनी भाषा में बोली, “धोती तो हुई लेकिन कुर्ता ?”

 मैंने कहा, “क्या जरूरत है ? सूख जाएगा.....।”

 भद्र व्यक्ति ने मेरे हाथ में धोती देते हुए बाथरूम का दरवाजा दिखलाया। शहर की धुली खादी की महीन धोती पहनकर निकला- देखा, एक धुला हुआ हाफ शर्ट! पहनकर देखा- बिल्कुल फिट। कमीज के अन्दर गर्दन के पास लाल सूत से एक मोनोग्राम अंकित था टी॰पी॰ क...।

 गाड़ी जलालगढ़ स्टेशन पर आकर रुकी। चेकर ने मुझे गढ़बनैली में ही देखा था। अतः गाड़ी रुकते ही दौड़ा आया- “कहाँ वह छोकरा ?” फिर मुझ पर दृष्टि पड़ते ही कर्कश स्वर में चिल्लाया- “बाहर निकलो!”

 भद्र व्यक्ति ने उसे रोककर कहा, “सिमराहा तक इसके पास थर्ड-क्लास का हाफ टिकट है। फस्र्ट क्लास का बना दीजिए।”

 धोती-कुर्ता लेने के समय मैंने थोड़ा ‘किन्तु-परन्तु’ किया था। इस बार कुछ बोल ही नहीं सका। उधर वह लड़की, जो मेरी ही उम्र की रही होगी- मुस्कुराती जा रही थी।

 इसके बाद, भले आदमी ने मुझे अपने पास बैठाया।

 नाम-धाम, पढ़ाई-लिखाई के बारे में पूछा। मैंने देखा, लड़की ‘चाँद’ मासिक पत्रिका को खोलकर हँसी को छुपाने की चेष्टा कर रही थी।

 मैंने कहा- “इन स्कूलों में मेरा मन नहीं लगता है। पहले गुरुकुल कांगड़ी जाना चाहता था। बाबूजी तैयार नहीं हुए। अब कहता हूँ शान्तिनिकेतन भेज दीजिए। तो माँ तैयार नहीं होती।”

 लड़की ने ‘चाँद’ के पृष्ठों को बन्द कर रख दिया। इस बार भले आदमी ने भी मुस्कुराना शुरू किया। मैं ‘चाँद’ पत्रिका का अंक हाथ में लेकर बोला- “नया अंक है!” फिर ‘दुबेजी की चिट्ठी’ निकालकर पढ़ने लगा। (चाँद पत्रिका में ‘दुबेजी की चिट्ठी’ एक व्यंग्य स्तम्भ था, जिसे उस समय के प्रसिद्ध साहित्यकार विश्वम्भरनाथ शर्मा कौशिक लिखा करे थे।) फिर बात कैसे बढ़ी कि मैंने ‘भारत-भारती’ का सस्वर पाठ शुरू कर दिया- “भगवान भारतवर्ष में गूँजे हमारी भारती!”

 भद्र व्यक्ति मंत्रमुग्ध हुए थे या नहीं, किन्तु मुस्कुराहट मुझे पल-पल उत्साहित कर रही थी। और उनके साथ की लड़की की मुस्कुराहट मुझे उत्तेजित। इसके बाद रवीन्द्रनाथ की कई कविताएँ- “दिनेर शेषे-घूमेर देश घोमता परा ए छाया... भूलाले रे भूलाले मोर प्राण... न वासरे करिलाम पन लेबे स्वदेशेर दीक्षा...।

 बारिश रुक गई थी। मेरा स्टेशन निकटतर होता जा रहा था। स्वरचित कविता सुनाने का समय नहीं था। अब मेरी प्रश्नावली की बारी थी।

 “आपका नाम ? कहाँ जाइएगा ? कहाँ से आ रहे हैं ? घर कहाँ है ?”

 नाम सुनकर तनिक चमत्कृत हुआ था, ‘कोइलावाला’ ?

 घर विराटनगर बताया, तो मुझे अचानक अपने ‘दोस्तबाप’ की याद आई- विराटनगर के खरदार साहब- जिन्हें मैंने देखा नहीं। माँ और बाबूजी के मुँह से सुनी कहानी- दोस्तबाप की.....।

 मैंने कहा, “मेरे दोस्तबाप...... माने मेरे बाबूजी के मित्र विराटनगर में रहते हैं।”

 “क्या नाम है आपके पिताजी के मित्र का ?”

 “खरदार साहब!”

 बस, रूपवती कन्या की हँसी छलक पड़ी। बेवजह की हँसी का क्या अर्थ? मैं अप्रतिभ तनिक भी नहीं हुआ, किन्तु!

 “कौन खरदार साहेब ? वहाँ तो कई खरदार साहेब हैं। नाम क्या है उनका ?....... खरदार साहेब नाम नहीं। वह तो आपके यहाँ जैसे कहते हैं न- मुन्सिफ, डिप्टी कलक्टर.......।“

 छोटे मियाँ का मुँह छोटा हो गया। तो, खरदार साहब नाम नहीं ? वह कुनमुनाया, “नाम नहीं ?...... जिन्होंने टेढ़ी में आश्रम बनाया था। जिनका स्कूल है।”

 “अच्छा! कभी आप गए नहीं विराटनगर ? नहीं ? तो आइए कभी। आपके पिताजी के मित्र पहले से हैं- अब आपसे मेरी मिताई.....।”

 इस बार वह सौभाग्यवती हँसते-हँसते मर गई मानो।

 मैंने कहा, “आने का मन तो बहुत दिनों से है। लेकिन.....।”

 मेरी मंजिल निकटतम की सीमा रेखा पारकर डिस्टेण्ट सिग्नल के पास पहुँची तो सकपकाया- “ये कपड़े ? कमीज-धोती ?”

 बोले, “ठीक है आप आ रही रहे हैं!”

 अपने गाँव का स्टेशन- सिमराहा स्टेशन- इतना नजदीक पहुँचने का दुख पहली बार हुआ। इसके पहले, गाड़ी पर सवार होते ही सोचता- बीच के स्टेशनों पर नहीं रुककर- सीधे हमारे स्टेशन पर आकर क्यों नहीं रुकती गाड़ी ?

 रेणु ने अपने जीवन के प्रसंगों को लिखते हुए दृश्यों की संरचना सही की है, किन्तु कुछ तथ्यों में उनसे भूल हो जाती थी। विश्वेश्वर प्रसाद कोइराला से टेªन में पहली बार उनकी भेंट हुई थी, किन्तु वे द्वितीय श्रेणी में यात्रा कर रहे थे। उस समय उनकी उम्र बाईस साल की थी। उनकी पत्नी सुशीला कोइराला पन्द्रह साल की थी। वे तब पटना से अपनी पत्नी को लेकर विराटनगर जा रहे थे। रेणु की साहित्यिक प्रतिभा से वे चमत्कृत हुए थे। अपने घर जाकर अपने इस नवोदित मित्र के बारे में रस ले-लेकर बताया था। इस प्रसंग को उन्होंने रेणु पर लिखे अपने संस्मरण में इस प्रकार बताया है-

 बात 1935 की है। महीना मुझे याद नहीं। मैं अपनी पत्नी सुशीला के साथ अपने घर विराटनगर (नेपाल) जा रहा था। हमारी नई-नई शादी हुई थी। हम कटिहार से जोगबनी जाने वाली गाड़ी में सफर कर रहे थे। जोरों की वर्षा हो रही थी। एक स्टेशन से गाड़ी जब खुली तो देखता हूँ कि एक किशोर हमारे डिब्बे के बाहर डंडी पकड़कर पाँवदान पर खड़ा है। गाड़ी साँय-साँय करती हुई द्रुतगति से दौड़ने लगी थी। वह युवक भींगकर पानी-पानी हो रहा था। हमारा डब्बा सेकेंड क्लास का था। उन दिनों का राजसी सेकेंड क्लास! उस डब्बे में हम केवल पति-पत्नी थे। हम दोनों इसी उधेड़बुन में थे कि उस नितांत अपरिचित व्यक्ति को डब्बे के अन्दर आने दिया जाए या नहीं। क्या यह कोई उचक्का तो नहीं है हो सकता है वह चोर हो और हमें एक प्रकार से निर्जन पाकर हमारी हत्याकर हमारा सामान लेकर चलता बने! लेकिन सुशीला से रहा नहीं गया। उसकी सतही सही, उस समय की हालत पर तरस खाकर उसने डब्बे का दरवाजा खोल दिया। अन्दर आने पर जब उसने देखा कि डब्बे में पति-पत्नी सरीखे केवल दो ही प्राणी हैं तो वह सकते में आ गया और सीट पर बैठने से कतराता रहा, लेकिन बैठने के लिए हमारे बारम्बार अनुरोध पर वह एक सीट पर दुबककर बैठ गया।

 रेणु और विशेश्वर प्रसाद कोइराला को इस प्रथम भेंट की याद जीवन भर रही। और रेणु के जीवन में भी यहीं से एक मोड़ आया।

 जब वे सिमराहा स्टेशन पर उतरकर पाँव-पैदल अपने गाँव पहुँचे तो अपने पिताजी के एक मित्र से भेंट हुई। उन्होंने रेणु से पूछा, “अरे तुम इतने दिन कहाँ थे ? तुम्हारे पिताजी आग-बबूला हैं। कह रहे हैं कि जो नया खड़ाऊँ बनवाया है, उसी से इस बार पिटाई करूँगा।”

 रेणु पिता की पिटाई की बात सुनकर डर गए। उन्होंने सोचा- अभी घर जाने में खतरा है! उन्होंने कहा, “चाचाजी, आप मेरे पिताजी को कह दें कि मैं सकुशल हूँ। लेकिन वे जब तक गुस्से में रहेंगे और मारपीट करेंगे, मैं घर नहीं आऊँगा। मैं फारबिसगंज जा रहा हूँ।”

 और रेणु सिमराहा लौट गए। पर कोई ट्रेन नहीं थी। वे पैदल ही लगभग चैदह किलोमीटर की दूरी तय कर रेलवे लाइन पर चलते हुए अर्द्धरात्रि को फारबिसगंज पहुँचे। पिताजी की यह उक्ति वे बार-बार स्मरण करते-

 पाँच वर्ष की उम्र तक लालन

 उसके बाद सोलह वर्ष की उम्र तक ताड़न

 सोलह की उम्र के बाद पुत्र से मित्रता के व्यवहार का पालन।

 लेकिन अभी तो वे पन्द्रह साल के ही थे यानी ताड़न की अवस्था। वह भी खड़ाऊ से ताड़न।

 फारबिसगंज शहर में सब दुकानें बन्द थी। वे स्टेशन के पास बन्द हो चुकी गाजीराम की दुकान के सामने के एक बेंच पर पड़े रहे। काँग्रेस आश्रम जाने का मतलब था फँस जाना। उन्होंने विराटनगर जाने का फैसला कर लिया था। उन्होंने सोचा कि भागलपुर, गौहाटी और कलकत्ता तो घूम आया हूँ, लेकिन अब तक हिमालय की ओर नहीं गया। बगल में सटे मोरंग जिले में नहीं गया। विराटनगर अब तक नहीं गया। तो मौका है, कल की ट्रेन पकड़कर जोगबनी जाना है और वहाँ से विराटनगर तो सटा ही हुआ है।

 माँ उनको कई बार एक महापुरुष की कहानी सुनाती थी कि वह जब गौने के बाद ससुराल आई थी तो चैथे ही दिन शाम को एक टप्परगाड़ी से एक देवता जैसा पुरुष और उसके साथ देवी दुर्गा जैसी उनकी स्त्री का पदार्पण हुआ। उनकी स्त्री बुखार से लबेजान थी बेचारी ? तुम्हारे बाबूजी ने तुम्हारी दादी से कहा था- “माँ, शायद देवता ही है वे!”

 वे देवता यानी दिव्य पुरुष विश्वेश्वर प्रसाद कोइराला के पिता कृष्ण प्रसाद कोइराला थे। नेपाल की राणाशाही के दमन से बचने के लिए वे नेपाल से चुपचाप पलायन कर गए थे। विराटनगर से औराही-हिंगना बैलगाड़ी से लगभग बीस किलोमीटर दूर चलकर आए थे। जब उनकी पत्नी स्वस्थ हो गई थी, तब जाते हुए उन्होंने कहा था- “ये दिन और यह दोस्ती कभी नहीं भूलूँगा!”

 रेणु जी के पिताजी के वे दोस्त थे और रेणु ने उन्हें कभी नहीं देखा था, पर वे जानते थे कि ये खरदार साहेब उनके ‘दोस्तबाप’ हैं। पिछले साल उनके बाबूजी ने बताया था कि नेपाल के नए प्रधानमंत्री ने खरदार साहब को नेपाल के विराटनगर में स्कूल खोलने की इजाजत दे दी है और उन्होंने वहाँ एक ‘आदर्श विद्यालय’ की स्थापना की है। इसके पहले बिहार में वे टेढ़ी आश्रम में शिक्षा का आदर्श रूप प्रस्तुत कर रहे थे। जब विराटनगर में उन्होंने आदर्श विद्यालय की स्थापना की थी, तब टेढ़ी आश्रम के सभी तपे-तपाये शिक्षक भी आ गए थे। हिन्दी के प्रसिद्ध लेखक और काकोरी कांड के अभियुक्त मन्मथनाथ गुप्त के पिताजी इस स्कूल के हेडमास्टर थे।

 सुबह की पहली गाड़ी से रेणु फारबिसगंज से जोगबनी पहुँचे। जोगबनी में रेलवे का टी-स्टाॅल था, जहाँ बहुत अच्छी चाय बनती थी। वे रात में खाना नहीं खा पाए थे। चाय पीकर तृप्त हो गए। फिर भारत और नेपाल सीमा पर नो मेन्स लैंड अर्थात् दस गज जमीन को पार किया। यह पहली बार सरहद के पार जाना था। उस पार एक जूट-मिल बन रहा था। रेणु नेपाल की धरती पर पहली बार आए थे, लेकिन नेपाल के बारे में तब भी काफी जानकारी रखते थे। उन्होंने लिखा है- “स्टेशन के पूरब, सीमा के पास अन्य यात्रियों के साथ मोटर-लौरी की प्रतीक्षा करते समय मालूम हुआ कि बीड़ी-सिगरेट जिसके पास पकड़ी जाएगी- उसको काठ से धुन दिया जाएगा और जेल भेज दिया जाएगा। बात उन दिनों की है जब नेपाल के महाराजाधिराज यानी पाँच-सरकार के जन्मोत्सव में एकाध दीप टिमटिमाते थे और तीन-सरकार (प्रधानमंत्री) के जन्म-दिन पर विराटनगर में होली और दीपावली एक साथ मनाई जाती थी। तीन दिनों तक उत्सव के बाजे बजते रहते थे। इसीलिए, छोटी-सी बात पर भी काठ से धुना जाने का खतरा था। इतनी-सी राजनीतिक चेतना उस समय भी थी।”

 नेपाल की सीमा में प्रवेश कर रेणु किसी वाहन की प्रतीक्षा करने लगे। कुछ समय के बाद एक ट्रक विराटनगर से आकर रुका। उसमें मजदूरों का हुजूम सवार था। उनके उतरते ही धड़ाधड़ विराटनगर जाने वाले मजदूर उसमें चढ़ने लगे। रेणु को ट्रक में खचाखच भरे नेपाली मजदूरों के बीच खड़ा होकर यात्रा करने में भय लगा। वे ड्राइवर के पास गए और अपने बगल में बिठाकर ले चलने की याचना करने लगे। ड्राइवर के बगल में एक पंडितजी बैठे हुए थे। उन्होंने रेणु को अपने बगल में बैठा लिया। बैठते ही एक सुगन्ध उनके मन और प्राण को आह्लादित करने लगी। पंडित जी ने पूछा- “कहाँ जाना है ?”

 रेणु ने जवाब दिया- “अपने मित्र के घर।”

 फिर सवाल- “क्या नाम है मित्र का ?”

 “नाम! अस्पताल के पच्छिम घर है।....... कोइलवरवाला। खूब गोरे हैं। मुस्कुराते रहते हैं। खादी पहनते हैं।”

 जोगबनी से विराटनगर की कच्ची सड़क कीचड़ से भरी थी।

 जंगलों और तराई के बीच कच्ची सड़क की कीचड़ को मथती हुई गाड़ी विराटनगर के बाजार-अड्डा पर जा लगी। पंडित जी ने कहा, “चलो, मैं पहुँचा दूँगा। मेरा घर भी अस्पताल के पच्छिम है। लेकिन, कोई कोइलवरवाला मेेरे घर के पास नहीं रहता है।”

 तब रेणु ने कहा, “शायद कोई कोयलावाला रहता हो ?” पंडित जी ने तब खिलखिलाकर हँसते हुए कहा था, “नीचे कीचड़ और गड्ढे देखकर सावधानी से चलो।”

 रेणु ने जिज्ञासा प्रकट की, “यहाँ कोई म्युनिसिपल बोर्ड या लोकल बोर्ड जैसी कोई चीज नहीं ?”

 पंडित जी ने तब समझाया, “अपने मित्र से पूछना घर चलकर। यहाँ रास्ते में लोग कीचड़ और धूल से बचते हैं, बोलते नहीं।”

 पंडित जी रेणु को साथ लेकर एक लकड़ी के दो मंजिले मकान के सामने पहुँचे। ट्रेन वाली लड़की ऊपर की एक खिड़की से मुस्कुराती हुई झाँक रही थी। पंडित जी ने कहा- “यह रहा तुम्हारे मित्र का घर- लकड़ी से बना दुमंजिला।“ फिर उन्होंने आवाज दी, “बिशु को मीत आयेकोछ!”

 सीढ़ी के पास बैठकर वहाँ रखे पानी से पंडित जी अपने पैर धोने लगे। रेणु ने कहा- “आपका बहुत-बहुत धन्यवाद पंडित जी! अब आप जाइए!”

 पंडित जी ने कहा- “पहले पैर धो लो!”

 रेणु ने अपने पैरों को धोकर जब सिर ऊपर किया तो देखा कि उनके मित्र सहित बहुत लोग दुमंजिले से नीचे झाँक रहे हैं। वे सभी हँस रहे थे। पंडित जी उन्हें ऊपर पहुँचाकर नीचे ही अपने आसन पर बैठ गए। रेणु के मित्र ने बताया कि ये मेरे पिताजी हैं। आयँ पंडित जी ही खरदार साहब हैं और ‘दोस्तबाप’ हैं! जैसे ही ज्ञात हुआ वे दौड़कर गए और ‘दोस्तबाप’ का चरण-स्पर्श किया।

 अब दोस्तबाप को रेणु ने पहली बार ‘पिताजी’ कहकर सम्बोधित किया और जीवनभर करते रहे। पिताजी ने पूछा- “उधर ये लोग क्यों हँस रहे हैं, जानते हो ?”

 इसका कोइराला बन्धुओं की सबसे छोटी और लाड़ली बहन बुन्नू अर्थात् विजयलक्ष्मी ने उत्तर दिया, “छक्क पर्ने अचरज की बात! हाफ शर्ट पहना तारिणी दाज्यु का और दोस्त कहते हैं सान्दाज्यु को!”

 बिशू यानी विशेश्वर प्रसाद कोइराला रेणु से उम्र में बड़े थे। उनके बाद केशव और उनके बाद तारिणी थे। टेªन में जो शर्ट उन्होंने पहना था, वह तारिणी का था। तारिणी उनके हमउम्र थे। मुस्कुराने वाली लड़की ने अपने हँसने का राज खोला, “मैं तो ट्रेन में ही यह नजारा देखकर हँस रही हूँ कि इन्होंने कहा, अब आपसे मेरी मिताई हुई।” फिर वह खिलखिलाकर हँसने लगी। बी॰पी॰ यानी सान्दाज्यु ने परिचय कराया- “यह सुशीला है। आपके दर्जे में ही पढ़ती है, लेकिन तुम्हारी तरह ‘भारत-भारती’ का सस्वर पाठ नहीं कर सकती!”

 अब उस शर्ट का मालिक टी॰ पी॰ अर्थात् तारिणी का आगमन हुआ और रेणु को अपनी बाँहों में भर लिया और फिर सुशीला से कहा, “देखा भाभी! देखा न! मैंने कहा था न, मेरी खोई हुई कुछ खोजकर वापस आएगी। मुझे तो एक ‘मुसल्लम मितर’ मिल गया।”

 पहले बिशेश्वर ‘मीत’ बने, फिर उसे बदल दिया गया और तारिणी मीत बने। सुशीला भाभी को रेणु ने प्रणाम किया, पर उसने आशीर्वाद नहीं दिया, सिर्फ मुस्कुराती रही।

 रेणु दो दिन कोइराला-निवास में रहे और इतना प्यार तथा अपनत्व उन्हें मिला कि अपने को इस परिवार का सदस्य ही समझने लगे। माँ दिव्या कोइराला ने घोषणा की, “अब मेरे पाँच नहीं छह पुत्र हैं।” पाँचों भाइयों ने कहा, “हम पाँच नहीं छह भाई हैं।”

 रेणु जब लौटने लगे, तब सबने एक स्वर में कहा, “जब भी इच्छा हो, चले आना। तुम्हारा एक घर विराटनगर में भी है।”

 रेणु लौट रहे थे, पर उनके भीतर यही वाक्य अनुगूँजित हो रहा था- तुम्हारा एक घर विराटनगर में भी है। धीरे-धीरे यह वाक्य उनके भीतर घर कर गया। सहसा रवीन्द्रनाथ की उनकी पढ़ी हुई एक कविता की दो पंक्तियाँ याद आ गईं- निःस्व आमि, रिक्त आमि, देबार किछु नाई/आछे शुधु आलोबाशा, दिलाम आमि ताई! अर्थात् मेरा स्व यानी मैं होने का बोध समाप्त हो गया है, मैं भीतर से रिक्त हो गया हूँ, कुछ देने की स्थिति में नहीं हूँ। मेरे पास सिर्फ प्रेम है, वही मैंने दिया। यह देना अपना हृदय ही सौंप देना था। अपनी पूरी भाव-सम्पदा सौंपकर  ही तो सब कुछ पाया जा सकता है।


यशवंत नगर,

हजारीबाग-825301

(झारखण्ड)

मो॰: 6204130608/6207264847


Viewing all articles
Browse latest Browse all 3437

Trending Articles



<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>