
जनोक्ति
Nation Talking Itself…
हरिवंश , संपादक , प्रभात खबर

…दरअसल पत्रकारिता में जिस पाप के लिए इस रिपोर्ट में बिहार सरकार को कोसा जा रहा है, पत्रकारिता का वह दोषपूर्ण मॉडल तो भारत सरकार की नीतियों की देन है. 1991 की अर्थनीति का यह मीडिया में परिणाम है. नयी अर्थनीतियों ने संपादक नामक संस्था को खत्म कर दिया है. पत्रकारिता की धार, सत्व और सच पर परदा डाल दिया है. देश भर में आज अखबारों का मुख्य उद्देश्य प्रॉफिट मैक्सिमाइजेशन है. अखबार आज जिस बिजनेस मॉडल पर चल रहे हैं, उसमें ही इस नयी पत्रकारिता का उद्गम स्नेत है. न्यूज, समाज, देश, मिशन, यह सब पीछे या अतीत की बातें हैं. प्रमोटरों, निवेशकों और अखबार मालिकों का ही दोष नहीं है. पत्रकारिता विधा से भी गंभीरता गायब हो गयी है. कम ही पत्रकार किसी रिपोर्ट पर गहराई से काम या छानबीन करते हैं. किसी ने कोई भड़काऊ बात कह दी, गंभीर आरोप लगा दिया, बिना सिर-पैर जांचे वह अखबार में छप सकती है. आजकल जो भी सत्ता से बाहर होता है, उसका धंधा ऐसे ही आरोपों की राजनीति से चलता है. होना तो यह चाहिए कि जानकारी मिले, तो हर दृष्टि से गहराई में उतर कर छानबीन हो, सभी आधिकारिक पक्ष लेकर वह विषय उठे. बोफोर्स से लेकर अन्य बड़े स्कैंडल इसी रास्ते उजागर हुए. पर हाल के दिनों में या इस आधुनिक दौर में टूजी प्रकरण, अदालत के माध्यम से सामने आया. अन्य बड़े प्रकरण या घोटाले सीएजी के माध्यम से सार्वजनिक हुए. याद करिए गुंडूराव (पूर्व मुख्यमंत्री, कर्नाटक) या अंतुले (पूर्व मुख्यमंत्री, महाराष्ट्र) वगैरह पर कैसी खोजपरक रपटें छपीं थी कि अनुमान या कयास के लिए जगह नहीं बची. इस नये युग के प्रकाशन घरानों की मजबूरियां अलग हैं. आज एक अखबार निकालना अत्यंत कैपिटल इंटेंसिव (पूंजीपरक) धंधा है. बड़ी पूंजी चाहिए. यह पूंजी आज आती है, विदेशों से एफडीआइ के रूप में या शेयर बाजार के शेयर निवेशकों के माध्यम से. या बैंकों से काफी भारी-भरकम कर्ज व बड़ा सूद की कीमत अदा कर. इस पूंजी को अपना रिटर्न चाहिए, ताकि निवेशकों को लाभांश मिल सके. इस पूंजी की कीमत है, पेड न्यूज का ध्ांधा या पत्रकारिता में पालतू बनना. यह देश में 1991 के बाद ही शुरू हो गया. इन ट्रेंडों को जोड़ कर देखने से मौजूदा पत्रकारिता की समग्र तस्वीर साफ होती है. 2009 में पेड न्यूज के बिहार और झारखंड में पदार्पण पर इसका विरोध हुआ. पर लगभग दो दशकों से यह देश के अन्य हिस्से में चल रहा था. कहीं विरोध नहीं हुआ. पहले कहीं देश में इसका अन्यत्र मुखर विरोध क्यों नहीं हुआ? पूरा मीडिया जगत और राजनीतिक जगत यह सब जानता था, पर बिहार-झारखंड में इसका विरोध पहले यहीं की पत्रकारिता से शुरू हुआ. प्रभात खबर ने यह अभियान शुरू किया, स्वर्गीय प्रभाष जोशी के सान्निध्य, मार्गदर्शन और सहयोग से. देश की राजनीति या जनजीवन में विचारहीनता के दौर में आज भी बिहार की धरती पर पत्रकारिता और राजनीति में विचार जीवित हैं, इसलिए बिहार की धरती से ही पेड न्यूज के खिलाफ मुखर विरोध हुआ. यहीं के विरोध से यह मुद्दा देशव्यापी बना. क्या कभी इस तथ्य के लिए बिहार की पत्रकारिता या राजनीति को किसी ने कांप्लीमेंट (शाबाशी) दिया है. यहां की राजनीति चाहे राजद की हो या अन्य दलों की, सब इसके खिलाफ खड़े हुए. बिहार प्रेस परिषद की रिपोर्ट का रोना है कि ब्रांड मैनेजर या यूनिट हेड वगैरह संपादक बन गये हैं. यह टिप्पणी पढ़ते हुए जांच टीम की अज्ञानता, अनभिज्ञता का एहसास हुआ, क्योंकि पत्रकारिता में आये इस बदलाव को आज हर सजग नागरिक जानता है.
चर्चित संपादक रहे (अब भी मशहूर स्तंभकार) खुशवंत सिंह की ताजा पुस्तक का हवाला देना सबसे प्रासंगिक होगा. विकिंग (पेंग्विन समूह द्वारा प्रकाशित) ने खुशवंत सिंह की खुशवंतनामा पुस्तक छापी है, द लेसनस् आफ माइ लाइफ. 2013 में. अभी कुछेक रोज पहले बाजार में यह आयी है. खुशवंत सिंह देश के बड़े संपादकों में से रहे हैं. 98 वर्ष की उम्र में भी उनका लेखन, तीक्ष्णता और स्पष्टता अद्भुत है. उनसे सहमत-असहमत होना अपनी जगह है. इस पुस्तक में उन्होंने एक अध्याय लिखा है, जर्नलिज्म देन एंड नाउ (पत्रकारिता तब और अब). लगभग साढ़े दस पेज में यह टिप्पणी है. प्रेस काउंसिल की जांच टीम ने बिहार की पत्रकारिता में पतन के लिए जो सवाल उठाये हैं, उसका सबसे सटीक उत्तर खुशवंत सिंह की इस टिप्पणी में मौजूद है. वह कहते हैं कि आज देश में बड़े-बड़े अखबार हैं. उन बड़े राष्ट्रीय अखबारों के नाम भी उन्होंने गिनाये हैं. वह कहते हैं कि इनकी प्रसार संख्या भी अधिक है, पर इनके संपादकों के नाम आज कोई नहीं जानता? क्यों? क्योंकि खुशवंत सिंह की नजर में आज अखबारों को या तो मालिक चला रहे हैं या मालिकों की संतानें. विज्ञापन क्या है, खबर क्या है, किस तरह की चीजें पत्रकारिता में हो रही हैं, इस पर संक्षेप में सुंदर और साफ बातें खुशवंत सिंह की टिप्पणी में है. यह टिप्पणी उस व्यक्ति की है, जिन्होंने देश के दो सबसे बड़े घरानों में सबसे महत्वपूर्ण प्रकाशनों के संपादन का काम किया है. सच यह है कि 1991 के बाद देश के सबसे बड़े अखबारों को ब्रांड मैनेजर चला रहे हैं. इसकी शुरुआत दिल्ली से, और सबसे बड़े अखबारों से हुई है. बात अब इस सीमा से बहुत आगे निकल चुकी है. निजी कंपनियों की प्राइवेट इक्विटी, अनेक बड़े अखबार घरानों ने लिये और उन्हें संपादकीय खबरें देकर प्रोमोट किया. जो कंपनियां कमजोर थीं, उनका प्रचार एजेंट बन कर उनकी संपदा बढ़ायी. ¨पक पत्रकारिता (व्यापार और वाणिज्यिक पत्रकारिता) के खिलाफ, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने यूपीए के प्रथम दौर में चंडीगढ़ प्रेस क्लब में तीखा प्रसंग व अनेक स्पेसिफीक सवाल उठाये. कई उदाहरण गिना कर. इस पर प्रेस गिल्ड की समिति भी बनी. क्या माननीय प्रेस परिषद की निगाह में कभी ये मूल सवाल रहे? इस तरह पत्रकारिता में यह क्षरण तो दिल्ली की देन है. देश की अर्थनीतियों की देन है. और दोष बिहार पर? गांवों में किस्सा सुना था, क मजोर की लुगाई (औरत) सबकी भौजाई. बिहार के लोग प्रतिवाद नहीं करते, तो कु छ भी कह दो. देश की पत्रकारिता में पतन को समझने के लिए जरूरी है कि हम पत्रकारिता का अर्थतंत्र पढ़ें, तो बातें साफ होंगी (देखें प्रभात खबर, 20-23 मार्च 2012). पूरे देश में बड़ी पूंजी ने छोटी पूंजी को तबाह कर दिया है. हर क्षेत्र में. पत्रकारिता में भी. पत्रकारिता में गुजरे बीस वर्षो में पूरे देश में न जाने कितने प्रकाशन बंद हुए? यह अत्यंत ज्वलंत विषय है, पर प्रेस परिषद की विद्वान समिति अगर सचमुच ऐसे बुनियादी सवालों पर चिंतित है, तो उसे इसकी जड़ तक जाना होगा, तब बातें साफ होंगी. काश! प्रेस काउंसिल की यह टीम, दिल्ली स्तर पर कोई ऐसी जांच करती, तो शायद पत्रकारिता-मीडिया में आये बदलावों पर एक राष्ट्रीय संवाद होता. अंतत: राष्ट्रीय राजनीति और केंद्र सरकार ही पत्रकारिता में आये इस क्षरण को रोक सकते हैं.
(15.04.2013 को प्रभात खबर, पटना संस्करण में प्रकाशित एक लंबे लेख का अंश)
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