सामने की बालकनी के कुछ नोट्स / रवीश कुमार
वह बालकनी में एक ही बार आती है। बड़ी सी बाल्टी लेकर जिसमें उसके संसार के धुले कपड़े हैं। उसने पसारने का समय तय कर लिया है। उसी के बीच उसे कपड़े पसारने हैं। वह खड़े खड़े दौड़ रही है। बाल्टी की तरफ इस आस में झुकती है कि हल्के कपड़े ही निकलेंगे। बच्चे के छोटे कपड़े हाथ लगते ही खिल जाती है। उन्हें इस तरह झाड़ कर पसारती है जैसे कोई उस्ताद संगीत की साधना में खो जाने से पहले अपनी उंगलियों को वाद्य यंत्र पर यूं ही दौड़ा देता है और श्रोता झूम उठते हैं। इस बार कोई भारी कपड़ा हाथ लगा है। उसकी चाल बदल गई है। उसने अपने पूरे शरीर को जुटा लिया है। हर कोने से शक्ति मंगा कर दोनों हाथों में फैला दी गई है। ज़ोर से उस भारी कपड़े को झटकती है। पसारने के बाद अपने ललाट को पोंछ रही है। भारी कपड़े को पसारना कई कामों के बीच एक बड़ा काम पूरा करने जैसा है। हल्के कपड़े उसे ब्रेक की तरह लगते हैं। अब उसने सारे कपड़ों को पसार दिया है। इस बीच पास खेलते बच्चे पर भी नज़र है। उसे भी पकड़ते रहती है। यह काम ख़त्म हो चुका है। उसने एक बार भी अपनी बालकनी में खड़े होकर आसमान की तरफ नहीं देखा है। वहां से गुज़रती हवा को महसूस करने की कोशिश नहीं की है। दिन या रात को देखने की कोशिश नहीं की है। अब वह जा रही है। जाते-जाते एसी साफ करने लगती है। एक काम से निकल कर दूसरे काम में खो जाती है। फिर नहीं आती है। शाम को उसका पति आता है।
इस बालकनी को कई साल से देख रहा हूं। हमेशा एक स्त्री ही कपड़े पसारने आती रही है। पहली बार किसी बालकनी में पुरुष को चादर फैलाते देख रहा हूं। अपनी ताकत से चादर को हवा में उड़ा रहा है और धम से पटक दे रहा है। वह काम को एक बला की तरह ख़त्म कर रहा है। जबकि उसके पहले जो स्त्री आती थी वह हर कपड़े को अपने जिगर के हिस्से की तरह पसारती थी। वह अपने किए हुए काम को पसारने के आख़िरी चरण में जैसे-तैसे ख़त्म नहीं करना चाहती है। लेकिन यह पुरुष जैसे फेंक कर चला गया हो। मैं दुआ कर रहा हूं कि वह स्त्री ठीक होगी। बीमार नहीं होगी। कोरना के समय में उसके लिए यह प्रार्थना ज़रूरी है।
एक बहुत ऊंची बालकनी में पहली बार एक जोड़ा कुर्सी पर बैठा दिखा। उत्साह से देखने लगा कि कोई है जो कपडे पसारने के अलावा बालकनी का दूसरा इस्तमाल कर रहा है। अब दोनों एक दूसरे के साथ समय बिताएंगे। थोड़ी देर में ही एक कुर्सी ख़ाली हो जाती है। स्त्री की कुर्सी। पुरुष अपनी कुर्सी पर बैठा है। अब वह स्त्री आने-जाने लगी है। काम करने लगी है। कुर्सी पर बैठने का सुख पुरुष को हासिल है।
कुछ बालकनी में स्त्रियां दिन में दो बार आती हैं। एक बार कपड़े पसारने और दूसरी बार पौधों में पानी देने। सामने ऐसी बालकनी कम है। वह पर्यावरण को बचाने में योगदान दे रही है या अपने काम को दोहरा कर रही है, इस पर आप बहस कीजिए ही। मैं क्वारिंटिन के दिनों में सामने की बालकनी निहारता रहा कि कोई स्त्री आकर बैठेगी। देर तक कुछ सोचेगी। किसी से बात करती रहेगी। ऐसा एक बार भी नहीं हुआ।
इस बालकनी में स्त्री आधी दिखती है। दीवार ऊँची है। उसका आधा शरीर पोछा लगाते दिख रहा है। कभी उसे अपने ही साफ की हुई जगह पर तफरीह करते नहीं देखा। इस बालकनी की स्त्री तो डंडे में ही सारी ताकत लगा देती है। फर्श को ऐसे रगड़ती रहती है जैसे उसने तय कर लिया है कि जवानी से लेकर बुढ़ापे तक इस फर्श को सोना बना देना है। उसके जाने के बाद उसका पति आता है। ठाठ से। धुआं छोड़ता है। अपने कमाए पैसे से खरीदे गए फ्लैट को गर्व से देखता है। कुछ फोन-वोन करता है। फिर संतुष्ट होकर भीतर चला जाता है। बालकनी स्त्रियों के लिए कार्य-क्षेत्र है। पुरुषों के लिए आराम की जगह।
किसी अनिवार्य काम के सिलसिले में एक सोसायटी में जाना हुआ। वहां कई सौ फ्लैट हैं। किसी बालकनी में एक इंसान नहीं दिखा। सब बंद। कपड़े भी दिखाई नहीं दिए। एक बालकनी आधी खुली थी। उससे एक स्त्री झांक रही थी। जबकि उसके देखने के लिए कुछ नहीं था। सन्नाटा था।