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7 January 2011 5 Comments
♦ भूपेन सिंह
प्रणयरॉय, राजदीप सरदेसाई, बरखा दत्त, अरुण पुरी, रजत शर्मा, राघव बहल, चंदनमित्रा, एमजे अकबर, अवीक सरकार, एन राम, जहांगीर पोचा और राजीव शुक्ला कापरिचय क्या है? ये पत्रकार हैं या व्यवसायी? बहुत सारे लोगों को ये सवालबेमानी लग सकता है। लेकिन भारतीय मीडिया में नैतिकता का संकट जहां पहुंचाहै, उसकी पड़ताल के लिए इन सवालों का जवाब तलाशना बहुत जरूरी हो गया है। इसलिहाज से पत्रकारीय मूल्यों और धंधे के बीच के अंतर्विरोधों का जिक्र करनाभी जरूरी है।
जो लोगन्यूज मीडिया को वॉच डॉग, समाज का प्रहरी यालोकतंत्र का चौथा स्तंभ जैसा कुछ मानते हैं, वे अपेक्षा करते हैं कि मीडियासामाजिक सरोकारों से जुड़ा काम करेगा। वे नहीं मानते कि खबर सिर्फ एकउत्पाद है, जिसका धंधा किया जाना है। टाइम्स ऑफ इंडिया ग्रुप उन्नीस सौनब्बे के दशक में समीर जैन के प्रभाव में आने के बाद से ही इस बात कोसामाजिक स्वीकृति दिलाने के प्रोपेगैंडा में जुटा है कि खबरें बिक्री कीवस्तु के अलावा और कुछ नही हैं। इसलिए इस अखबार में संपादक की बजाय ब्रैंडमैनेजर हावी होते जा रहे हैं, जो तय करते हैं कि अखबार में वहीं खबर छपेगी, जो उनकी नजर में बिकाऊ हो।
एक पत्रकार सेहम लोकतांत्रिक मूल्यों के पक्ष मेंखड़ा होने की अपेक्षा करते हैं। पत्रकार का धंधेबाज बन जाना इस पेशे कीनैतिकता पर सवाल खड़ा करता है। व्यवसायी हमेशा पूंजी और मुनाफे की दौड़ मेंशामिल होता है। पत्रकार अगर व्यवसायी बनेगा तो निश्चित तौर पर व्यवसायी औरपत्रकार के हित आपस में टकराएंगे। पत्रकारीय हितों को मुनाफे के हित बाधितकरेंगे। यहां पर पत्रकारिता का इस्तेमाल मुनाफा कमाने के लिए होने लगेगा, इस बात में कोई शक नहीं।
पेड न्यूज औरनीरा राडिया परिघटना के सामने आने के बादये बात साबित हो गयी है कि हमारे यहां पत्रकारिता, धंधेबाजी का पर्यायबनती जा रही है। इस संकट का मूल कारण जहां मीडिया का धंधेबाज बनना है, वहींधंधेबाज मीडिया ने कई पत्रकारों को भी दलालों में बदल दिया है। ऐसी मीडियाकंपनियों में उच्च पदों पर काम करने वाले पत्रकारों को बड़ी-बड़ी अश्लीलतनख्वाहों के साथ कंपनी के शेयर का एक हिस्सा भी दिया जाता है। जाहिर है किऐसा करके उसे कंपनी को मुनाफे में लाने के लिए पत्रकारिता करने काप्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष दबाव बनाया जाता है। पत्रकारिता और धंधे के बीच कीलाइन के धुंधला होने से वामपंथी रुझान के माने जाने वाले कई तीसमार खांपत्रकार भी इस खेल में शामिल होकर धन्य हो रहे हैं। अब ये सवाल उठाने कावक्त आ गया है कि कुछ साल पहले तक के सामान्य पत्रकार आखिर करोड़पति-अरबपतिकैसे बने हैं। नेताओं से संपत्ति की घोषणा करने और उसके स्रोत बताने कीमांग करने वालों को अब ऐसे लोगों से भी सवाल पूछना पड़ेगा कि वे अपनीसंपत्ति का ब्योरा दें।
आज अगरमीडिया के पतन की गाथा को समझना है तो उसके लिएइसके ऑनरशिप पैटर्न यानी मालिकाने की असलियत को समझना जरूरी होगा। अब येबात किसी से छिपी नहीं है कि किसी भी मीडिया हाउस से कैसी खबरें बाहरनिकलेंगी, उसके लिए सबसे ज्यादा प्रभावी उसका मालिक ही होता है। वहां कामकरने वाले पत्रकार अगर मालिक की मंशा के खिलाफ एक भी खबर सामने लाएंगे, तोअगले पल ही उन्हें नौकरी से हाथ धोना पड़ेगा। आर्थिक उदारीकरण के दौर मेंशातिर लोग जानते हैं कि सीधे दलाली करने में कई मुश्किलें आ सकती हैं।इसलिए अगर कोई भी धंधा चमकाना है, तो मीडिया के मालिकाने में अपना हिस्सारखना जरूरी है। अंबानी बंधुओं ने कई मीडिया घरानों में ऐसे ही अपना पैसानहीं लगाया है!
अब असली बातपर अगर आएं, तो प्रणय रॉय अगर एनडीटीवी केमालिक हैं तो क्या एक पत्रकार के तौर पर उनके आर्थिक हित मालिक प्रणय रॉयसे नहीं टकराते। यही बात सीएनएन-आईबीएन के मालिक राजदीप सरदेसाई, एनडीटीवीके मालिकाने में हिस्सेदार बरखा दत्त, टीवी 18 के मालिक राघव बहल, इंडियाटीवी के मालिक रजत शर्मा, पायनियर के मालिक चंदन मित्रा, न्यूज 24 के मालिकराजीव शुक्ला, द संडे गार्डियन के मालिक एमजे अकबर, आनंद बाजार पत्रिका, टेलीग्राफ और स्टार न्यूज के मालिक अवीक सरकार, द हिंदू के मालिक एन राम औरइंडिया टुडे ग्रुप के मालिक अरुण पुरी के संदर्भ में भी पूछी जानी चाहिए। (इस मामले में अवीक सरकार और एन राम अपवाद हैं, आनंद बाजार पत्रिका समहू औरद हिंदू समूह जिनको पारिवारिक विरासत में मिला, लेकिन सवाल यहां भी जस कातस है कि कोई एक ही व्यक्ति पत्रकार और मालिक क्यों रहे?)। इन लोगों नेपत्रकारिता से मालिक बनने का सफर क्यों और कैसे तय किया है, इस पूरेगोरखधंधे से अगर पर्दा हट जाए तो राडिया कांड से मिलता-जुलता एक और कांडसामने आ सकता है। मालिक-पत्रकारों की श्रेणी में सबसे ज्यादा चौंकाने वालानाम है न्यूज एक्स के मालिक जहांगीर पोचा का। कभी लंदन में पोचा की गहरीमित्र रही नीरा राडिया ही उसके कर्मचारियों की तनख्वाह दिया करती थी।राडिया और पोचा के बीच बातचीत के टेप सामने आने के बाद ये बात जाहिर होचुकी है। इस बात का भी पता चल चुका है कि बिजनेस वर्ल्ड का संपादक रहने केदौरान पोचा ने राडिया के क्लाइंट रतन टाटा की तारीफ में कई खबरें प्रकाशितकी थीं।
अब तककई ऐसी बातें सामने आ भी चुकी हैं। जो पत्रकारसे मीडिया मुगल बने ऐसे लोगों के भयानक अतीत की तरफ इशारा करने वाली है। दसंडे गार्डियन में प्रणय रॉय के बारे में छपी खबरें इस बात का ज्वलंतप्रमाण हैं। पत्रकारिता की आड़ में कैसे-कैसे खेल हो रहे हैं, इसे समझने केलिए ये जानना भी दिलचस्प होगा कि पिछले एक-दो दशक में कई पत्रकार, मालिकबन चुके हैं और कई मालिक पत्रकार की खाल ओढ़े अवतरित हो रहे हैं। इस पूरेघालमेल का मकसद दोनों हाथों से मलाई बटोरने के अलावा और कुछ नहीं है। इससिलसिले में नई दुनिया के मालिक अभय छजलानी का पत्रकारिता के हिस्से कापद्मश्री हड़प लेना एक मजेदार उदाहरण हो सकता है। पत्रकारों और मालिकों केएक-दूसरे के क्षेत्र में इतनी आसानी से छलांग लगाने की वजह से भारतीयपत्रकारिता बेईमानी और झूठ-फरेब का पर्याय बनती जा रही है। इस सब के बावजूदपत्रकारों का एक बड़ा हिस्सा है। जो श्रम बेचकर सम्मान अर्जित करने परभरोसा करता है, सरोकारों की पत्रकारिता करता है। जिसे मीडिया के दलाली मेंबदलने का गुस्सा है। अच्छी बात है कि ऐसे लोगों का गुस्सा फूटकर अब सामनेआने लगा है। भले ही मालिक बने पत्रकार अपनी कंपनियों में पत्रकारों को उनकेअधिकार न दे रहे हों, पत्रकार संगठनों को पनपने न दे रहे हों, इस बात केखिलाफ आम पत्रकारों की एकता की सुगबुगाहट एक बार फिर शुरू हो चुकी हैं।
पिछले दिनोंप्रेस क्लब ऑफ इंडिया में राजदीप सरदेसाईबरखा के कामों को सही साबित करने की कोशिश कर रहे थे तो उनके खिलाफ आमपत्रकारों का गुस्सा फूट पड़ा। राजदीप का कहना था कि हो सकता है कुछपत्रकार बरखा की प्रसिद्धि से जलने की वजह से भी उसके खिलाफ बोल रहे हों।उन्हें इस बात का करारा जवाब उसी मीटिंग में मौजूद पत्रकार पूर्णिमा जोशीने बहुत अच्छी तरह दिया। बीच-बीच में राजदीप की हूटिंग सुनकर उनकी पत्नी औरसीएनएन-आईबीएन की एंकर सागरिका घोष को भयानक कष्ट हो रहा था। आम पत्रकारोंका गुस्सा उनके लिए अशिष्ट था। इन पंक्तियों के लेखक के पीछे बैठी वेबोलती रही कि बातचीत में कोई सोफिस्टिकेशन तो होना ही चाहिए। राजदीप औरसागरिका को उस दिन पता चला कि स्टूडियो में कैमरे के सामने मनमाने प्रवचनदेने और जनता के सामने बोलने में कितना फर्क होता है। बाद में दिन की घटनासे परेशान सागरिका ने ट्वीटर पर लिखा कि आम आदमी पत्रकार और सेलेब्रिटीपत्रकारों के बीच एक वर्गयुद्ध छिड़ चुका है। जाहिर है कि इसमें आम आदमीपत्रकार का जिक्र हिकारत के तौर पर था। यहां यह याद दिलाना जरूरी है किराजदीप खुद नीरा राडिया से आपत्तिजनक बात करते हुए पकड़े गये हैं। लेकिन अबतक वे बड़ी शान से पत्रकारिता की आड़ में मालिकों की संस्था एडिटर्स गिल्डऑफ इंडिया के अध्यक्ष बने हुए हैं।
मीडिया की नैतिकतामें आ रही गिरावट को अगर रोकना हैतो एक छोटा सा कदम ये हो सकता है कि धंधेबाजों को धंधेबाजों के तौर पर हीपहचाना जाए। अखबारों और न्यूज चैनलों का धंधा करने वालों के लिए भी कड़ेनियम बनाये जाएं ताकि वे पत्रकारिता का इस्तेमाल अपने दूसरे धंधों कोचमकाने में न कर सकें। इस लिहाज से क्रॉस मीडिया होल्डिंग और क्रॉस बिजनेसहोल्डिंग पर लगाम लगाना जरूरी है। यानी ऐसा न होने पाये कि एक व्यक्तिफिल्म बनाये और अपने समाचार माध्यम में उसका प्रचार भी करे या कोई धन्नासेठ अपने दो नंबर के धंधों को चलाने और सत्ता की दलाली के लिए मीडिया कामालिक बनकर उसका मनमाना उपयोग करे। प्राइवेट ट्रीटीज (मीडिया कंपनी दूसरीव्यावसायिक कंपनी में हिस्सेदारी के बदले उसका मुफ्त में प्रचार करे) कामामला भी मीडिया की नैतिकता के खिलाफ है। इस मामले में मालिकों कीमुनाफाखोरी के मुकाबले श्रमजीवी पत्रकारों की एकता इस गतिरोध को तोड़ने मेंमहत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। ईमानदार पत्रकारों की सामाजिक-आर्थिकन्याय के आंदोलनों में हिस्सेदारी ही हमारे सामने एक नए मीडिया परिदृश्य कीरचना कर सकती है।
(समयांतर के जनवरी अंक में प्रकाशित)

कई अखबारों में नियमित रूप से लिखते हैं। सिनेमा में खासी दिलचस्पी है।
उनसे bhupens@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)