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मेरी पहली विदेश यात्रा / डॉ धनंजय सिंह

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 मेरी पहली विदेश यात्रा (मॉरीशस की ही थी) की पृष्ठभूमि भी बडी रोचक है। मथुरा में मेरे एक पत्रकार मित्र हैं श्री पवन निशान्त..... वह ज्योतिषी भी हैं। कादम्बिनी कार्यालय में अकसर आकर मिलते रहते थे। जून, 1993 की एक ऐसी ही मुलाकात में उन्होंने मुझसे कहा कि भाई साहब एक वर्ष की अवधि के अंदर आप विदेश जानेवाले हैं। मैंने हँसकर कहा कि मित्र, क्यों मजाक कर रहे हैं..... भला मैं साधनहीन व्यक्ति कैसे विदेश जाऊँगा.......

वह भी हंसकर बोले कि जाना तो होगा....... बहुत प्रबल योग है।..... बात आयी-गयी हो गयी।

उसी वर्ष 20 नवम्बर की रात में लगभग साढे दस बजे प्रख्यात वरिष्ठ साहित्यकार और केंद्रीय हिन्दी निदेशालय के तत्कालीन निदेशक डॉ. गंगा प्रसाद विमल का फोन आया। अत्यंत मृदुल एवं हँसमुख डॉ. विमल ने पूछा, "बंधु, क्या कर रहे हो?"मैंने प्रणाम करके कहा कि भगवन, सोने की तैयारी कर रहा हूँ।........ उनहोंने कहा कि 30 नवम्बर को तुम्हें मॉरीशस जाना है। डॉक्टर भी जा रहा है। तैयारी कर लो।......... मैंने कहा कि मैं कैसे जा सकता हूँ, मेरे पास तो न कोई साधन है और पासपोर्ट भी नहीं है।...... विमल जी बोले कि तुम कल मेरे कार्यालय आकर अपना और डॉक्टर का निमंत्रण पत्र ले लेना। उसे लेकर पासपोर्ट कार्यालय जाओगे तो पासपोर्ट तत्काल बन जाएगा।.......

मैंने डॉक्टर ( प्रो. हरिमोहन) को फोन किया। वह बोले कि मैं सुबह श्रीनगर (गढवाल से) आपके पास आ जाऊँगा, फिर दोनों भाई डॉ. विमल के पास चलेंगे।

डॉ. विमल से अगले दिन निमंत्रण पत्र और एक पत्र लेकर हम दोनों दिल्ली स्थित पासपोर्ट कार्यालय पहुँचे , तो पता चला कि हमारे पासपोर्ट तो बरेली में बनेंगे। प्रो. हरिमोहन श्रीनगर लौट गये। 23 तारीख को हम दोनों मुरादाबाद में मिलकर बरेली सुकवि वरिष्ठ गीतकार श्री किशन सरोज को लेकर बरेली पासपोर्ट कार्यालय जा पहुँचे। अधिकारी किशन सरोज जी के मित्र थे। वह बोले कि ठीक है दूसरों का पासपोर्ट एक वर्ष में बनता है , इनका छह महीने में बना देंगे।........ सरोज जी ने कहा कि इन्हें तो 30 नवम्बर को ही मॉरीशस जाना है। ...... सुनकर वह हँसे और बोले कि तो फिर ठीक है..... कल हमारे कार्यालय में आंतरिक कार्य का दिन है...... परसों सुबह हम इनको पासपोर्ट दे देंगे।...... परसों, अर्थात्  25 नवम्बर को सुबह हमें पासपोर्ट मिल गये।


दोनों भाई दिल्ली आये....... टिकट, वीजा आदि की व्यवस्था हुई और 30 नवम्बर को हम पहली विमान यात्रा करके मुम्बई के सहार विमान पत्तन पहुँच गये। वहाँ से रात को मॉरीशस की उडान थी....... सुबह मॉरीशस जा पहुँचे।...... तो इस प्रकार पहली विदेश और पहली ही विमान यात्रा सम्पन्न हुई।

हमारे जाने के बाद श्रीमती जी एक पडोसिन को बता रही थीं कि मुम्बई से पोर्ट लुइस तक विमान साढे छह समुद्र पर ही उडान भरेगा...... बीच में पृथ्वी तल नहीं है...... तो पडोसिन ने तपाक से कहा ..... "अहा, ऐसे में विमान गिर जाए तो कितना मजा आए।".........श्रीमती जी तो सुनकर सन्न रह गयीं, पर बोलीं कुछ नहीं। 

वापसी की यात्रा में विमान एक दिन विलम्ब से चलना था...... हमारे पास घर सूचना देने का कोई साधन नहीं था........ श्रीमतीजी की ऐसे में क्या मनोदशा हुई होगी....... आप अनुमान लगा सकते हैं।


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