झंडा ऊँचा रहे हमारा!
^^^^^^^^^^^^^^^^^छब्बीस जनवरी, 2021 का दिन भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में जहाँ इसलिए अंकित हो गया है कि इस दिन 72वें गणतंत्र दिवस के अवसर पर दिल्ली के आकाश में चमत्कारी उड़ान भरकर राफेल विमान ने दुनिया के समक्ष नए आत्मनिर्भर भारत के पराक्रम का उद्घोष किया, वहीं इतिहास इस दिन को इसलिए भी याद करेगा कि देश के अन्नदाता अर्थात किसानों की आड़ लेकर कुछ उपद्रवी तत्वों ने सारे लोकतांत्रिक मूल्यों और राष्ट्रीय गरिमा की धज्जियाँ उड़ाते हुए देश के गौरव के चरम प्रतीक दिल्ली के लालकिले पर राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे के अलावा दूसरे झंडे फहराने का अवांछित कुकृत्य किया। स्वतंत्र भारत के कई प्रतीकों को एक साथ अपमानित करने के इस दुस्साहसिक प्रयास को क्षमा नहीं किया जाना चाहिए।
लाल किले पर राष्ट्रीय ध्वज के अतिरिक्त कोई अन्य झंडा फहराना लोक और लोकतंत्र दोनों को शर्मिंदा करने वाला सोचा समझा षड्यंत्र भी हो सकता है। जाँच एजेंसियाँ और न्याय व्यवस्था इसके विविध पहलुओं की पड़ताल करेंगी ही। लेकिन इतना तो कहा ही जा सकता है कि गणतंत्र दिवस पर की गई यह अनैतिक हरकत हर तरह से निंदनीय है।
यह अच्छा है कि आंदोलनकारी किसान नेताओं ने खुद इस कृत्य तथा ट्रैक्टर मार्च के दौरान हुई हिंसा की निंदा की है और अपने आप को इससे अलग कर लिया है। लेकिन इसके बावजूद क्या वे उस सबकी जिम्मेदारी से बच सकते हैं, जो कुछ आंदोलन के, ट्रैक्टर मार्च के बहाने दिल्ली में हो गुजरा? आम नागरिक को आतंकित करने वाले जिस तरह के हिंसक और कारुणिक दृश्य इस अवसर पर देखने को मिले, उन्हें अराजकता के अलावा और कुछ नाम दिया जा सकता है क्या? इस घटना से यह साफ हो गया कि भले ही विवादित तीन कृषि कानूनों के विरोध में दो महीने से ज़्यादा से चल रहे किसान आंदोलन में दिल्ली को घेरने तथा देश की राजधानी में घुसकर प्रदर्शन करने वालों में कई कई दिशाओं से आए लाखों शांतिप्रिय किसान शामिल हों, लेकिन उनका कोई एक सर्वमान्य नेता नहीं है। सर्वमान्य नेतृत्व के अभाव में ही ऐसी अराजकता फैलती है कि आंदोलन के नेता पुलिस प्रशासन के साथ जो कार्यनीति तैयार करते हैं, आंदोलन में सम्मिलित कार्यकर्ता उसकी परवाह करते नहीं दिखाई देते। इसीलिए अति उत्साही किसानों के बहुत सारे जत्थों ने ट्रैक्टर मार्च के लिए निर्धारित समय और मार्ग संबंधी आपसी समझ की कोई परवाह नहीं की। इस घटना से यह रहस्य भी किसी हद तक खुल गया लगता है कि क्यों किसानों और मंत्रियों के बीच ग्यारह दौर की वार्ता निष्फल रही है! चालीस नेताओं के जमघट के बावजूद किसान आंदोलन के पास एक सर्वमान्य नेता जो नहीं!
यह कहना आसान है कि जिन्होंने उपद्रव मचाया, आईटीओ सहित तमाम दूसरी जगहों पर हिंसा का तांडव किया तथा लाल किले पर तिरंगे के अलावा कोई ध्वज फहराया (वह चाहे किसी भी संप्रदाय, दल, समूह या आंदोलन का क्यों न हो), वे किसान आंदोलन का हिस्सा नहीं थे। लेकिन इसका जवाब देना आसान नहीं कि, यदि आप गैर-किसान तत्वों को रैली में शामिल होने से नहीं रोक सकते, तो क्या आपको इतनी विशाल रैली निकालने का कोई नैतिक अधिकार था? शायद नहीं। अगर अब कुछ लोगों को लगे कि इतने दिन से शांतिपूर्वक चल रहे आंदोलन ने इस घटना से उनके विश्वास को खंडित किया है, तो शायद गलत न होगा। अब तो किसान नेताओं के लिए शायद यही उचित होगा कि वे बालहठ छोड़ कर आंदोलन को यहीं समाप्त कर दें और शांति तथा संयम से अपने घरों को लौट जाएँ। हाँ, वार्ता चलती रहे, ताकि संसद और न्यायपालिका के साथ मिल कर खुले मन से पूरे देश के कल्याण की भावना से विवाद का सर्वमान्य हल खोजा जा सके।
अंततः, इस अवसर पर प्रत्येक भारतवासी को स्वर्गीय श्यामलाल गुप्त पार्षद द्वारा 1924 में रचित 'झंडा गीत'याद करने की ज़रूरत है-
"इसकी शान न जाने पाए,
चाहे जान भले ही जाए,
विश्व-विजय करके दिखलाएं,
तब होवे प्रण पूर्ण हमारा।।
विजयी विश्व तिरंगा प्यारा,
झंडा ऊंचा रहे हमारा।"
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