लोकतंत्र का गण तंत्र / आलोक यात्री
देश आज एक और संविधान दिवस के मुहाने पर खड़ा है। इस बहत्तर साल के संवैधानिक सफर में भारत गणराज्य ने कई उतार-चढ़ाव देखे हैं। 21वीं सदी में दुनिया बहुत तेजी से बदली है। हाल ही में अमेरिका में जिस तरह का संवैधानिक संकट खड़ा हुआ वह आने वाले वैश्विक संकट की ओर एक इशारा है। कई मुल्कों में लोकतंत्र की आड़ में सत्ता पर काबिज होने के कुत्सित प्रयास भी हो रहे हैं। भविष्य में इस तरह के सत्ता संघर्ष अधिक देखने को मिल सकते हैं। अमेरिका से सीधे चलते हैं दिल्ली। जहां इन दिनों जनपथ पर कृषक अपने हकों की कथित संवैधानिक लड़ाई लड़ रहे हैं।
जहां तक लोगों के संवैधानिक हकों की बात है एक बड़ा वर्ग ऐसा भी है जो तमाम हकों से महरूम है। कोरोना महामारी और लॉक डाउन के बीच के समय में सबसे कठीन जीवन उनका रहा जिनके पास दो वक्त की रोटी जुटाने का कोई जरिया नहीं था। इंटरनेशनल लेबर ऑर्गेनाइजेशन (आइएलओ) का दावा है कि मौजूदा दौर में दुनिया में हर पांच में से चार यानी 80 फीसदी मजदूर बेरोजगारी व भूख से प्रभावित हैं। दुनिया में ऐसे परिवारों की संख्या में भी इजाफा होता जा रहा है जो भुखमरी की ओर तेजी से बढ़ रहे हैं। लॉक डाउन के चलते तंगहाल लोगों में प्रति दिन करोड़ों का इजाफा हो रहा था। जो आज भी जारी है। आईएलओ का दावा है कि दुनिया में ऐसे मजदूरों की संख्या 330 करोड़ है जो दो जून की रोटी भी नहीं जुटा पा रहे हैं। वहीं 106 करोड़ कामगारों के परिवारों के सिर पर इस बात का खतरा मंडरा रहा है कि रोजी-रोटी का उनका जरिया पूरी तरह से तबाह हो जाएगा। संविधान में ऐसा कोई जरिया नहीं है जो भूख के साथ न्याय कर सके।
दुनिया के निचले स्तर पर ही नहीं उच्च स्तर पर भी बेरोजगारी की मार पड़ेगी। अमेरिका जैसे देशों में बेरोजगारी की दर साल 1940 के स्तर पर पहुंच गई है। बीते तीन माह के दौरान तीन लाख लोग बेरोजगार हुए हैं। सेंटर फॉर माॅनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के अनुसार कोरोना संकट के चलते विभिन्न देशों में मई के पहले सप्ताह के दौरान बेरोजगारी की दर बढ़ कर 27.11 फीसदी हो गई थी। जो मार्च मध्य तक 7 प्रतिशत से कम थी। शहरी क्षेत्रों में बेरोजगारी दर सबसे अधिक 29.22 फीसदी रही। जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी दर 26.69 फीसदी आंकी गई। सीएमआईई द्वारा लगातार जारी किए जा रहे आंकड़े बताते हैं कि कोरोना की शुरूआत के बाद से बेरोजगारी दर में निरंतर इजाफा हो रहा है। बीते 29 मार्च को देश में यह दर 23.81 फीसदी थी। अप्रैल के अंत में दक्षिण भारत के पुड्डुचेरी में यह दर सर्वाधिक 75.8 फीसदी थी। इसके बाद तमिलनाडु में 49.8 फीसदी, झारखंड में 47.1 फीसदी और बिहार में 46.6 फीसदी, हरियाणा में 43.2 फीसदी, कर्नाटक में 29.8 फीसदी, उत्तर प्रदेश में 21.5 फीसदी और महाराष्ट्र में 20.9 फीसदी बेरोजगारी थी।
देश में एक बड़ा तबका ऐसा भी है कोरोना का डंक जिसके रोजगार पर पड़ता महसूस हो रहा है। एक सर्वे में शामिल देश के 86 फीसदी लोगों को अपनी नौकरी या रोजी-रोटी का साधन खत्म होने का डर सता रहा है। ब्रिटिश रिसर्च कंपनी क्राॅर्सबी टेक्सटर ग्रुप के सर्वे के दौरान ब्रिटेन में 31 फीसदी, आस्ट्रेलिया में 33 फीसदी, अमेरिका में 41 फीसदी, भारत में 56 फीसदी और हांगकांग में 71 फीसदी लोगों को नौकरी जाने का डर सता रहा है। सर्वे के मुताबिक सबसे अधिक खतरा आईटी, निर्माण और मीडिया कंपनियों पर मंडरा रहा है।
रोजगार की दृष्टि से विमानन क्षेत्र में आने वाले दो साल बेहद मुश्किल भरे रहने वाले हैं। प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से देश के विमानन क्षेत्र में करीब 75 लाख नौकरियां खतरे में आ गई हैं। रेटिंग एजेंसी 'क्रिसिल'का मानना है कि हालात सामान्य होने में दो साल का समय लग सकता है। गौरतलब है कि विमानन क्षेत्र से जुड़े होटल, ट्रैवल, टैक्सी और दूसरे तरह के तमाम रोजगारों पर संकट के बादल छाए हुए हैं।
मौजूदा संकट ने अमेरिका को घुटनों पर ला दिया है। अकेले अप्रैल माह में ही 2.05 करोड़ अमेरिकियों को नौकरी गंवानी पड़ी। एक दशक में अमेरिका में 2.28 करोड़ लोगों को नौकरियां मिलीं, जिनमें से 90 फीसदी छिन गईं। वहां बेरोजगारी दर बढ़ कर 14.7 फीसदी हो गई है। अमेरिकी श्रम विभाग के अनुसार अकेले अप्रैल के बेरोजगारी के आंकड़ों ने अक्टूबर-2009 में आई वैश्विक मंदी को भी पीछे छोड़ दिया है। वहीं अर्थशास्त्रियों का कहना है कि अमेरिका में बेरोजगारी दर उच्च स्तर पर पहुंच सकती है। 1929 की महाबंदी के दौरान भी कुछ ऐसे ही हालात थे। 1933 में अमेरिका में बेरोजगारी दर 25 फीसदी थी। हालांकि इस साल फरवरी में अमेरिका में बेरोजगारी दर 50 साल के न्यूनतम स्तर 3.5 फीसदी पर आ गई थी। मार्च में यह 4.4 फीसदी थी। आंकड़े बताते हैं कि अप्रैल में 1.04 करोड़ पुरुषों की नौकरी गई। पुरुषों के मुकाबले 1.19 करोड़ महिलाएं बेरोजगार हुई हैं। फरवरी में महिलाओं में बेरोजगारी दर 3.4 फीसदी थी, जो मौजूदा दौर में बढ़ कर 16.2 फीसदी हो गई है। पुरुषों में यह आंकड़ा 3.6 फीसदी से बढ़ कर 13.5 फीसदी हो गया है।
अर्जेंटीना में हालात दिन-ब-दिन बदतर होते जा रहे हैं। 4 करोड़ 40 लाख की आबादी में एक तिहाई लोग गुरबत में जी रहे हैं। महामारी के पहले से 80 लाख लोग भोजन की गुहार लगा रहे थे। इनमें 30 लाख नए लोग और आ जुटे हैं। मिस्र में भी हालात खराब हो चुके हैं। आईएलओ का दावा है कि राजधानी काहिरा में ही दो करोड़ लोग तंगहाली से बेजार हैं। क्योंकि उनका रोजगार बंद हो चुका है और नौकरी जा चुकी है। घर लौट रहे लोगों के पास भी कोई काम नहीं है। मिस्र में एक मजदूर को गुजारा करने के लिए कम से कम सौ रुपए की दरकार रहती है। मिस्र की करीब छह फीसदी जनता अत्यंत गरीबी में जी रही है।
दिनों-दिन भयावह हो रही स्थिति के मद्देनजर संयुक्त राष्ट्र ने कमजोर देशों में जरूरी संसाधन उपलब्ध करवाने के लिए सरकारों, कंपनियों और अरबपतियों से 6.7 अरब डॉलर की निधि दान करने की अपील की है। विशेषज्ञों का कहना है कि इस मदद में नाकाम रहने का अर्थ भुखमरी की वैश्विक महामारी को बढ़ावा देना होगी। जिसके चलते दुनिया को अकाल, दंगे, संघर्ष का सामना करना पड़ सकता है। एक आकलन के अनुसार हालात यदि यही रहे तो इस साल के अंत तक 26.6 करोड़ लोग भुखमरी के कगार तक पहुंच जाएंगे। जिसे रोकने के दो ही तरीके हैं। पहला- आर्थिक मदद उपलब्ध करवाना और दूसरा- आपूर्ति श्रृंखला को सुचारू रूप से जारी रखना। निसंदेह आज हमें यह जरूर सोचना चाहिए कि संवैधानिक तरीके से भूख से जंग कैसे लड़ी जाए।
-----------------------------------