यादें उस राजपथ की ( जो राजपथ था?)/ विवेक शुक्ला
राजपथ के अगल-बगल की हरियाली मखमली घास में बैठकर दिल्ली और देश की कितनी ही पीढ़ियों ने गणतंत्र दिवस परेड के बाद पिकनिक का आनंद लिया है। यही वह जगह है, जिधर सरकारी बाबुओं ने भी जाड़ों के महीनों में लंच के समय ताश खेलकर या लेटकर सूरज की गुनगुनी धूप का सुख प्राप्त किया है। पर जिस राजपथ को दिल्ली देखती रही है,वह तो बदल रहा है। इसके दोनों तरफ इन दिनों मिट्टी के ढेर लगे हैं। यह गवाही है कि 1930 तक बन गए राजपथ का चेहरा बदलेगा। अब यादों में और घरों में ऱखी एल्बम में रहेगा वह राजपथ जिस पर दिल्ली जान निसार करती थी।
सेंट्रल विस्टा को नई शक्ल देने के नाम पर राजपथ पर लगे दर्जनों जामुन और दूसरी प्रजातियों के पेड़ काट दिए गए हैं। ये लगभग 90 साल पुराने पेड़ थे। इधर के जामुन खाने का सुख दिव्य होता था। अब नए सिरे से कब पेड़ लगेंगे और उनमें कब रसीले जामुन आएंगे, इस सवाल का उत्तर कौन दे सकता है। इन जामुन के पेड़ों से दिल्ली के मनुष्यों और बंदरों का मुंह मीठा होता था। बंदर भी इन पर हाथ साफ करते रहे हैं। आपको तो पता ही है कि राजपथ के आसपास की सरकारी इमारतें सैकड़ों बंदरों का आशियाना हैं।
अगर पीछे मुड़कर देखें तो राजपथ का महत्व तब से अधिक हो गया जब से यहां से गणतंत्र दिवस की परेड गुजरने लगी। राजपथ से गणतंत्र दिवस परेड का श्रीगणेश होता है। इसलिए इसे देश की सर्वाधिक महत्वपूर्ण सड़कों में से एक मानने में किसी को आपति नहीं होनी चाहिए। दरअसल राजपथ शुरू होता है रायसीना हिल पर स्थित राष्ट्रपति भवन से।
राजपथ से इंडिया गेट के बीच में विजय चौक आता है। ये गणतंत्र दिवस परेड का सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान है। इसके बीच में गणतंत्र दिवस परेड राष्ट्रपति जी को सलामी देते हुए आगे निकल जाती है। नई दिल्ली की खासमखास इमारतों के डिजाइनरों की चर्चा तो होती रहतीहै,पर किसी को याद नहीं रहता सरदार नारायण सिंह का नाम।
वे लगभग अनाम ही रहे। उन्होंने ही राजपथ को पहली बार तैयार करवाया था। तब उसे किंग्स वे कहा जाता था। सरदार नारायण सिंह की देखरेख में राजपथ समेत राजधानी की अनेक महत्वपूर्ण सड़कों का निर्माण हुआ था। उनका साथ दिया था राजस्थान के मेहनतकशों ने। उन्होंनेही राजधानी को पहला लक्जरी होटल इंपीरियल दिया था। उनका परिवार कस्तूरबा गांधी मार्ग में रहता है। वह भी राजपथ की बदलती सूरत को देखकर दुखी तो होता होगा।
दरअसल जब राजपथ बनी थी तब सड़कों के नीचे भारी पत्थर डाल दिए जाते थे। फिर रोढ़ी और तारकोल से सड़कों का निर्माण होता था। अब राजपथ को बिटुमिनस तकनीक से बनाया जाता है। इससे राजपथ का बाल भी बांका नहीं होता। ये सब बिटुमिनस तकनीक का कमाल है। अभी तो राजपथ के आसपास तोड़ फोड़ हो रही है। देखिए आगे-आगे क्या होता है।
शास्त्री भवन, उद्योग भवन, रेल भवन, विज्ञान भवन भी यादों तथा तस्वीरों में ही रह जाएंगे। इन भवनों में काम करने वाले बहुत से बाबू हर रोज लंच के समय राजपथ के एक कोने पर राम कथा का आयोजन करते हैं। क्या नए बनने वाले राजपथ पर फिर से राम कथा के लिए स्पेस बचेगा?
क्या आगे चलकर इधर के घने पेड़ों के पीछे छिपकर अपने उज्जवल भविष्य की योजनाएं बनाने वाले युवा जोड़ों को भी कोई जगह मिलेगी? बेशक, बदलाव अपरिहार्य है। परिवर्तन को कौन रोक सकता है। पर राजपथ की बदलती सूरत को फिलहाल स्वीकार करना कठिन हो रहा है।
Vivek Shukla
नव भारत टाइम्स में 13 मई को प्रकाशित लेख के अंश।