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कवि की कथाएं

 #कवियों_की_कथा-57

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   इलाहाबाद(प्रयागराज) के श्रीरंग एक सुपरिचित कवि और आलोचक हैं! तीन कविता संग्रह सहित उनकी  दर्ज़न भर पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं ।वे पेशे से वकील हैं और जनता के पक्ष में वकालत करते हैं ।यही जनपक्षधरता उनकी लेखनी  की प्रबलता है।आज भूमंडलीकरण से उत्पन्न संकटों में से एक प्रमुख संकट है-पहचान का संकट! उनकी कविताओं में पहचान के संकट से जूझ रहे  आम जन के संघर्षों को स्वर मिला है,,!

  आज इस काॅलम की सत्तावनवीं कड़ी श्री श्रीरंग की कविताओं में आम जन के पक्ष में की गई वकालत को देखें ,,!


         कवि की कथा=कवि की कलम से 

                 #कवि_कथा


      लिखना पढ़ना बचपन से ही मेरे खून में रहा है । उसे एक शक्ल देने का काम मेरे जीवन की परिस्थितियो ने किया । मेरे गुरुओ और मित्रों ने किया ।  मेरा जन्म एक पारम्परिक कर्मकाण्डी पुरोहित ब्राहमण परिवार में हुआ जिसमे लिखना पढ़ना भी एक तरह से जीविका का साधन ही था । पिता भजन लिखते थे । उनके पिता भी भजन लिखते थे यानी मेरे बाबा भी लिखते थे स्वतंत्रता संग्राम के दौर में देश भक्ति के गीत भी लिखते थे । उसे ही गाते थे । पूजा पाठ भजन कीर्तन कथा ही हमारे परिवार की जीविका का साधन था । तो उसी संस्कार और परम्परा में मैने भी बचपन में भजन कीर्तन लिखता था । गाता था । लेकिन कुछ बडा हुआ और बडी कक्षा में गया तो पता चला कि साहित्य में तरह तरह के कवि हुए हैं और आधुनिक कवि अलग तरह का कविताएं लिखते है । ये भी पता चला कि हमारी मलिन बस्ती के जिस मंदिर में हम रहते थे वहाँ आने वालों में पद्मकांत मालवीय भी कवि हैं । जो पास के एक बडे बंगले में रहते है । थोड़ी ही दूर अशोक नगर में रहने वालीं जिनके यहाँ जजमानी लेने मेरी दादी जाती थी वे भी बहुत बड़ी कवयित्री हैं । वे महादेवी वर्मा थीं । एक बार हमारे स्कूल में मुख्य अतिथि बनकर आयीं, रामजी पाण्डे जी के साथ उस कार्यक्रम मैने भी एक कविता सुनाई जो पहली उन्हीं लोगों की तरह की नयी किसम की कविता थी । उन्हें वह कविता अच्छी लगी और मैं पुरस्कृत हुआ । उनके प्रति मेरा सम्मान और आदर भाव तभी से बना फिर हमेशा रहा । बाद में रामजी पाण्डे के पुग बृजेश से मेरी दोस्ती हो गयी और वहाँ साना जाना हमेशा जारी रहा । बाद में गीतकार यश मालवीय से परिचय हुआ जो रामजी पाण्डे जी के दामाद हैं । उनके साथ एजी अड्डे की बैठक शुरू हुई और मैं नवगीत लिखने लगा । वही एहतराम इस्लाम की सोहबत मिली तब कुछ गजलें भी लिखी । कर्मचारी नेता कामरेड सुरेश कुमार शेष का साथ मिला और मार्क्सवाद को कुछ जाना । यही एजी अड्डे पर ही लक्ष्मी कांत वर्मा दूधनाथ सिंह खीन्द्र कालिया ममता कालिया शेखर जोशी मार्कण्डेय नीलाभ  अनिता गोपेश अजामिल , श्रीप्रकाश मिश्र हरीशचंद्र पाण्डे 'जगदीश गुप्त 'अजीत पुष्कल  सुभाष चंद्र गांगुली 'शिवकुटी लाल वर्मा आदि के बारे मे जाना, जिनसे मुलाकात की । कई तो यहीं पर मिलते ही थे । लक्ष्मी कांत वर्मा जी से बैठकी का लम्बा दौर चला और मै समकालीन कविता लिखने लगा । मेरे पहले संग्रह यह कैसा समय को लम्बी भूमिका उन्होंने लिखी राजेश जोशी ने उसका फ्लैप लिखा । मुझमे कुछ प्रतिभा देखकर दूधनाथ सिंह जी ने मुझे अपने घर बुलाया और मुझे जनवादी लेखक संघ का सदस्य बना लिया । मैं उनका विद्यार्थी नहीं था किन्तु उनका शिष्य बन गया । उन्होने मेरी कविताओ पर अपनी राय दी और मेरा कविता पाठ रखवाया । इसमें मेरे ही जैसे कवि रतीनाथ योगेश्वर हीरा लाल आदि भी रखे गए । हम जनवादी हो गए । बाद में मैं सी पी एम का विधिवत सदस्य बन गया । तब से लिखना पढ़ना जारी है अब तक तीन कविता संग्रह चार कविता पर आलोचना की किताबे और तीन चार किताबे सामाजिक राजनैतिक श्रेणी की प्रकाशित हो चुकी है । हाल में असुर जनजाति पर मेरी किताब लोक भारती राजकमल प्रकाशन समूह से आयी है । लिखना पढ़ना आज भी जारी है । आज मैं पेशे से वकील हूँ और साहित्य में जनता के पक्ष से जिरह करता हूँ ऐसा वरिष्ठ कवि आलोचक प्रो0 राजेन्द्र कुमार जी ने मेरे बारे में आशीर्वाद स्वरूप कहा है । भाई शिरोमणि महतो का आभार जिनके आग्रह पर मुझे आप सबके सामने यह सब बताने का सौभागय मिला ।


#कविताएँ=


01-पिता, रोटी और बच्चे 

   

दिन भर हाथ पैर मारते पिता

बोलते झूठ सच

किसी तरह

करते

पेट का प्रबन्ध ...

घर लौटने पर/माँ

नोचने लगती मुँह

वरक्कत नहीं कमाई में

परई भर रहती

दिन की

परई पर

रात की

अपने करम पर

रोती भर भर आंसू माँ

पर रो नहीं पाते पिता

सारा गुस्सा

उतारते माँ पर पिता

माँ खीजती बच्चों पर ...

खटते पिता

खटती माँ

बनता जो मिलता सीधा-पिसान

डरे सहमे चुपपचाप खा लेते जो मिलता बच्चे

खाली आतों में पानी भर कर सो जाती माँ

बच्चे रोज देखते माँ को

रोज देखते पिता को

रोज देखते तकदीर को

जो बदल ही नही रही थी पीढ़ियों से ...।


02-पहचान का संकट 


एक दिन

मुझे

न जाने क्या सूझा कि

मैं खुद को घर पर छोड़कर

निकल पड़ा बाजार घूमने

मैं

सबको पहचानता

पर न पहचानता मुझे कोई

आते जाते परिचितों को मैं

दुआ सलाम करता पर

कोई जबाव न देता

या हिलाता सिर भी तो

कुछ इस तरह से कि

कौन है सिरफिरा

जो कर रहा है अन्जानों को सलाम ...

गलती किसी की नहीं

सिर्फ और सिर्फ मेरी थी जो

मैं

अपनी पहचान घर छोड़ आया था

और

खाक छान रहा था सड़कों की

उस दिन मुझे लगा

कितना अप्रीतकर होता है

अपनी पहचान का साथ न होना

मै देर रात जब

लौटा घर

पहचान खँूटी पर टँगी थी

देर तक बतियाता रहा

बतायी बाजार वाली बात

वह खूब हँसी, ठहाके लगाये

मैं डूबता चला गया

अपनी पहचान की हँसी में ...।


।। 

03- कुछ छोटी कुछ बड़ी बात 

                       (पाब्लो नेरूदा के प्रति)

बड़ा कवि

अपने पाठक में भी

कविता के बीज रोपता चलता है

बड़ी कविता

अपने भीतर

अनेक छोटी कविता के बीज रोपती है

बड़ा आदमी

छोटेपन से ऊपर उठ कर ही बनता है बड़ा,

साहित्य में

अपने समय का समूचा झूठ भी

उपस्थित होना चाहिए सच की तरह

कोई जीवन आदर्श नहीं

जीवन के अपने आदर्श होते हैं

पाब्लो तुम्हारे जीवन के आदर्श

हमारे जीवन के आदर्श बने

इसी कवायद के साथ कविता लिखता हूँ

जो संभव है कविता ही न हो ....।

।। 


04- नुक्कड़ से नोमपेन्ह 

(कम्बोडिया में युद्धरत आम आदमी के पक्ष में)


वे जो

बहुत सुबह नहीं निकलते घर से बाहर

या फिर नहीं करते

किसी लाल गोले की पूजा

देर रात गए

जब महानगर की बसें चलनी बंद हो जाती हैं

कमरों में सिटकनी लगाकर

चित्त हो जाता है महानगर

लौटते हैं घर

और बची-खुची रात

उड़ेल देते हैं औरतों के संसार में ......

वे जो

नुक्कड़ पर सारा दिन

दुनिया के सर्वोत्तम महामहिमों के

पाजामें का नाड़ा खोलने में

बिताते हैं/खाते हैं लाई चना

या फिर दबा लेते हैं होंठों के नीचे सुर्ती

अनगिनत चाय की प्यालियाँ

झोंकते रहते हैं पेट की भट्टी में ........

वे जो

बहुत गंभीर होने पर

जोरदार ठहाका लगाते हैं/पीटने लगते हैं मेज

बातों-ही-बातों में

समुद्र के अथाह अपार जल को

हजारों फिट ऊपर उछालने में

तनिक विचलित नहीं होते

आम-आदमी के पक्षधर

वे जो

दाढ़ी को उल्टे ताज की तरह धारण करते हैं

जिनकी दाढ़ी के एक बाल से

लेखपाल कर सकता है

हजार बार धरती की पैमाइश ...........

वे जो केवल

आग की तरह गर्म

हवा की तरह आकारहीन या

पानी की तरह पतले नहीं होते

उनके ही शब्दों की पीठ पर

यात्रा करते हैं विचार

नुक्कड़ से नोमपेन्ह तक ......।


                                         

05-नई सहस्राब्दी का सच


इस नयी सभ्यता में

जो कि है सूचना क्रान्ति का युग

सच बोलने की मनाही तो नहीं है कहीं

पर झूठ को ज्यादा दी जाती है तरजीह

अब ज्यादा फायदेमंद नजर आता है झूठ

सच की बनिस्बत


लोग 

झूठ बोलते-बोलते

झूठ सुनते-सुनते

झूठी हँसी, झूठी दिल्लगी

और झूठी जिन्दगी के इतने आदी हो चुके

हैं कि

यह सब झूठ ही सच लगता है


लेकिन 

कुछ माहिर हैं

जो निकाल लेेते हैं झूठ के बीच से

छाँटकर सच

और झेंप मिटाते हुए

बड़े-बड़े लोग

झूठी हँसी हँसने लग जाते हैं

पीठ थपथपाते हुए

चलो कोई तो है सच और झूठ की पहचान

करने वाला


वैसे इस नये समय में

सच की न तो किसी को जरूरत है

न किसी की मजबूरी

खाने को तो अभी भी लोग

खाते हैं

सच बोलने की ही सौगन्ध

लेकिन झूठ बोलने के सिवा कुछ नहीं

बोलते 


और यह झूठ ही

नई सहस्राब्दी का 

सबसे बड़ा सच है...।

-------


06-सौन्दर्य 


पहाड़

 ढँक जाता है

बर्फ  से इतना

 कि दिखता ही नहीं पहाड़

  पहाड़  के सिर पर लद जाता  है वर्फ का  पहाड़

वर्फ को  कभी बोझ नहीं मानता पहाड़


पृथ्वी 

लादे रहती  है  सिर  से पैर तक 

 नदी , जंगल , समुद्र,पहाड़

घरती की  पीठ पर होते है  कई -कई पहाड़

 पृथ्वी  दुनिया  के  बोझ से रहती है झुकी- झुकी

इसी से

 पृथ्वी कही जाती   है  धरती  

घरती के लिए  कभी भी

बोझ नहीं होता पहाड़


दूसरों का बोझ उठाने से ही     

दुनियाँ  बनती है सुन्दर  

भले ही  ज़िन्दगी में हों

दुख के लाखों  पहाड़  

पहाड़ का बोझ नहीं होती  बर्फ 

धरती  का बोझ नहीं

 होता    पहाड़ ।


07-अन्दाज-बे-अंदाज


जिन्दगी का अपना  होता है

 एक खास अन्दाज---

वाहन-चालक

पहिया नहीं ; गङ्ढा देखता है

और बचा लेता है

पहिए को गड्ढे में जाने से ,

अपने अन्दाज से

 चलती है गाड़ी---

सितार वादक

तार नहीं  , तार का व्यवहार देखता है

आँख मूँदकर बजाता है सितार 

बेसुरे समय में रचता है

सुरों का संसार

अपने खास अन्दाज से ---

आदमी 

मुँह नहीं देखता 

 कौर   मुँह में ही डालता  है

लेता है जीवन में  जीवन के स्वाद , 

अपने अन्दाज से---

 करने से होता है काम 

मेहनत और लगन से

 हो रियाज  

तो  पैदा हो ही जाता  है     एक अन्दाज 

अन्दाज जरूरी है जिन्दगी के लिए

जैसे गृहणी के लिए -दाल में नमक का अन्दाज ---

 अन्दाज से ही  बदलता है

 जीने का अन्दाज 

अन्दाज और तजुरबे  से ही 

ऑख मूँद कर भी 

होता जाता है सटीक काम

हर काम का होता है अपना अन्दाज ---

देखा-देखी 

करते हैं -नौसिखिए,- -सीखते-  सीखते 

एक दिन वे भी सीख ही जाते  हैं अन्दाज ---

लेकिन;

देखकर भी 

कुछ नहीं 

सीखते 

केवल --  --       बेअन्दाज---

बे-अन्दाजगी कितनी बढ़  चुकी है 

 हमारे समय में

किसी को नही है अभी 

इस बेअन्दाजगी  का अन्दाज ---।

--------

                                  

#परिचय=


            श्रीरंग


जन्म =सन् 1964


संप्रति =अधिवक्ता, इलाहाबाद हाईकोर्ट 


 पुस्तकें = तीन कविता संग्रह, चार आलोचना की किताबें, 

               चार अन्य किताबें ।

                                        

सम्मान = हिन्दी सेवा सम्मान 

               सर्वेश्वर दयाल सक्सेना सम्मान 

                वसु मालवीय कविता  सम्मान

                डा0 सीताराम दीन स्मृति सम्मान


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