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हिन्दी पत्रकारिता में हिंदी

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वर्तमानयुग में समाचार पत्र, विशेषकर दैनिक, जनभावना एवं जन आकांक्षाओं के माध्यम हैं। दैनिक पत्रों में समयबध्द कार्यक्रम पर चलना आवश्यक है। सारे विश्व को घटनाक्रम से लेकर राष्ट्रीय, आंचलिक और स्थानीय समाचारों की भरमार में सम्पादकीय विभाग को त्वरित गति से काम करना पड़ता है। इसलिए अनेक बार भाषा में जो कसाव आना चाहिए वह नहीं आ पाता। किंतु अनुभवी उप सम्पादक इस दोष से मुक्त भी रह सकता है। सामान्यत: दैनिक पत्र में उस भाषा का उपयोग करना पड़ता है जो बोध गम्य हो और गरिष्ठ भी न हो। दरअसल दैनिक पत्र का पाठक जल्दी में होता है। कम शब्दों में समाचार सार मिलने पर उसे तृप्ति होती है। अंग्रेजी पत्रों की तुलना में हिन्दी पत्रों में सीमाएं हैं। लेकिन हिन्दी पत्रों का पाठक वर्ग विस्तृत है। इसलिए हिन्दी या भाषायी पत्र लोकप्रिय होते हैं तथा परिवार के प्रत्येक सदस्य द्वारा पढ़े जाते हैं इसलिए अनेक बार प्रचलित मान्यताओं या व्याकरणिक परम्परा का उल्लंघन करना पड़ता है। वास्तव में पत्र की लोकप्रियता या पाठक की विश्वसनीयता ही दैनिक पत्र के अस्तित्व के मापदंड होते हैं। और उनमें भाषा की भूमिका महत्वपूर्ण होती है।
देशबन्धु के संस्थापक संपादक स्व. मायाराम सुरजन के अधिकतर लेख 'देशबन्धु' में ही प्रकाशित हुए, लेकिन इसके अलावा कभी उन्होंने आकाशवाणी पर अपने लेख दिए तो कभी विशेष अवसरों पर प्रकाशित स्मारिकाओं व पत्रिकाओं में। उन्होंने अनेक पुस्तकों की भूमिकाएं भी लिखीं और समीक्षा भी। उनकी ऐसी असंकलित सामग्री से चुनकर हम कुछ लेखों को 'देशबन्धु' के इन पन्नों पर प्रकाशित करने जा रहे हैं। इस श्रृंखला में पहला लेख 'हिन्दी पत्रकारिता और हिन्दी' आज यहां प्रस्तुत कर रहे हैं। अनुमान होता है कि यह लेख 1980 के आसपास कभी किसी वार्ता या परिसंवाद के लिए लिखा गया है।
'हिन्दी पत्रकारिता और हिन्दी' मुझे बहुत अस्पष्ट सा शीर्षक लगता है या यों कहिए कि पत्रकारिता का क्षेत्र इतना व्यापक हो गया है कि उसे एक शीर्षक में बांध रखना उचित प्रतीत नहीं होता। पत्रों का वर्गीकरण करें तो दैनिक, साप्ताहिक, अर्ध्दसाप्ताहिक, पाक्षिक और मासिक से त्रैमासिक, अर्ध्दवार्षिक और वार्षिक इस श्रृंखला को फैलाया जा सकता है और इन सबकी अपनी पृथक-पृथक आवश्यकताएं हैं- विशेषकर भाषा की दृष्टि से। जो भाषा दैनिक पत्र के लिए उपयोगी है वह साप्ताहिक और अर्ध्द साप्ताहिक पत्रों के लिए तो ठीक हो सकती है किंतु मासिक और अन्य पत्रों के लिए नहीं, क्योंकि उनके चरित्र ही अलग हैं। दैनिक समाचार पत्र घटना प्रधान होते हैं और मासिक आदि पत्रिकाएं साहित्य प्रधान। इनके बावजूद ये सभी पत्र-पत्रिकाएं पत्रकारिता के दायरे में आती हैं।
वर्तमान युग में पत्रकारिता को एक अलग ही विधा मान लिया गया है। जैसे कि साहित्य से उसका कोई लेन-देन नहीं। इतिहास, संस्कृति, भूगोल आदि का लेखन भी साहित्यिक लेखन से अलग समझा जाने लगा है। लेकिन एक ऐसा समय अवश्य था जब ये लेखन विधाएं भी साहित्य का अंग मानी जाती थीं। मुझे याद है कि जब कभी साहित्य सम्मेलनों के अधिवेशन हुआ करते थे, तब पत्रकार परिषद, इतिहास परिषद आदि के नाम पर कुछ अलग बैठकें भी आयोजित की जाती थीं, जिनमें इन विधाओं की भाषा, शब्दावलि तथा अन्य आवश्यकताओं पर चर्चा हुआ करती थी। अब यह परम्परा समाप्त हो गई है। इसके बावजूद यह स्वीकार करना होगा कि पत्रकारिता और साहित्य को एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। वस्तुत: किसी भी अभिव्यक्ति का स्रोत तो शब्द ही है और शब्द तथा साहित्य एक दूसरे से अलग नहीं हैं। यह अलग बात है कि प्रत्येक श्रेणी की पत्रकारिता की भाषा भिन्न होती है। कहा भी गया है कि Òjournalism is literature written in a hurryÓ
दैनिक समाचार पत्रों पर उक्ति पूरी तरह लागू होती है क्योंकि दैनिक पत्रों को भाषायी आवश्यकता की तत्काल पूर्ति करनी होती है जबकि शेष पत्र-पत्रिकाओं के मुद्रण तथा प्रकाशन के लिए अधिक समय उपलब्ध रहता है।
मुझे यह कहने में भी कोई संकोच नहीं है कि दैनिक पत्रों द्वारा गढ़े हुए शब्द कालान्तर में साहित्य में स्वीकार कर लिए जाते हैं। आगे चलकर इस विषय पर कुछ और प्रकाश डाला जाएगा।
आप सब जानते हैं, खडी बोली का इतिहास बहुत लम्बा नहीं है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि हिन्दी अभी भी एक विकासमान भाषा है जिसमें आज के युग की आवश्यकता के अनुसार नए शब्दों का निर्माण और प्रचलन जरूरी है। दूसरे महायुध्द के बाद वैज्ञानिक तथा तांत्रिक (तकनीकी) विकास जिस द्रुतगति से हुआ है, और इन नए शब्दों का प्रचलन दैनिक समाचार पत्रों के माध्यम से ही होता है। दैनंदिन समाचारों में इन शब्दों की पुनरावृत्ति होने के कारण वे जन-स्वीकार्य हो जाते हैं।
1945 में जब मैंने पत्रकारिता के क्षेत्र में पदार्पण किया तब ऐसे कई शब्द बोलचाल में नहीं आए थे, जिनका आज धड़ल्ले से उपयोग होता है। और ये शब्द पत्रकारिता द्वारा ही जन सामान्य या पाठक वर्ग तक पहुंचे, बाद में साहित्य में उनका समावेश हो गया।
जैसा कि मैंने पहिले कहा, दैनिक सावधिक पत्रों की भाषायी समस्याएं अलग-अलग हैं। इसका यह आशय भी नहीं कि दैनिक समाचार पत्र साहित्य से बिल्कुल ही अछूते होते हैं। यह समाचार केवल एक घटना हो सकती है लेकिन वैसा ही दूसरा समाचार साहित्य। मैं एक उदाहरण देना चाहूंगा:
कोई महिला कुएं पर पानी भरने जाए और पैर फिसल जाने से कुएं में गिरकर उसकी मृत्यु हो जाए। एक अन्य महिला दहेज या सती की बलिवेदी पर चढ़ा दी जाए। समाचार की दृष्टि से दोनों ही घटनाएं हैं। दोनों में महिला की मृत्यु होती है। किंतु पहिली घटना मात्र समाचार है जबकि दूसरी की पृष्ठभूमि में एक मानवीय एवं संवेदनात्मक कथानक छुपा हुआ है। पहिली घटना को सामान्य शब्दों में बनाकर प्रकाशित किया जाता है, जबकि दूसरी के लिए एक पूरा कथानक तैयार किया जाता है, पारिवारिक पृष्ठभूमि, यातनाओं का विवरण और अंत के करुण प्रसंगों को यदि संवेदनशील न बनाया जाए तो उसे पाठकों की या समाज की सहानुभूति नहीं मिलेगी। यही संवेदना-वृत्तांत साहित्य हो जाता है।
जहां तक हिन्दी पत्रकारिता और हिन्दी का प्रश्न है, हमें उसे ऐतिहासिक परिवेश में देखना होगा। मुगल शासन में उर्दू का प्रचलन हुआ। अंग्रेज सरकार आई तो उसने भी हिन्दी को कोई महत्व नहीं दिया। कहीं देवनागरी लिपि स्वीकार कर भी ली गई तो शब्द उर्दू के ही होते थे। जब समाचार पत्रों का प्रकाशन प्रारंभ हुआ तो उत्तर भारत के अधिकांश पत्र उर्दू बहुल भाषा का ही प्रयोग करते थे। समाचार पत्रों में हिन्दी को प्रतिष्ठित कराने का श्रेय महर्षि दयानंद को है। मूलत: गुजराती भाषी होते हुए भी उन्होंने हिन्दी को राष्ट्रभाषा का स्थान देने की पहल की। उन्होंने यह समाचारपत्रों के द्वारा किया। डॉ. रामरतन भटनागर ने भी अपने शोधग्रंथ में प्रतिपादित किया है कि :
'उर्दू के मध्य में हिन्दी की नींव को दृढ़ करने वाली और भी एक महत्वपूर्ण शक्ति थी और वह वह थी आर्य समाज। अपने मासिक पत्रों तथा समाचार पत्रों के द्वारा उसने हिन्दी के पिष्टपेषण का कार्य किया। सर्वप्रथम 1870 में शाहजहांपुर से मुंशी बख्तावर सिंह ने 'आर्य दर्पण' नामक साप्ताहिक पत्र प्रारंभ किया और उसके बाद से अनेक पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन आर्य समाज की ओर से होता चला आ रहा है।
वस्तुत: आर्य समाज की स्थापना के पांच वर्ष पूर्व ही दयानंदजी के अनन्य शिष्य श्री बख्तावर सिंह को महर्षि के हिन्दी प्रेम से प्रेरणा मिली। अन्य आर्य समाजी कार्यकर्ताओं ने भी इस परम्परा को पुष्ट किया। यहां तक कि यदि पत्र पर पता उर्दू में लिखा गया हो तो देवनागरी जानने वाले मुंशी की नियुक्ति पर बल दिया गया।
आर्य समाज के इस प्रभाव को पत्रों में भी देखा जा सकता है। अविभाजित पंजाब के आर्य समाजी नेता खुशालचंद खुरसंद 'मिलाप' तथा महाशय कृष्ण 'प्रताप' पत्रों का लाहौर से उर्दू लिपि में प्रकाशन करते थे। किंतु उनकी भाषा हिन्दी हुआ करती थी। यह इसलिए कि उर्दू भाषी पंजाबी पाठक हिन्दी को ग्रहण करना सीखें। ये दोनों पत्र अब नई दिल्ली से प्रकाशित होते हैं। किंतु इस परम्परा का अभी भी पालन किया जा रहा है।
यह भी उल्लेखनीय है कि समाचार पत्रों में हिन्दी को स्थान दिलाने में बंगला भाषियों का बहुत योगदान रहा है। राजा राममोहन राय, महर्षि अरविन्द, अमृतलाल चक्रवर्ती आदि समाज सुधारकों एवं पत्रकारों के इस प्रारंभिक अनुष्ठान के बिना हिन्दी को यह मान्यता प्राप्त होने में और समय लग सकता था। इसी प्रकार मराठी भाषी राष्ट्रप्रेमियों ने पत्रकारिता में हिन्दी का अलख जगाया। लोकमान्य तिलक, बाबूराव विष्णु पराड़कर, लक्ष्मण नारायण गर्दे, आर.आर. खाडिलकर आदि के नाम भुलाए नहीं जा सकते। पराड़करजी को समाचार पत्रों को एक मानक भाषा देने में अग्रणी माना जाता है। मिस्टर को 'श्री' तथा मेसर्स को 'सर्वश्री' लिखा जाना आज सामान्य है लेकिन उसका प्रारंभ पराड़करजी ने किया। सितम्बर 1956 में जब राष्ट्रीय इंटरिम गवर्नमेंट की स्थापना हुई तो इंटरिम को 'अंतरिम' स्वरूप पराड़करजी ने दिया। इसके पूर्व समाचार पत्र कहीं अन्तरवर्ती, कहीं मध्यावधि या कहीं कुछ और शब्दों का प्रयोग करते थे।
मैं एक और पत्र का उल्लेख करना चाहूंगा। किसी जमाने में बम्बई से प्रकाशित होने वाले 'श्री वेंकटेश्वर समाचार' का। धर्मग्रंथ प्रकाशित करने वाले संस्थान खेमराज श्रीकृष्णदास के स्वामित्व में प्रकाशित होने वाले इस दैनिक में लगभग पौराणिक नाम प्रकाशित किए जाते थे। जैसे कम्बोड़िया को कम्बोज प्रदेश, मद्रास को मद्रिराज आदि। पत्रकारिता को स्व. माखनलाल चतुर्वेदी का भी अनुग्रहित होना चाहिए। एडीटर को सम्पादक या करस्पांडेंट को संवाददाता कहना तो ठीक था लेकिन जर्नलिस्ट को क्या कहा जाए। चतुर्वेदीजी ने उसे 'पत्रकार' शब्द दिया। एडीटोरियल को सम्पादकीय अनुवाद किया जा सकता था, लेकिन लीड आर्टिकल को 'अग्रलेख' कहना दादा ने ही सिखाया।
इस तरह अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं जहां हमारे पूर्वज पत्रकारों ने हिन्दी साहित्य को समृध्द किया। हिन्दी समाचार पत्रों में उर्दू शब्दों का प्रयोग कोई असाधारण बात नहीं रह गई है। लेकिन उर्दू के शब्दों को ग्रहण करने की शक्ति सम्पादकाचार्य श्री महावीर प्रसादजी द्विवेदी ने हमें दी। जबलपुर के स्वनामधन्य साहित्यकार श्री गंगाविष्णु पांडे ने एक जगह लिखा कि 'बस' या 'पर्याप्त' के लिए 'काफी' शब्द लिखने की प्रथा आचार्य द्विवेदीजी ने शुरू की। वर्तमान पत्रकारिता में उर्दू के अनेक शब्द प्रचलन में इस प्रकार आ गए हैं कि अब वे विदेशी नहीं लगते। बल्कि यह कहा जाए कि उनके बिना कम से कम दैनिक पत्रों का काम नहीं चलाया जा सकता तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार में समाचारपत्रों की अहम् भूमिका रही है। हिन्दी गद्य की उन्नति में भी उनका योगदान नकारा नहीं जा सकता। अनेक साहित्यकार पत्रकारिता से भी गहरे से जुड़े रहे हैं। सर्वश्री प्रेमचंद, बनारसीदास चतुर्वेदी, अज्ञेय, माखनलाल चतुर्वेदी आदि का पत्रकारिता तथा साहित्य दोनों में ही अवस्मिरणीय योगदान रहा है। भाषा के विकास की दृष्टि से भी वह महत्वपूर्ण है। एक समय था जब हिन्दी 'भाषा की अस्थिरता' विवाद का विषय था। लेकिन आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने 'सरस्वती' बाबू बालमुकुन्द गुप्त ने 'भारत मित्र', गोविन्द नारायण मिश्र ने 'बंगवासी' तथा विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से अम्बिकाप्रसाद बाजपेयी ने पत्रकारिता की भाषा को स्थायित्व दिया।
पत्रकारिता विधा में अलग-अलग प्रसंगों पर भाषा वैभिन्न होना स्वाभाविक है। यात्रा-वृत्तांत, संस्मरण आदि निबंध हो सकते हैं तो ग्राम्यजीवन की खोजी रिपोर्टिंग भी कुछ वैसी ही झांकी प्रस्तुत करते हैं। दैनिक पत्रों की भाषा उनसे मेल नहीं खाती।
वर्तमान युग में समाचार पत्र, विशेषकर दैनिक, जनभावना एवं जन आकांक्षाओं के माध्यम हैं। दैनिक पत्रों में समयबध्द कार्यक्रम पर चलना आवश्यक है। सारे विश्व को घटनाक्रम से लेकर राष्ट्रीय, आंचलिक और स्थानीय समाचारों की भरमार में सम्पादकीय विभाग को त्वरित गति से काम करना पड़ता है। इसलिए अनेक बार भाषा में जो कसाव आना चाहिए वह नहीं आ पाता। किंतु अनुभवी उप सम्पादक इस दोष से मुक्त भी रह सकता है। सामान्यत: दैनिक पत्र में उस भाषा का उपयोग करना पड़ता है जो बोध गम्य हो और गरिष्ठ भी न हो। दरअसल दैनिक पत्र का पाठक जल्दी में होता है। कम शब्दों में समाचार सार मिलने पर उसे तृप्ति होती है। अंग्रेजी पत्रों की तुलना में हिन्दी पत्रों में सीमाएं हैं। लेकिन हिन्दी पत्रों का पाठक वर्ग विस्तृत है। इसलिए हिन्दी या भाषायी पत्र लोकप्रिय होते हैं तथा परिवार के प्रत्येक सदस्य द्वारा पढ़े जाते हैं इसलिए अनेक बार प्रचलित मान्यताओं या व्याकरणिक परम्परा का उल्लंघन करना पड़ता है। वास्तव में पत्र की लोकप्रियता या पाठक की विश्वसनीयता ही दैनिक पत्र के अस्तित्व के मापदंड होते हैं। और उनमें भाषा की भूमिका महत्वपूर्ण होती है।
मेरी यह भी मान्यता है कि हिन्दी में अन्य भाषाओं के शब्दों का समावेश करना एक सही कदम होगा। कुछ स्थानों पर उपयोगिता की दृष्टि से और कुछ जगह राष्ट्रीय एकता के लिए। तमिल को छोड़कर शेष भारतीय भाषायें संस्कृत से ही उपजी हैं। अत: अन्य भाषाओं के शब्द लेने से हिन्दी को परहेज नहीं करना चाहिए। अंग्रेजी के कुछ शब्दों का मराठी में अधिक सारगर्भित अनुवाद हुआ है। जैसे मल्टीपाइंट सेल्स टैक्स को हिन्दी में बहुसूत्रीय बिक्रीकर कहा जाता है और मराठी में प्रतिपद बिक्रीकर। मुझे मराठी अनुवाद अधिक बोधगम्य प्रतीत होता है। ऐसे और भी पारिभाषिक शब्द हैं जिनका अन्य भाषाओं के साथ पारस्परिक आदान-प्रदान होने से हिन्दी समृध्द होगी तथा अन्य भाषाओं के साथ उसकी एकरूपता स्थापित हो सकती है।
हिन्दी में पारिभाषिक शब्दावलि एक जटिल समस्या हो गई है। एक्जीक्यूटिव इंजीनियर को मध्यप्रदेश में कार्यपालन यंत्री कहा जाता है तो उत्तरप्रदेश में अधिशासी अभियंता। राजस्थान में पदशाषी या पदधारी अभियंता का प्रयोग किया जाता है। शिक्षा क्षेत्र के लेक्चरर, रीडर, प्रोफेसर के लिए भी अलग-अलग रायों में पृथक-पृथक शब्द हैं। डायरेक्टर को मध्यप्रदेश में संचालक और डायरेक्टोरेट के लिए संचालनालय शब्द प्रचलित है जबकि अन्य प्रदेशों में क्रमश: निदेशक और निदेशालय। अपने-अपने प्रदेशों में यह ठीक हो सकता है किंतु किसी अखिल भारतीय सेवा के अधिकारी के लिए मानसिक तौर पर यह विभेद कितना त्रासद होता होगा, इसकी कल्पना ही की जा सकती है। किसी हिन्दी भाषी पर्यटक के लिए तो यह अजूबा हिन्दी मालूम होगी। यह विषमता दूर की जानी चाहिए।
मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन में यह समस्या उठाते हुए यह सुझाव दिया था कि सभी हिन्दी भाषी रायों की- पारिभाषिक शब्दावलि की अनुशीलन किया जाए तथा सरल शब्दों को ग्रहण कर उसे एकरूपता प्रदान की जाए।  इस प्रस्ताव पर अमल भी हुआ। सभी हिन्दी भाषी रायों के भाषा संचालकों की लगातार बैठकें हुईं। नई शब्दावलि स्वीकार की गई किंतु उस पर अभी तक अमल नहीं किया जा सका। यह विद्रूप जितनी जल्दी दूर किया जा सके, हिन्दी का हित होगा।
यदि हम आक्सफोर्ड डिक्शनरी देखें तो पाएंगे कि कितने ही भारतीय शब्द उसमें शामिल कर लिए गए हैं। धोती, साड़ी, घेराव शब्द हमें वहां मिल जाएंगे। उसी तरह अनेक प्रचलित अंग्रेजी शब्द हमने हिन्दी में ग्रहण कर लिए हैं उन्हें शब्दकोश में स्वीकार कर लेना चाहिए। आज के तकनीकी युग में कितने ही ऐसे शब्द विकसित हुए हैं जिनका हिन्दी में अनुवाद नहीं हो सका। वरन् वस्तुस्थिति यह है कि दैनिक समाचार पत्रों के माध्यम से वे इतने प्रचलित हो गए हैं कि पाठकों ने उन्हें वैसा ही स्वीकार कर लिया है। मेरा आशय यह है कि हमें शब्दों को उनकी धातु से उद्भुत होने की बजाय उनके जनसमाान्य द्वारा ग्रहण कर लिए जाने की स्थिति को स्वीकार कर लेना चाहिए।
इस प्रसंग में एक तथ्य उल्लेखनीय है। हिन्दी  भाषा क्षेत्र विशाल है तथा भाषा पर आंचलिक प्रभाव जबरदस्त है। वाक्य विन्यास में यह आंचलिकता क्रियापद तक अपना प्रभाव छोड़ती है। इसलिए सारे हिन्दी अंचल में भाषा की एकरूपता की कल्पना कठिन है। यह स्थिति दैनिक समाचार पत्रों पर और अधिक लागू होती है। हालांकि साहित्यिक पत्र-पत्रिकाएं उससे अछूती रह सकती है। तथापि एक मानक भाषा बनने के लिए हिन्दी को आंचलिक बोलियों से जोड़ने के प्रयास किया जाना उचित होगा।
हिन्दी पत्रकारिता और हिन्दी के संदर्भ में एक और तत्व का उल्लेख करना चाहता हूं। वह है हिन्दी सम्वाद एजेंसियां। भाषा और यूनीवार्ता ने हिन्दी समाचार सेवा प्रारंभ कर सराहनीय कार्य किया है। किंतु मूलत: वे अंग्रेजी में प्राप्त समाचारों का अनुवाद ही समाचार पत्रों को टेलीप्रिंटर पर देती हैं। इस अनुवाद में भाषा की कसावट का अभाव रहता है। कई जगह तो अनुवाद से अर्थ ही बदल जाता है। संज्ञावाचक शब्दों की त्रुटिपूर्ण सम्प्रेषण एक सामान्य घटना हो गई है। शहर और गांवों के नाम अंग्रेजी हिो से देवनागरी में उतार दिए जाते हैं। सौंसर को 'साउसर' या धार को धर लिखने में इन्हें कोई संकोच नहीं होता। ये गल्तियां रेल समय दर्शिका या डाकखानों की हिन्दी सूची से ठीक की जा सकती है। लेकिन किसको फुरसत है कि इतना कष्ट उठाए। कई जगह तो नाम या कुलनाम तक गलत दिए जाते हैं। श्रृंगारपूरे को श्रीरंगपुरे या बारपुते को 'बारप्यूट' कह देने में कोई झिझक नहीं होती। हिो में भी इसी प्रकार असावधानी बरती जाती है। हुई को हमेशा 'हुयी' ही लिखा जाएगा। इससे डेस्क पर काम कर रहे सम्पादकों का भाषा ज्ञान भी भ्रष्ट हो रहा है। विस्तारमय से और उदाहरण देना उचित नहीं।
पिछले कुछ वर्षों में समाचार पत्रों पर तो काफी अनुसंधान और विचार हुआ है किंतु पत्रकारिक भाषा का पक्ष लगभग अछूता रह गया है। इन आस्थामूलक प्रयासों तथा कमजोरियों के बावजूद यह स्वीकार किया जाना चाहिए कि पत्रकारिता ने हिन्दी को समृध्द बनाने में महत्वपूर्ण रोल अदा किया है। फिर भी हिन्दी को बेहतर बनाने की कोशिश जारी रहना चाहिए।

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