हंस कर मानना या रोकर / रवि अरोड़ा
सिंधु बोर्डर पहुँचते ही किसी अनजान आदमी ने हमारे हाथ में खीर भरा एक डोना थमा दिया । थोड़ा आगे बढ़े तो एक जगह गर्मा गर्म पकोड़े बँट रहे थे । हाथ जोड़कर किए गए अनुरोध पर वे भी जीम लिये । आगे भी पॉपकॉर्न , गोलगप्पे, बर्गर , चाय-बिस्कुट , दूध , जलेबी , हलवा , छोले-चावल , आलू- पूड़ी जैसे अनेक स्टाल मिले । दाल-रोटी व सब्ज़ी वाले तो अनगिनत नज़र आये । किसी के भी पास से गुज़र जाओ तो वह आपसे वैसे ही खाने का कुछ ऐसे अनुरोध करेगा जैसे गुरु पर्व पर छबीलों पर मीठा जल पिलाया जाता है । चलते-चलते थक गये मगर खाने पीने की चीज़ें दिखनी बंद नहीं हुईं । एक तिपहिया में बैठे तो कोई ज़बरन हाथ में लड्डू ही थमा गया । इसके बाद तो क्षमा की मुद्रा में हाथ ही बाँधने पड़े और जैसे ही कोई कुछ खाने-पीने का अनुरोध करे , मुआफ़ी को वही जुड़े हाथ उसके आगे कर दिये ।
पारिवारिक पृष्ठभूमि सिख क़ौम से जुड़ी है अतः इस धर्म को मैं भली भाँति समझता हूँ । इसके गुरुओं ने वंड छको यानि मिल बाँट कर खाने, संगत और पंगत, लंगर और दसवंत यानि आमदनी का दसवाँ हिस्सा समाज पर लगाने की जो सीख दी थी , उसका दामन इस क़ौम ने आज तक नहीं छोड़ा है । दिल्ली की सीमाओं पर चल रहे एतिहासिक किसान आंदोलन में सेवा का जो यह भाव दिखा वही सिख धर्म है । सैंकड़ों सालों से दुनिया भर के लाखों गुरुद्वारों में जो काम यह क़ौम कर रही है वही काम वह अब किसान आंदोलन में भी कर रही है यानि निष्काम सेवा । तभी तो कोई कपड़े धो रहा है तो कोई जूते पालिश कर रहा है । कोई मुफ़्त खिला पिला रहा है तो कोई कई किलोमीटर लम्बे धरनास्थल पर मुफ़्त सवारियाँ ढो रहा है । जिसे रोटी बनानी आती है वह रोटी बना रहा है और जिसे केवल गुरुबाणी का पाठ करना आता है तो वह वहाँ वही कर रहा है ।
किसान आंदोलन में पंजाब के किसान यानि बड़े भाई को सिंधु बोर्डर पर यह सब करते देख हरियाणा के किसान यानि छोटे भाई भी उसी रंग में रंग गए और उन्होंने न केवल टीकरी बोर्डर पर यही सब कर दिखाया बल्कि सिंधु बोर्डर पर भी सब्ज़ियों और दूध-दही की कोई कमी नहीं होने दी । हालाँकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान की यह संस्कृति नहीं मगर किसी से पीछे रहने को वो भी तैयार नहीं अतः ग़ाज़ीपुर बोर्डर पर भी खाने पीने के तमाम सुख हैं । पंजाबियों की तर्ज़ पर वे भी राह चलते को रोक रोक कर खिला-पिला रहे हैं । सिंधु बोर्डर पर देश-दुनिया के गुरुद्वारों व सिख संघटनों द्वारा जो सेवा की जा रही है टीकरी पर वह काम हरियाणा के जाटों की खापें तथा ग़ाज़ीपुर बोर्डर पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश का समृद्ध किसान कर रहा है । बेशक तीनों संस्कृतियाँ अलग अलग हैं और उनकी मान्यताएँ व परम्पराएँ भी मेल नहीं खातीं मगर किसान हित के नाम पर गंगा-यमुना-सरस्वती का यह अनूठा संगम नमूदार हुआ है । वक़्त बताएगा कि इस अनूठे संगम पर आने वाले वक़्त में कितनी पीएचडी होंगी ।
पता नहीं क्यों सरकार इसे सामान्य किसान आंदोलन ही मान कर चल रही है । जबकि साफ़ नज़र आ रहा है कि यह अब धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक आंदोलन भी हो चला है । ऊपरी तौर पर खेती-किसानी से जुड़े मुद्दे ही इस आंदोलन में छाये हुए हैं मगर बात केवल इतने भर पर रुकने वाली नहीं है। यदि यह आंदोलन सफल हुआ तो यक़ीनन देश की दशा और दिशा पर इसका दूरगामी प्रभाव पड़ेगा और खुदा न ख़ास्ता यह असफल हुआ तब भी इसकी छाप आने वाले वक़्त पर बहुत गहरी पड़ेगी । गाँव पर शहर, खेती पर उद्योग, वंचित पर समृद्ध और मजलूम पर ताक़तवर को तरजीह की राजनीति को इस आंदोलन ने वो झटका तो दे ही दिया है कि अब कोई तानाशाह बहुसंख्य के हितों से यूँही कोई इकतरफ़ा समझौता तो नहीं कर पाएगा । मेरी बात पर आपको यक़ीन नहीं तो कुछ घंटे और रुक जाइये । 26 जनवरी को किसानो के ट्रैक्टर मार्च के बाद तो आपको भी यह बात माननी ही पड़ेगी । हंस कर मानना या रोकर ।