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किसने मारा गांधी को / कुमार नरेन्द्र सिंह

 यह लेख तीन-चार साल पहले लिखा था लेकिन आज भी प्रासंगिक लगता है।)


किसने मारा गांधी को / कुमार नरेन्द्र सिंह


इसमें कोई संदेह नहीं कि 30 जनवरी, 1948 को दिल्ली के बिरला हाउस में नाथुराम गोड्से नामक एक कट्टर हिंदूवादी ने महात्मा गांधी की गोली मारकर ह्तया कर दी थी लेकिन तब गांधीजी का सिर्फ शरीर ही मरा था, उनकी आत्मा तमाम भारतीयों के दिल में प्रेरणा बनकर जिंदा थी। उनका पार्थिव शरीर तो हमारे पास नहीं रह गया था लेकिन जिन सिद्धांतों, आग्रहों और मूल्यों के लिए वह जीवन-पर्यंत संघर्षशील रहे थे, उनसे हम दूर नहीं हुए थे। कहा जाए तो गांधीजी हमारे बीच नहीं होकर भी हमारे पास थे, उनकी थाती हमारे पास थी। यदि निरपेक्ष रूप से हम आकलन करें तो जल्दी ही यह स्पष्ट हो जाता है कि 30 जनवरी, 1948 को महात्मा गांधी मर कर भी नहीं मरे थे। वास्तव में गांधी की हत्या सिलसिलेवार ढंग से की जाती रही है। इसमें हमारे देश के राजनेताओं के साथ-साथ बुद्धिजीवियों, विचारकों और कार्यकर्ताओं का भी बड़ा हाथ रहा है। दिलचस्प है कि हमने गांधीजी को गांधी के नाम पर ही मारने का काम किया है। सच तो यह है कि पिछले ७० सालों से हम रोज-रोज गांधीजी को मारने का काम करते रहे हैं। और अब तो हमने उनकी लाश इतनी क्षत-विक्षत कर दी है कि किसी के लिए पहचानना भी मुश्किल है। हमने उन सभी चीजों, व्यवस्थाओं, सिद्धांतों, मूल्यों और व्यवहारों की तिलांजलि दे दी है, जिसके लिए गांधीजी ने जीवनभर संघर्ष किया। हमने उनके बताए मार्गों पर चलने के बदले कांटे बिछा दिए ताकि भविष्य में उस पर चलने की कोई हिमाकत भी ना कर सके। शायद हमारे देश के नीति-निर्धारकों को गांधीजी की कोई जरूरत ही नहीं रह गई है। हालत यह है कि आज गांधीवादी होना रूढ़िवादी होने का पर्याय बन गया है। अन्यथा नहीं कि गांधीजी और उनके सिद्धांतों को चुका हुआ मान लेने का प्रचलन बढ़ गया है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि गाधीजी के सिद्धांत भी अप्रासंगिक हो गए हैं। सच कहा जाए तो आज गांधीजी ज्यादा प्रासंगिक नजर आने लगे हैं। पिछले साठ सालों में गांधीजी के साथ हमने जो दुर्व्यवहार किया है, उसके दुष्परिणाम सामने आने लगे हैं। ऐसे में यह कहना शायद गलत नहीं होगा कि जैसे-जैसे गांधीजी को सरकारी नीतियों द्वारा अप्रासंगिक बनाने का प्रयास किया जाता रहा, वैसे-वेसे गांधीजी के विचार ज्यादा प्रासंगिक होने लगे।

गांधी जी हमारे सामने तब और मूल्यवान बनकर आते हैं, जब मानव जीवन में अंधेरा बढ़ जाता है। संकट के गहराने के साथ ही गांधी और प्रासंगिक होते जाते हैं। आज वैश्वीकरण का दौर है, उदारीकरण, निजीकरण और अवारा पूंजी इसके स्तंभ हैं। उपभोक्तावाद को ही जीवन का पर्याय समझने का चलन चल गया है। मॉल संस्कृति ने स्थानीय बाजारों को प्रतियोगिता में पछाड़कर अखाड़े से बाहर कर दिया है। बाजार ही सब कुछ है, वही बताएगा कि हमें कैसे जीना है। जो बाजार के हिसाब से नहीं चलेगा, वह पीछे छूट जाएगा। बाजार रामबाण हैं, वह सब कुछ ठीक कर देगा। पर कहां किया औऱ अब तो वह खुद ही थकने लगा है। उसकी सफलता अब संदिग्ध नहीं रही लेकिन दुर्भाग्य कि अब भी उदारीकरण और निजीकरण को ही सारी समस्याओं के हल के लिए अमोघ अस्त्र समझा जा रहा है। उसे कायम रखने के लिए गरीबी की नई परिभाषा तक तय करने की कोशिश हुई। अमीरी और गरीबी के बीच खाई सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती जा रही है। देश का कोना-कोना सांप्रदायिकता और अनर्गल हिंसा से घायल है। ऐसे में गांधी जी की याद आनी स्वभाविक है। क्या गांधी जी ने इसी स्वराज्य की कल्पना की थी। क्या गाधी जी का स्वराज्य यही है, जहां बड़े-बड़े मंत्री, मुख्यमंत्री अपवित्र साधनों के इस्तेमाल से पैसे बनाने के जूर्म में जेल में बंद हैं।

        यदि कहा जाए कि आज देश में जितनी भी समस्याएं हैं, उनमें से अधिकांश इसलिए पैदा हुईं कि गांधी जी की स्वराज्य की अवधारणा के अनुसार देश की नीतियां निर्धारित नहीं की गईं तो शायद गलत नहीं होगा। आज गांधी जी यदि याद आ रहे हैं तो, यह उनके विचारों की शक्ति है। दरअसल, गांधी जी की स्वराज्य की अवधारणा का अवमूल्यन गांधी जी के जीवन काल में ही शुरू हो गया था। अन्यथा नहीं कि गांधी यह कहने को मजबूर हुए थे कि लोग मेरी मूर्ति पर माला पहनाते हैं लेकिन मेरी बाते कोई नहीं मानता। अपनी पुस्तक हिंद स्वराज्य में उन्होंने अपने सपनों का भारत के बारे में व्यापक रूप से चर्चा की है। इस पुस्तक में अभिव्यक्त अपने विचारों के बारे में वह अंत तक रत्ती भर भी फेरबदल को तैयार नहीं हुए, क्योंकि उन विचारों में उनकी दृढ़ आस्था थी। अपनी इस आस्था के लिए तब उन्हें अनेक लोगों जिनमें कई उनके अपने भी थे, का विरोध भी उन्हें सहना पड़ा, आलोचनाओं का शिकार होना पड़ा। कई लोग तो उन्हें दकियानूश तक समझने लगे। वैसे यह स्वीकार करने में हमें हिचकना नहीं चाहिए कि हिंद स्वराज्य में उद्घाटित उनके विचारों से तब देश के अधिकांश पढ़े-लिखों ने असहमति ही जताई थी और देश में अपेक्षित विकास में उन विचारों को एक तरह से बाधा ही समझा गया था। अकारण नहीं कि देश की आजादी के बाद देश के नीति निर्धारकों ने उनके विचारों को संविधान में समाहित नहीं किया। अगर पंचायती राज और राज्य के नीति निर्देशक तत्वों को छोड़ दिया जाए तो व्यवस्था संचालन के लिए अपनाई गई नीतियों में गांधीवादी विचारों और नैतिकता को कोई जगह नहीं दी गई। इसका परिणाम यह हुआ कि हमारे देश का विकास का विकास एकतरफा हुआ, जहां एक ओर धनी और धनी होते गए और दूसरी तरफ गरीबों की गरीबी बढ़ती गई। यह विकास का मॉडल शहरी सभ्यता और उसके विकास के हिसाब से रचा गया था, जिसमें ग्रामीणों औ ग्रामीण इलाकों के विकास के लिए कोई जगह नहीं थी। सभी जानते हैं कि भारत का समुचित विकास तब तक नहीं हो सकता, जब तक गांवों का विकास नहीं होता, लेकिन दुर्भाग्य यही है कि उसकी ओर हमारे देश के संचालकों ने कोई ध्यान नहीं दिया। देश में शहरीकरण की प्रक्रिया परवान चढ़ती रही और उसी अनुपात में गांव उजड़ते गए। साधन, सुविधा और रोजगार के अभाव में ग्रामीण इलाकों से लोगों खासकर युवाओं का पलायन होता रहा और यह प्रवृत्ति आज भी जारी है। पलायन अपने आप में तो एक समस्या है ही, यह अनेक समस्याओं को जन्म भी देता है। स्थानीय लोगों से पलायन करने वालों का टकराव इसी से उपजी एक समस्या की कड़ी है।

             ऐसी स्थिति में गांधी जी हमें और प्रासंगिक नजर आने लगते हैं। बिना बताए भी स्पष्ट है कि गांधी जी के सपनों का भारत गांवों में ही बसता है। गांवों के जरिए वह देश तक पहुंचना चाहते थे। स्वराज्य का उनका नजरिया गांवों के विकास पर आधारित था। शहरीकरण, निजीकरण और उदारीकरण के प्रभाव में गांव अपनी पहचान कायम रखने में नाकाम हो रहे हैं। अब तो आलम यह है कि शायद ही देश में कोई ऐसा ग्रामीण इलाका बचा हो, जहां से कुटीर उद्योग गायब नहीं हो गए हों। गांधी जी गांवों की आत्मनिर्भरता की बात करते थे लेकिन विडंबना देखिए कि अब गांव अपने अस्तित्व के लिए शहरों पर निर्भर होते जा रहे हैं। जीने के उनके पारंपरिक साधन तो नष्ट हुए ही, उनके लिए कोई वैकल्पिक व्यवस्था भी नहीं की गई। फलस्वरूप उनमें एक तरह की हीन भावना भी पनपी। उनकी यह हीन भावना कम साधन में जीने की उनकी आदत से पैदा नहीं हुई थी बल्कि शहरों में बढ़ती सुविधाओं और चकाचौंध से पैदा हुई है। अब वे शहरी लोगों से  अपने को कमतर समझने लगे, जबकि शहरों का अस्तित्व आज भी गांवों के भरोसे ही कायम है। कौन नहीं जानता कि दुनिया को कोई भी शहर अपने लिए खाना पैदा नहीं करता, इसके लिए उसे गांवों पर ही निर्भर करना पड़ता है। लेकिन अब शहरों, महानगरों में बैठे धनकुबेर तय करते हैं कि गांवों के लोग अपने खेतों में क्या पैदा करेंगे। उनकी तथाकथित स्वयत्तता अब नहीं बची है, वे शहरी लोगों की इच्छाओं के गुलाम होते जा रहे हैं। यानी मालिक ही गुलाम बनाए जा रहे हैं। देश में आज भूखमरी का जो हम आलम देख रहे हैं, वह गांधी जी के ग्राम स्वराज्य की अवधारणा के बिलकुल उलट है। चुंकि गांधी जी ने ग्राम स्वराज्य का नारा दिया था, इसलिए एक बार फिर हमें गांधी जी याद आ रहे हैं। उनकी याद हमें उदारीकरण की वैकल्पिक राहें तलाश करने के लिए उकसाती हैं। इसमें कोई शक नहीं कि आज भी ऐसे अनेक संगठन और लोग हैं, जो गांधी जी की ग्राम स्वराज्य की अवधारणा में विश्वास करते हैं और उसे मूर्त रूप देने के लिए प्रयासरत हैं लेकिन उनकी कोशिश सरकार में बैठे लोगों को भा नहीं रहा है। अगर गांव आत्म निर्भर होते तो कहने की आवश्यकता नहीं कि देश भी आत्म निर्भर होता। गांवों को गुलाम बनाकर हम वास्तव में देश को गुलाम बना रहे हैं। हमारे देश के अन्नदाता आत्महत्या कर रहे हैं और हमारी सरकारें वैश्वीकरण के गीत गा रही हैं। ऐसे में यह कहना शायद अनुचित नहीं होगा कि हमने गांधी जी की ग्राम स्वराज्य की अवधारणा को तिलांजलि दे दी है। वैसे सच तो यह है कि गांधी जी की स्वराज्य की अवधारणा को यहां के गरीबों ने ही सही ढंग से समझा था। देश के ग्रामीण इलाकों को लोग स्वराज्य नहीं बल्कि सुराज कहते हैं। स्वराज्य तो आया लेकिन उसके साथ सुराज नहीं आया।

         देश के विकास के लिए अन्यथा चिंतित हमारे व्यवस्था संचालकों ने शहरीकरण के साथ-साथ उद्योगीकरण को ही देश का भविष्य मान लिया है। वे हमें बताते हैं कि उद्योगीकरण के बिना देश का विकास संभव नहीं है। यह बात बहुत हद तक सही भी है लेकिन सवाल तो यह है कि क्या सिर्फ शहरों में ही उद्योगीकरण होना चाहिए। आखिर क्यों विकास और उद्योगीकरण की सारी गंगा शहरों में ही बहाई जा रही है। यहां तक कि कृषि आधारित उद्योग भी शहरों में ही स्थापित किए गए औऱ किए जा रहे हैं। यह एक तरह से ग्रामीणों को गुलाम बनाने की ही प्रक्रिया है क्योंकि इससे शहरों पर उनकी निर्भरता बढ़ती जाती है। जाहिर है कि ग्रामीण और शहरी इलाकों के बीच बढ़ती आर्थिक खाई को रोकने में गांधी जी का ग्राम स्वराज्य कारगर भूमिका निभा सकता है, जरूरत है तो बस उनके विचारों को नीतियों में जगह देने की।

       महात्मा गांधी ने शासन व्यवस्था के लिए पंचायती राज को जरूरी बताया था और इसके साथ ही उन्होंने संसदीय लोकतंत्र को ‘ बांझ वेश्या ’ करार दिया था। तब उनकी इस बात को अप्रासंगिक बताकर खारिज किया गया था। हमारे देश के नए संचालकों को इसका एहसास हो भी कैसे सकता था कि जिस संसदीय लोकतंत्र के जरिए इंगलैंड ने सब कुछ हासिल किया, वह भारत में आकर फिसड्डी साबित होगा। उनके लिए तो वह आधुनिकता का पुरस्कार था लेकिन गांधी जी की पैनी दृष्टि से उसके गुण-दोष कैसे छिपे रह सकते थे। यही कारण था कि उन्होंने भारत में संसदीय लोकतंत्र की की उपादेयता को लेकर संदेह व्यक्त किया था। यह अलग बात है कि गांधी जी के सिद्धांतों में कथित आस्था रखने वाली कांग्रेस पार्टी ने उनके विचारों की कोई परवाह नहीं की और ग्राम स्वराज्य की उनकी अवधारणा महज पाठ्य-पुस्तकों तक सिमट कर रह गया। आज अपने देश में जो पंचायती राज व्यवस्था लागू है, उसका गांधी जी की पंचायती व्यवस्था से कुछ लेना-देना नहीं है। जहां गांधी जी पंचायती राज व्यवस्था को ही प्रशासनिक व्यवस्था का आधार बनाना चाहते थे, वहीं उनके वारिसों ने उसे महज एक औपचारिक संस्था बनाकर रख दिया, जिसका रहना भी नहीं रहने के बराबर रहा। आधुनिक दौर में भी पंचायतों को पैसे तो मिले लेकिन अधिकार अत्यंत सीमित हैं। इतना ही नहीं, मुखिया, सरपंचों के जिम्मे काम तो कई प्रकार के रखे गए लेकिन स्वयं उन्हें कोई पगार नहीं दी जाती। इसके चलते पंचायत के कामों में भ्रष्टाचार बढ़ता जा रहा है।

        गांधी जी के स्वराज्य में मशीनों की न्यूनतम भूमिका होनी थी यानी उद्योगीकरण को वहीं तक बढ़ावा दिया जाना चाहिए, जहां तक वे मनव श्रम का निषेध नहीं करें। दूसरे शब्दों में गांधी जी बेरोजगारी पैदा करने वाले उद्योगीकरण के खिलाफ थे। लेकिन स्वतंत्र भारत के संचालकों ने ठीक इसके विपरीत किया। उन्हें इस बात की कोई परवाह नहीं रही कि अंधाधूंध उद्योगीकरण के कारण देश में बेरोजगारी भयावह हो सकती है। विकसित कहलाने की होड़ में हमारे देश के नीति निर्धारकों ने उद्योगीकरण को ही भारत का भविष्य समझ लिया। नतीजा सामने है। आज अमेरिका और इंग्लैंड जैसे देशों, जो उद्योगीकरण की मिसाल हैं, में भी बेरोजगारी और आर्थिक मंदी पसरी हुई है और उससे निकलने के उनके सारे प्रयास विफल हो रहे हैं। मंदी की मार से अगर भारत बुरी तरह प्रभावित नहीं हुआ तो इसका एकमात्र कारण यही है कि यहां का बाजार नियंत्रित बाजार नहीं था। मॉल्स और शॉपिंग कॉम्प्लेक्स से अलग स्थानीय बाजारों का हमारे यहां आज भी बोलबाला है। इसके चलते लोगों को यहां कई तरह के विकल्प उपलब्ध रहते हैं। उद्योगीकरण को लेकर गांधी जी के विचारों के बारे में आम धारणा यही है कि वह इसके खिलाफ थे, जबकि वास्तव में गांधी जी उस उद्योगीकरण के खिलाफ थे, जो लोगों के हाथ से काम छीनकर उन्हें बेरोजगार बनाता है। गांधी जी का आग्रह था कि अधिकांश काम हाथ से किए जाएं क्योंकि इससे लोगों को रोजगार मिलेगा और उसके श्रम की गरिमा भी बनी रहेगी। लेकिन हमने उनके बताए रास्ते को छोड़ दिया और देश में बेरोजगारों की फौज खड़ी हो गई। हस्तकला, शिल्प और कुटीर उद्योग के लिए जगह ही नहीं बची और कलाकार मजदूर में परिवर्तित होकर शहर की खाक छानने लगे। पता नहीं, आज भारत के मॉल्स, कॉल सेंटर्स और बड़ी-बड़ी औद्योगिक इकाइयों को देखकर गांधी  जी क्या कहते।

        दरअसल, गांधी जी की स्वराज्य की अवधारणा तुलसी के रामराज्य की कल्पना पर आधारित थी, जिसके बारे में तुलसी दास ने कहा है – ‘ दैहिक दैविक भौतिक तापा, रामराज काहुही नहीं व्यापा ।’ इतना ही नहीं, उनका स्वराज्य वास्तव में सुराज का पर्याय था और यह कहने में हमें कोई ऐतराज नहीं होना चाहिए कि गांधी जी के स्वराज्य की अवधारणा को समुचित रूप से इस देश की आम और गरीब जनता ने ही समझा था। अकारण नहीं कि उनके लिए स्वराज्य का मतलब हमेशा सुराज ही रहा। इसमें यह बात निहित है कि उस स्वराज्य का कोई मतलब नहीं, जो सुराज को संभव नहीं बनाता। आज के संदर्भ में गांधी जी की सुराज की अवधारणा बड़ी प्रासंगिक दिखाई देती है। हमने स्वराज्य तो प्राप्त कर लिया लेकिन सुराज देखना अब भी बाकी है। पता नहीं कभी देखने को मिलेगा भी या नहीं। गांधी जी के स्वराज्य को हमारे देश के राजनेताओं ने क्या बनाकर रख दिया है, यह कहे बिना भी स्पष्ट है। जनता की सेवा करने का दंभ भरने वाले हमारे राजनेता आज जनता को ही नोंच रहे हैं। सेवा का भाव लालच और स्वार्थ के दलदल में बिला गया है। यही कारण है कि आज महात्मा गांधी के स्वराज्य के बारे में व्यक्त विचार ज्यादा प्रासंगिक लग रहे हैं। उनका स्वराज्य सीमित साधनों के इस्तेमाल पर आधारित था। गांधी जी कहा करते थे कि यह धरती दुनिया के सभी लोगों के पेट तो भर सकती है लेकिन किसी एक की लालच भी पूरी करने में असमर्थ है। विडंबना है कि आज हम सभी लालच से ही निर्देशित हो रहे हैं। हवाले, घोटाले और हर किस्म के भ्रष्टाचार लालच की कोख से ही पैदा होते हैं। अपनी इच्छाओं को सीमित रखना यानी उस पर नियंत्रण रखना गांधी जी का एक मूल आग्रह था लेकिन देखिए कि हमारे देश के बड़े लोग अपनी लालच पर कितना नियंत्रण रखते हैं। गांधी जी की खादी अब फैशन बनकर गरीबों से दूर हो गई है। खादी इतनी महंगी हो गई है कि कोई गरीब अब खादी पहनने की सोच भी नहीं सकता।

         धर्म निरपेक्षता के पुरोधा गांधी जी ने उसी के लिए अपनी जान तक न्योछावर कर दी। धर्म उनके लिए जीवन संदेश था और यही कारण है कि उन्होंने धर्म के प्रचलित रूप को स्वीकार नहीं किया। इतना ही नहीं, जब हिमालय क्षेत्र के धार्मिक स्थलों को देखने के बाद उनसे प्रश्न किया गया तो उनका कहना था कि यदि सुंदर-सुंदर पहाड़ों और वहां की प्राकृतिक सुषमा को छोड़ दिया जाए तो वहां वितृष्णा के सिवा कुछ नहीं है। गांधी जी अपने आध्यात्मिक भूख मिटाने के लिए कभी किसी मंदिर में नहीं जाते थे क्योंकि उनका मानना था कि ईश्वर सर्वत्र है, उसके साथ एकाकार के लिए किसी मंदिर की आवश्यकता क्यों हो। लेकिन उसी गांधी के देश में आज धर्म निरपेक्षता का जनाजा निकाला जा रहा है। धर्मांधता फैशन बनने लगा है। उपरोक्त बातों पर यदि ध्यान दें तो स्पष्ट हो जाता है कि गांधीजी की वास्तविक हत्या में हम सभी शामिल हैं। यदि हम अपने पापों का प्रायश्चित करना चहाते हैं को हमें गांधी के बताए रास्तों पर ही आगे बढ़ना होगा। क्या ऐसा करने के लिए हम तैयार हैं?


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