‘गाँव के लोग’ पत्रिका का दलित विशेषांक (जनवरी-फरवरी, 2021) जून में प्रकाशित होकर आया है. 360 पृष्ठों का यह विशाल विशेषांक सुगठित है. अपने आकार में बड़ा होने के बावजूद यह व्यवस्थित अंक है. डॉ. एन. सिंह और अरुण कुमार Arun Kumar के ‘अतिथि सम्पादन’ में निकला यह अंक पत्रिका के मूल सम्पादक रामजी यादव के कुशल प्रबंधन में प्रकाशित होकर हमारे सामने आया है.
नौ आंतरिक खंडों में वर्गीकृत किया गया यह अंक अपने प्रतिनिधित्व के कारण ध्यान आकर्षित करता है. इसमें कई तरह के प्रतिनिधित्व को जगह दी गई है. विधाओं की दृष्टि से देखें तो इसमें साक्षात्कार, वैचारिक लेख, कहानी, उपन्यास-अंश, आत्मकथ्य, लघुकथा, कविता, नवगीत और समीक्षाएँ हैं. सभी उम्र के लेखक इसमें शामिल किए गए हैं. हिंदीतर भाषाओं में लिखित दलित साहित्य पर भी आलेख यहाँ पढ़ने को मिलेंगे. स्त्री-पुरुष और दलित-गैरदलित लेखकों से सजा यह अंक कुल मिलाकर अपने व्यापक प्रतिनिधित्व के कारण अच्छा लग रहा है.
साक्षात्कार वाले हिस्से में जो बातचीत दर्ज हैं उनमें पर्याप्त खुलापन है. माता प्रसाद, मूलचंद सोनकर, मलखान सिंह, चौथीराम यादव Chauthi Ram Yadav , जयप्रकाश कर्दम Jai Prakash Kardam , असंगघोष Asangaghosh Asangaghosh आदि से की गयी बातचीत में जीवंतता का बहुत ख्याल रखा गया है. वैचारिक निबंधों की भाषा में भी परिपक्वता दिखायी पड़ रही है.
एक बात का उल्लेख आवश्यक है कि डॉ. धर्मवीर की मृत्यु के बाद आया हुआ यह दलित विशेषांक कुछ दूसरी बातों की तरफ भी हमारा ध्यान आकर्षित करता है. मेरा आशय कुछ इस तरह की बातों से है –
(क) भाषा की तल्खी में कमी आयी है. जैसे – कँवल भारती ने ‘राम की शक्ति-पूजा’ को द्विज मनोभाव की कविता बताते हुए कविता से प्रमाण दिए हैं मगर भाषा को ज्यादा तल्ख होने नहीं दिया है.
(ख) एकमात्र अपनी बात को सही मानने की प्रवृत्ति में भी काफी कमी आयी है. कर्मानंद आर्य Drkarmanand Arya के लेख को पढ़ा जा सकता है जहाँ उन्होंने अत्यंत धैर्य के साथ अपनी असहमतियाँ दर्ज की हैं.
(ग) दलित और गैर-दलित के बीच जितने सख्त आग्रह पहले दिखायी पड़ते थे, वैसी छवि इस अंक की नहीं बनती है. यह अंक दलित साहित्य को हर तरह के प्रतिनिधित्व से जोड़ने का प्रयास करता हुआ प्रतीत होता है.
(घ) इस अंक को दलित लेखकों के किसी एक गुट तक सीमित करके भी नहीं देखा जा सकता है.
(ङ) ऐसा लगता है कि दलित साहित्य पूर्णतः स्थापित होकर यहाँ प्रस्तुत हुआ है. मेरा आशय यह है कि डॉ. धर्मवीर के दौर तक ‘अपने और अन्य’ के साथ जो संघर्ष चल रहे थे उन संघर्षों को परिणति प्राप्त हो चुकी है. किसी तरह का तीखा या विध्वंसक विवाद इस अंक में दिखायी नहीं पड़ता है.
डॉ. धर्मवीर ने कई तरह के विवादों से संघर्ष करते हुए दलित लेखन को गति दी थी. उनका साहित्यिक-वैचारिक संघर्ष आत्मसंघर्ष भी था जो उन्हें अंततः आत्मोत्पीड़न तक ले गया था. उनके बाद का यह दौर दलित साहित्य की तीखी गति का दौर तो नहीं है, मगर वैचारिक रूप से आत्मविश्वास से भरा हुआ है.
‘गाँव के लोग’ ने एक सन्नाटे को तोड़ा है और दलित साहित्य को व्यापक मंच पर प्रस्तुत किया है. इसमें हर तरह का धैर्य दिखायी पड़ता है और दलित साहित्य की अहमियत को एक बार फिर से व्यक्त करने का विवेक भी.
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गाँव के लोग (जनवरी-फरवरी, 2021)
अतिथि सम्पादक – डॉ. एन. सिंह, अरुण कुमार
सम्पादक – रामजी यादव, 9479060031, 9454684118