ये मुलाक़ात इक बहाना है…./ रवीश कुमार
ज़ूम मीटिंग शुरु हो गई है। कुछ लोग समय से पहले आ चुके हैं। कुछ लोग अभी भी आए जा रहे हैं। इस बीच जो आईं थीं वो थोड़ी देर के लिए चली गई हैं। मीटिंग में बैठने वालों ने बैकग्राउंड का ध्यान रखा है। कोई अपने सुसज्जित घर को दिखाना चाहता है तो कोई सोफे पर ऐसे धंस के बैठा है उसके अलावा कुछ न दिखे। कोई इसी वजह से तिरछा बैठा है कि घर न दिखे। ऑन लाइन क्लास हो या मीटिंग हो, सबसे बड़ा संघर्ष बैकग्राउंड का है। घर का वो छोटा सा हिस्सा कैसा दिखे। जिस मुल्क में सब कुछ बेपर्दा हो चुका हो, अस्पताल के बाहर लोग तड़प कर मर गए हों, उस मुल्क के लोग एक वर्चुअल मुलाकात के लिए अपने घर के किसी ख़ास एंगल को लेकर जद्दो जहद है। ज़ूम ने बैकग्राउंड की सुविधा दे दी है। आप चुन सकते हैं। बैकग्राउंड चीट कर सकते हैं। सबको पता है। जैसे सरकार आपसे चीट कर लेती है और आपको पता होता है।
हर किसी के घर का कोना वैसा नहीं होता है जैसा फ़ेसबुक पोस्ट में कुछ लोगों के घर का कोना दिखता है। इस कोने के दबाव में कई लोग आ जाते हैं। अब ज़ूम मीटिंग के लिए तो आप पेंटिग्स और गमलों की सज़ावट नहीं कर सकते। इसलिए उस एंगल पर बैठना है जिससे पूरा घर एक्सपोज़ न हो। दफ़्तरों की मीटिंग और ऑनलाइन क्लास की कहानी तो और भी जानलेवा है। इसे रहने देते हैं। ज़ूम के बैकग्राउंड की मदद से वेनिस की सेटिंग कर दी गई है। जबकि है वहां जहां सुबह से पानी नहीं आया है।नीचे से आवाज़ आ रही है। धनिया ले लो। आलू ले लो। महीनों धुलाई से घिस कर मुलायम हो चुके पुराने चादर का अपना ही सुख है। लेकिन मीटिंग के कारण खटक रहा है। अनवरत कार्यरत होस्ट ने बिस्तर की अपनी चादर बदल दी है। पीछे का सारा खदर-बदर हटा कर साफ कर दिया है। ठीक वैसे ही जैसे सरकार आंकड़ों से मरने वालों को साफ कर देती है। जैसे हैं वैसे दिखने का साहस हम खो चुके हैं। जो नहीं हैं वही होने का जुगाड़ करते रहते हैं। सब ऐसे नहीं हैं। संतुलन के लिए ऐसा कहना ज़रूरी है। हाफ पैंट के दिखने का तो कोई चांस ही नहीं है।हम सभी ज़ूम के कैमरे से अपने घर को बचाने के लिए कोने का सहारा ले रहे हैं। इन्हीं कोने न जाने कितने घरों को एकसपोज़ होने से बचाया है।
तरह-तरह के एंगल से घर को दिखाने और छिपाने के बाद चेहरे के एंगल की फिक्र रह गई है। साइड और फ्रंट लुक को लेकर मारा-मारी है। कैमरे के कितना करीब रहें या कितना दूर जाएं इसका हिसाब लगाया जा रहा है। जाने कब ज़ूम का कैमरा सर के बाल का टेलिकास्ट करने लगा है। तभी दूसरे का चेहरा देख कर तीसरा ख़ुद को कैमरा से दूर हटाता है ताकि केवल चेहरा ही दिखे और ठीक से दिखे। किसी ने कुर्ता खींच कर सेट किया है। किसी ने रीढ़ सीधी की है। सहज दिखने की इस मीटिंग में कोई सहज नहीं है। परिचित अपरिचित हैं। सब एक दूसरे को कैमरे के फ्रेम से देख रहे हैं। जैसे फोटो सेशन के समय हम सतर्क हो जाते हैं। भीतर से महसूस करते हैं कि हंस रहे हैं लेकिन चेहरे पर हंसी उभर नहीं पाती है। ज़ूम मीटिंग में हंसते समय ध्यान रखना होता है। दांत के पीछे का भी क्लोज़ अप आ जाता है। किसी ने किसी को हफ्तों बाद देखा है। लंबे बालों से लेकर दाढ़ी पर बात होने लगती है।
ख़ूबसूरती की चर्चा संक्षिप्त है। शुरू होते ही ख़त्म हो जाती है। बहुत कम लोग हैं जो बिना असहज हुए सामने से किसी के चेहरे का बयान कर सकते हैं। बहुत कम लोग हैं जो इस बयान से असहज नहीं होते हैं। मतलब निकाले जाने का ख़तरा होता है। तो बात फूलों की सुंदरता पर होने लगती है। ऐसा लगता है कि सुंदरता की तारीफ़ ख़ास के लिए रिज़र्व है। या फिर जेंडर्ड है। एक लड़की दूसरी लड़की की तारीफ़ कर रही है।बाक़ी चुप हैं। कैसे बोलें। क्या बोलें। एक लड़का दूसरे लड़के की तारीफ़ कर रहा है। कभी कभी जेंडर्ड लाइन टूट भी जाती है। मुमकिन है यह सही न हो, लेकिन ग़लत है, यह मुमकिन नहीं है। तो सुरक्षित मार्ग है कि कपड़े की तारीफ़ की जाए। आसमान का रंग नीला है और बाहर हवा अच्छी है। किसी के पास सामने से तारीफ़ करने के न तो शब्द हैं और न ही सलीक़ा।मान लेने में क्या बुराई है। अच्छा दिखने का अहसास कितना व्यक्तिगत हो चुका है। जबकि इसमें देखे जाने वाले भी शामिल हैं लेकिन उनके पास न तो इसकी ज़ुबान और न साफ़ नज़र।ख़ूबसूरती के वर्णन पर अघोषित तालाबंदी है।ज़ूम मीटिंग में बहुत कम लोग होते हैं जो ठीक से तैयार होकर आते हैं। इसी मुल्क में एक ख़बूसूरत ग़ज़ल लिखी गई है...देख लो आज हमको जी भर के…. इसमें भी ज़ोर देखने पर है। कहने पर नहीं है।
बहुत दिनों बाद किसी दोस्त को देखकर सदमा जैसा लगता है। व्हाट्स एप के इनबॉक्स में लिख कर बात करते करते उसका चेहरा ग़ायब हो चुका है। नज़र के सामने उसे लिखे हुए शब्द है जिससे कई बार उसकी आवाज़ भी आती है मगर चेहरा नहीं आता। चेहरा दिखा है। कुछ बदलने की बात होती है। फिर अचानक बात वज़न पर शिफ्ट हो जाती है। देखने की ख़ुशी कम देर के लिए ठहर पाती है। वज़न की बात से उन्हें बुरा लगता है जिन्होंने वज़न छुपाने के लिए थोड़ा तिरछा बैठने का जुगाड़ लगाया है।तभी सिग्नल सिग्नल फ्रीज़ हो जाता है। चेहरे की आख़िरी मुद्रा उस टाइम फ्रेम की तरह जमी रह जाती है जैसे कर्फ्यू और तालाबंदी से पहले ज़हन में शहर और जीवन की अंतिम छवि बची रह गई हो। अचानक सिग्नल आ जाता है। चेहरे में जान आ जाती है। जैसे तालाबंदी के समाप्त हो जाने का एलान हो गया हो। मुलाकात का यह विकल्प मुलाकात के जैसा है। मुलाकात है नहीं। बस मुलाकात का बहाना है।