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अशोक बाजपेयी की यादों मे अज्ञेय

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 आज सुबह अशोक बाजपेयीजी से बातें हो रही थी। मैंने पूछा आपने अज्ञेय के संबंध में एक लेख लिखा था - बूढ़ा गिद्ध क्‍यों फैलाए -  जब छपा तब अज्ञेय की क्‍या प्रतिक्रिया थी। 


प्रस्तुति - मुकेश प्रत्युष 

 

वाजपेयीजी ने कहा मैं उसी समय विदेश चला गया था इसलिए ज्‍यादा कुछ पता नहीं चल पाया।  अज्ञेयजी  उन दिनों जोधपुर विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर थे और नामवर सिंह के साथ रहते थे। उन्‍होंने  वहीं उस लेख को पढ़ा था और नामवर सिंह से कहा था अच्छा है। बाद में यह बात मुझे  नामवर सिंह ने बताई थी । यह बात दूसरी है कि इसके बाद कई वर्षों तक उन्‍होंने मेरे निमंत्रण को स्‍वीकार नहीं किया, कार्यक्रमों में नहीं आए।   एक बार जब मैं भोपाल में था, वे  सांची आए हुए थे मैंने काव्‍य-पाठ के लिए अनुरोध किया जिसे स्वीकार करते हुए वे आए और लगभग डेढ़ घंटे तक काव्‍य-पाठ किया। कुछ दिनों के बाद एक और महत्वपूर्ण घटना  हुई । एक नाट्य संस्था के अध्यक्ष के रूप में अज्ञेयजी का कार्यकाल समाप्‍त हो रहा था तो अगले अध्यक्ष के रूप में उन्‍होंने मेरा नाम प्रस्तावित किया  और मैं उसका अध्‍यक्ष बना। मैंने इन घटनाओं की चर्चा संस्‍मरणों की अपनी नई किताब में की है। 


इसी क्रम में तीन घटनाएं और। 

(1)

अज्ञेय ने विश्‍वभारती पत्रिका में एक लेख लिखा था -  निराला इज डेड। कुछ समय के बाद अज्ञेय निराला से मिलने शिवमंगल सिंह सुमन के साथ गए। बैठने के बाद सुमन ने निराला पूछा – निरालाजी आजकल आप क्‍या लिख रहे हैं निरालाजी ने कहा निराला कौन निराला, निराला तो मर गया। निराल इज डेड।  बातचीत के क्रम में एक बार फिर कहा  निराला इज डेड। आई एम नाट निराला। 

लंबी बातचीत के बाद, जिसके संबंध में अज्ञेय ने वसंत का अग्रदूत में लिखा है कि  उन्‍हें याद करता हूं तो आज भी मुझे आश्‍चर्य होता है कि हिन्‍दी काव्‍य रचना में जो परिवर्तन हो रहा था उसकी इतनी खरी पहचान निराला को थी उस समय के तमाम हिन्‍दी आचार्यों से कहीं अधिक सही और अचूक और वह भी तब जब कि ये सारे आचार्य उन्‍हें कम-से-कम आधा विक्षिप्‍त तो मान ही रहे थे। इसके बाद निरालाजी ने इन्‍हें  कटहल की सब्‍जी, जो वे बना रहे थे, खिलाई  और विदा के समय अपनी नई किताब अर्चना की प्रति यह लिख कर दी 

To Ajneya,

The Poet, Writer and Novelist

In the foremost rank. 

Ni…..

18.5.51


(2)

सुधा के सम्पादकीय में कालिदास की कला पर निराला की एक टिप्पणी प्रकाशित हुई जिसकी भाषा में लालित्य था किंतु उक्तियों में तीखापन‎। 18 वर्षीय  जानकी वल्‍लभ शास्‍त्री, को यह टिप्‍पणी पसंद नहीं आई,  तिलमिलाकर उसका प्रतिवाद लिख भेजा। निराला ने पहली यह नाम बार देखा और आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी के साथ उनके हास्टल में मिलने चले गए‎। शास्‍त्रीजी ने हंस बलाका में लिखा है - चार सीटों वाले उस कमरे में एक चौकी पर चटाई डालकर मैं अधलेटा-सा चने खा रहा था‎। दोनों में से किसी को पहचानता नहीं था । किसी ने कहा - आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी‎। मैं चकित-चमत्कृत छायावाद के प्रथम समर्थक आलोचक को देखकर ‎। तभी दूसरे कोने में खड़े पहाड़ से व्यक्ति पर निगाह गई सिर छत से कुछ ही नीचे था। उन्होंने अंग्रेजी में पूछा कि क्या मैं ही जानकी वल्लभ शास्त्री हूँ। फिर मैंने पूछा -आप कहीं निराला तो नहीं? वाजपेयीजी ने सकारात्मक सूचना दी और मैं उनके चरणों में झुक गया लेकिन उन्होंने अधबीच में ही मुझे अपनी  बाहों में भर लिया‎। मैं परेशान - आधुनिक हिन्दी कविता का प्रतीक पुरुष जो दकियानूसों की आँखों की किरकिरी हैं जिनका काव्यामृत उनके आलोचकों को जहर से ज्यादा तीखा लगता है किन्तु नया जमाना जिसका कायल है वह खुद चलकर मुझसे मिलने  आए‎। 

(3)

निराला ने पंतजी और पल्‍लव शीर्षक से एक लंबा लेख लिखा था और वाल्‍मीकि, जयदेव, विद्यापति, मिल्‍टन, शेली, भूषण, रवीन्‍द्रनाथ ठाकुर आदि अनेक महान कवियों की पंक्तियों से सुमित्रानंदन पंत की पंक्यिों की तुलना करते हुए माना था पंतजी ने दूसरे की काव्‍य-पंक्तियों की चोरी की है। निराला के ही शब्‍दों में कहें तो वह पंक्तिचोर हैं भाव-भंडार को लूटने वाले डाकू नहीं ।  इसके विरूद्ध पंतजी या उनके प्रशंसकों ने कभी निराला के संबंध में कुछ कहा हो मैंने ऐसा कहीं पढ़ा-सुना नहीं।


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