बड़े लेखक के नखरों से विहीन बड़ा लेखक / प्रेम जनमेजय
कबीर का दोहा है- जो उगै सो आथवै,फूले सो कुम्हिलाय/जो चुने सो ढहि पड़ै, जन्में सो मरि जाय।’ इस दोहे को हम सब पढ़े-लिखों ने पढ़ा होगा। हो सकता है आपने कबीर को नही पढ़ा हो पर सूर, तूलसी, नानक या किसी अन्य संत कवि का लिखा, तो पढ़ा होगा। कितना भी पढ़ा हो पर जब अपना कोई ‘असार संसार’ छोड़कर जाता है तो अपने-अपने जुड़ाव के आधार पर अंदर तक कष्ट से मारकर अज्ञानी बना देता है। पिछले दिनों हम सबने अपने- अपने कष्ट सहे हैं। हम वे सब जो एक बड़़े साहित्यिक परिवार का हिस्सा हैं। इस बार न जाने क्यों लगता है कि जैसे कोरोना बुद्धिजीवियों के पीछे हाथ धोकर पढ़ गया है। कोई ऐसा दिन नहीं आता जब साहित्य की दुनिया से अप्रिय समाचार नहीं मिलता। मृत्यु जैसे प्रतिदिन का समाचार बनकर रह गई है। एक के बाद एक जीवंत रिश्ते एल्बम-से बनने लगे हैं। यह एक कठिन परीक्षा की घड़ी है। यह कठिन समय न जाने आघात सहने की हमारी कितनी और परीक्षाएं लेगा। जो अस्पताल भयमुक्ति का केंद्र हुआ करते थे वे आज डराने लगे हैं। जिस सोशल मीडिया पर लाईक आदि के लिए दिन में अनेक बार चहलकदमियां करते थें उस डगर पर चलने से डर लगता है।
ज्ञानी जानते हैं और मानते भी हैं कि आया है से जाएगा, राजा रंक फकीर। पर जब कोई ऐसा जाता है जिसके पास मानव समाज को देने के लिए अभी बहुत कुछ था] जो अपनी निरंतर रचनात्मक उर्जा और सक्रियता से मानव सभ्यता की बेहतरी के लिए सार्थक सोच दे रहा था तो आने-जाने की व्यवस्था में नाइंसाफी दिखाई देती है। नरेंद्र मेाहन का जाना एक ऐसी ही नाइंसाफी है। 11 मई को उनके जाने का समाचार फेसबुक से मिला तो मुझे अविश्वसनीय लगा। 2 मई को फेसबुक पर सूचना मिली थी कि नरेंद्र मोहन कोरोनाग्रस्त हैं और यमुना नगर के एक अस्पताल में दाखिल हैं। दिल्ली में उनकी बेटी सुमन और नाती भी कोरोनाग्रस्त हैं इसलिए उनकी छोटी बेटी मनीषा उन्हें यमुना नगर ले गई हैं। यह समाचार मुझे चिंतित करने वाला था पर अविश्वसनीय लग रहा था। क्योंकि 29 अप्रैल की सुबह 6 बजकर 21 मिनट पर भेजा गया उनका व्हाट्सऐप संदेश मिला था---‘‘प्रिय प्रेम जी, आप स्वस्थ होगें। ‘व्यंग्य यात्रा’ के लिए आपने मेरे नाटक का चयन किया या कविताओं का या फिर दोनों का।’’ वे मेरा स्वास्थ्य पूछ रहे थे। 14 मार्च को उन्होंने मुझे ‘व्यंग्य यात्रा’ में प्रकाशनार्थ अपना व्यंग्य नाटक ‘हद हो गई यारों’ औेर अपनी 24 व्यंग्य कविताएं भेजी थीं। उस समय मैं जनवरी-मार्च अंक का न केवल प्रारूप बना चुका था अपितु उसमे जाने वाली समाग्री भी तय कर चुका था। फिर भी मैं हिंदी व्यंग्य इस शुभचिंतक साहित्यकार के अमूल्य सहयोग से ‘व्यंग्य यात्रा’ को समृद्ध करना चाहता था। इसलिए मैंने उनकी कुछ कविताओं का चयन कर उसके पेज बनाने के लिए रामविलास को भेज दिया। उनके 29 अप्रैल के व्हाटसएप का क्या उत्तर दूं, यह अभी सोच ही रहा था कि 2 मई को उनके कोरोनाग्रस्त होने की सूचना मिली। सुमन से तो मेरा संवाद है पर मनीषा से नहीं। 29 अप्रैल को रचनात्मक सोच के साथ सक्रिय श्रद्धेय नरेंद्र मोहन कोरोनाग्रस्त होकर अस्पताल में भर्ती कैसे हो सकते हैं! 4 मई को मुझे फेसबुक पर संतोषजनक समाचार मिल गया --नरेंद्र मोहन लगातार स्वस्थ हो रहे हैं। यह सबसे खुशी की बात है।... लगातार फोन पर बात करते और ठहाके लगाते पहले की तरह।...’’ मैंने यह समाचार पढ़कर 5 मई को सुबह फोन किया। मैंने पूछा-कैसे हैं? ठीक हैं?’ उनका जवाब था- हां ठीक हूं प्रेम ।’’ पर मुझे वह ठीक वाले नरेंद्र मोहन की आवाज नहीं लगी। लगा कि शायद बीमारी ने थका दिया है। इसलिए स्वास्थ्य संबंधी औपचारिक-सी ही बात की। तब मुझे उनकी कविता याद आ गई जो उन्होंने मुझे व्यंग्य यात्रा के लिए भेजी थी और जिसका मैंने ताजा अंक में प्रयोग किया है--
यह कैसी माया
प्रभु जी, /यह कैसी माया!/चेतन जड़/जड़ चेतन/उलट गयी काया
उजला काला/काला उजला/बदल गया साया
/चलता बिन पाँव /देखता बिन आॅंख/स्पंदित-रोमांचित
पुतले में जान/मैं बेजान/प्रभु जी...
विविध विधाओं में निरन्तर सक्रिय श्रद्धेय नरेंद्र मोहन हमारे समय के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर थे जिनकी कलम कभी थमी नहीं। वे अपनी कलम के प्रति प्रतिबद्ध थे। उनसे मेरे साहित्यिक संबंध 1971 में आरंभ हो गए थे। वह एक आंदोलन प्रिय कलमकारों का समय था। कहानी और कविता में अनेक आंदोलन और आंदोलनकारी सक्रिय थे। एक ऐसे ही कथा आंदोलन ‘सचेतन कहानी’ के जनक महीप सिंह थे। ‘संचेतना’ के माध्यम से अपनी सक्रिय उपस्थिति दर्ज करा रहे थे। मुझे मेरे एम ए के लघुशोध प्रबंध के लिए विषय मिला था , ‘ प्रेमचंद की कहानियों में सामाजिक परिवेश’ और मेरे निदेशक नियुक्त किए गए थे डाॅ0 महीप सिंह। उन्होंने मेरी आर्थिक सहायता करने का विचार देते हुए गर्मी की छुट्टियों का सदुपयोग ‘संचेतना’के लिए काम करने के रूप में दिया। यह दीगर बात है मिलने पर वह ऊंट के मुह में जीरा भी नहीं था।‘फिल्मिस्तान’ के समाने गली में स्थित प्रेस में अक्सर महीप सिंह, रामदरश मिश्र, विनय, नरेंद्र मोहन आदि आते और उनकी गप्प गोष्ठी भी जमती थी। साहित्यिक दंगल की रणनीति, उठापटक के किस्से और परनिंदा की मीठी गोलियां चूसी जाती थीं। मैं अबोध बालक -सा प्रूफ पढ़ने की मुद्रा में शिक्षित हो रहा था। उस समय शायद मुझे छोटा बच्चा समझ संबंधों से दूर रखा गया पर बाद में इन सबसे गहरे सबंध हुए। नरेंद्र मोहन जी साथ भी प्रगाढ़ संबंध बाद का ही हिस्सा हैं। इसी संबंध के तहत उन्होंने ‘व्यंग्य यात्रा’ अपनी रचनात्कता से अनेक बार समृद्ध किया। 2019 के रवींद्रनाथ त्यागी सम्मान समारोह के मुख्य अतिथि थे और उन्होंने व्यंग्य को लेकर जो कहा,जो चिंताएं प्रकट की वे उनकी गहरी सोच को रेखांकित करती हैं। मेरे व्यंग्य संकलन ‘हँसो हँसो यार हँसो’ पर विस्तृत लेख लिखा था जो ‘विभोम स्वर’ में प्रकाशित हुआ था।
नरेंद्र मोहन जी की सक्रियता, दोस्ताना लहजा, अपने लिखे और जिंदगी से प्यार आदि बहुत मुझे आकृष्ट करते थे। उनमें आलस्यभाव बिल्कुल नहीं था और न वे काम को टालते थे। वे बड़े लेखक थे पर बड़े लेखक के नखरों से विहीन। अपने बढ़प्पन को रचनात्मक सहयोग में आड़े नहीं आने देते थे। उन्होंने बहुत कुछ लिखा पर एक जिज्ञासु की तरह वे निरंतर उसे न लिखे को लिखने की तलाश में रहते जो उन्हें चुनौती देता। यही कारण है कि गद्य-पद्य की अनेक विधाओं को उन्होने समृद्ध किया। संभवतः यही कारण है कि उन्होंने व्यंग्य पर आलोचनात्मक भी लिखा। कोई विषय उनके लिए सीमा नहीं था।