मेरी प्रथम पाठशाला मेरे गाँव में / गीताश्री
“नहीं हुआ है अभी सबेरा
पूरब की लाली पहचान
चिड़ियों के जगने से पहले
खाट छोड़ उठ गया किसान “
ये कविता सुनते पढ़ते हम बड़े हुए हैं. दिमाग पर बहुत अलग असर है.
हम तो गाँव में काफी रहे. हम खेले हैं खेतों में. दहाउड़ काका जब हल चलाते थे, फिर खेत प्लेन करते थे, हम उस पर सवार हो जाते थे. पूरा खेत चक्कर लगाते थे. बड़ा -सा बथान था, जहाँ मवेशी बँधे रहते. प्रेमचंद का हीरा मोती हमारे घर में भी था. गायें , भैंसे सब .
हमारी हर छुट्टी गाँव में बीतती थी. आज लोग पहाड़ पर, समंदर किनारे जाते हैं. हमारी लिली फुआ ने बचपन में कहा था- याद है. भूलती नहीं .
“ बउआ, हमरा लेल हमर गाँव ही कश्मीर है.. ओतने सुंदर “
मेरे ज़ेहन में बस गया. फिर शिकायत खत्म कि बाबूजी हमें हर बार गाँव क्यों ले आते हैं, क्यों नहीं नैनीताल ले जाते हैं. हमारी दुनिया सीमित थी- गाँव , गाछी, चौर ( नदी), पोखरा, खेत और टोला-मोहल्ला और पेंठिया ( हाट) तक.
कुछ दिन गाँव के स्कूल में पढ़े. मेरी प्रथम पाठशाला गाँव में है.
आज भी है.
पिछले दिनों गई थी. नयी बिल्डिंग बन गई है. पुराना ढाँचा अब भी है. वो कमरा भी है जिसमें मैं बोरा बिछा कर पढ चुकी हूँ.
और हमारे गुरु जी “ ढब ढब “ मास्टर जी , जो हमारे घर पर ही रहते थे. सरकारी टीचर थे, जिन्हें हमारे बाबा ने कमरा दे दिया था रहने के लिए. वो बदले में हमें शाम को पढ़ा दिया करते थे. मेरी कहानी में वे बार-बार आते हैं, झांकते हैं.
- मैं किसान की पोती हूँ !!